सूरत/अहमदाबाद। राजेश महतो बिहार के बक्सर जिले के रहने वाले हैं। गांधी नगर IIT की कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते हैं। इनके साथ 48 मजदूरों की टीम है। ये सभी लोग लॉक डाउन के बाद बक्सर जाना चाहते थे। इन लोगों ने बताया कि “जब केंद्र सरकार ने श्रमिक एक्सप्रेस से मजदूरों को उनके गांव जाने की अनुमति दी तो हमारे सुपरवाईज़र ने गांधीनगर कलेक्टर ऑफिस को आवेदन दिया था।
पंद्रह सोलह दिन बाद भी वहाँ से कोई फोन नहीं आया तो हमने कटिहार के सामाजिक कार्यकर्ता आदिल हसन आज़ाद से संपर्क किया। उन्होंने अहमदाबाद के एक पत्रकार से संपर्क करने को कहा। उस पत्रकार के माध्यम से अहमदाबाद के सरसपुर से मुज़फ़्फ़रपुर की ट्रेन का कूपन मिला तब जाकर ट्रेन में बैठ पाए”।
इसी प्रकार से गोदरेज सिटी, बोपल, चाँदखेड़ा, नरोड़ा रिंग रोड इत्यादि की कंस्ट्रक्शन साइट पर काम कर रहे बिहार के मजदूर जनचौक संवाददाता से संपर्क कर बिहार जाने में सफल हुए। जनचौक ने गुजरात में काम कर रहे 500-600 प्रवासी श्रमिकों को गाँव लौटने में मदद की है। राज्य सरकार की श्रमिक मजदूरों के प्रति गलत नीतियों के कारण केवल गांधी नगर और अहमदाबाद ही नहीं राज्य के अन्य जिलों के श्रमिकों को भी परेशानियों से गुज़रना पड़ा।
अखिलेश कुमार माथुर सूरत की एक कपड़ा फैक्ट्री में प्रवासी मजदूर हैं। इन पंक्तियों ने लेखक ने उनसे टेलीफोन पर बात की तो उन्हें लगा तहसीलदार के दफ्तर से फोन है। क्योंकि गांव लौटने के लिए उन्होंने तहसीलदार के दफ्तर में अर्ज़ी दे रखी थी। फिर मैंने उन्हें बताया मैं कोई सरकारी व्यक्ति नहीं बल्कि एक पत्रकार हूँ।
माथुर ने बताया, “4-5 मई को हमारा मेडिकल चेक अप के बाद मामलतदार (तहसीलदार) के कार्यालय में अर्ज़ी दी थी। 14 मई तक श्रमिक एक्सप्रेस से बिहार जाने की उम्मीद में मामलतदार के दफ्तर रोज़ाना आता जाता रहा। लेकिन वहाँ से कभी भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो 14 मई को ही हम चार लोग सूरत से पैदल अपने गांव लोहारी, ज़िला छपरा, बिहार के लिए निकल गए।
रास्ते में कहीं ट्रक वाले बैठा लेते थे। पैदल ट्रक, पैदल ट्रक करते आज (21 मई ) गांव पहुँच गए।” यही कहानी बहुत से प्रवासी मजदूरों की है। माथुर सूरत शहर की एक फैक्ट्री में काम करते थे। जो तहसीलदार के ऑफिस तो जरूर चले गए। लेकिन वहाँ से श्रमिक एक्सप्रेस की सवारी का नंबर नहीं आया। लिहाजा हिम्मत कर 1750 किलो मीटर दूर अपने गांव पैदल ही चल दिए।
सूरत से समुद्री तट और तापी नदी होते हुए हजीरा और मोरा इंडस्ट्रियल ज़ोन है। L&T, रिलायंस, एस्सार जैसी बड़ी कंपनियां यहीं पर हैं। Stranded workers Actions Network (SWAN) के अनुसार पीएम केयर्स फंड में इन कंपनियों ने 400 करोड़ रुपए का चंदा भी दिया है। SWAN के अलावा PUCL और गुजरात सर्वोदय जैसी संस्थाएं इन प्रवासी मजदूरों को उनके गांव भेजने के प्रयास में पूरे जी जान से जुटी हुई हैं। इस संबंध में ये संस्थाएं मजदूर एवं सामाजिक आंदोलन से नेता बने विधायक जिग्नेश मेवानी को प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा से अवगत कराया।
मेवानी ने मुख्य मंत्री विजय रूपानी को पत्र लिख कर उन्हें मामले को संज्ञान में लेने की अपील की थी तथा मजदूरों को उनके गांव भेजने की व्यवस्था की मांग की थी। पत्र में मेवानी ने कहा था कि “सस्ती मजदूरी के कारण ये कंपनियां प्रवासी मजदूरों को बंधक बनाने का प्रयत्न कर रही हैं। यह आधुनिक गुलामी है जिसमें राज्य सरकार की सहमति है।” SWAN के अनुसार लॉक डाउन के कारण गुजरात उद्योग का दिल कहे जाने वाले इस उद्योग विस्तार में 50000 से 70000 प्रवासी मजदूरों को ठेकेदारों और मालिकों ने बंधक बना रखा है। प्रशासन और पुलिस सब कुछ जानते हुए आँखें मूंदे हुए हैं।
मजदूर जब वहाँ से निकलने का प्रयास करते हैं तो पुलिस मारपीट कर वापस कर देती है। मालिकों ने मजदूरों को भयभीत कर रखा है। डर-डर कर वे सामाजिक तथा मजदूर संगठनों को फोन कर अपनी दुर्दशा बता रहे हैं। मज़दूरों का कहना है कि लॉक डाउन की शुरुआत से ही एक NGO ने खाने की व्यवस्था की थी। दो सप्ताह से उन लोगों ने आना बंद कर दिया है। अब भूख से संघर्ष करना पड़ रहा है। कुछ लोकल संस्थाएं प्रवासी मजदूरों के अपने गृह प्रदेश भेजने के लिए गुजरात सरकार के साथ मलिकर जिस प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही थीं उससे प्रवासी मज़दूरों के साथ बड़ा धोखा हो गया। और अंत में मज़दूरों के भेजे जाने का मामला टांय-टांय फिस्स हो गया। फिर नई प्रक्रिया अपनायी गयी। जिसमें राजनैतिक लोगों का दखल बहुत ज्यादा है। और यह बिल्कुल भी पारदर्शी नहीं है।
संदीप यूपी में जौनपुर ज़िले के रहने वाले हैं। मोरी इंडस्ट्रियल ज़ोन में वेल्डिंग का काम करते हैं। उन्होंने जनचौक को बतयाा कि “5 मई को मोरा गांव नगर पंचायत में श्रमिक ट्रेन से गांव जाने के लिए फॉर्म भरा था। आधार कार्ड नंबर सहित सभी जानकारियां दी थी। परंतु अभी तक नंबर नहीं आया।” सूबे में संदीप जैसे लाखों हैं जो फॉर्म भर कर अब भी इंतज़ार कर रहे हैं। श्रमिक एक्सप्रेस से प्रवासी मजदूरों को उनके गांव भेजने के नाम पर गुजरात सरकार ने धोखा दिया है। ट्रावेल परमिट के तहत गुजरात सरकार ने ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के अलावा एक टोल फ्री नंबर 18002339008, व्हाट्स अप न. 9925020243, लैंड लाइन नंबर 079-26440626 जारी किया था और उनके जरिये श्रमिकों, छात्रों, यात्रियों के पंजीकरण की व्यवस्था दी गयी थी। गूगल डॉक फॉर्म लिंक भी जारी किया गया था जिसके माध्यम से हज़ारों लोगों ने फॉर्म भी भरे थे। ये सभी नंबर और गूगल लिंक अहमदाबाद के कॉलेक्टर केके निराला ने भी अपने ट्विटर हैंडल से साझा किया था। लेकिन विडंबना यह रही कि इन माध्यमों से एकत्रित डाटा को न तो तहसीलदार, न ही कलेक्टर ने उपयोग में लिया।
सरकार द्वारा जारी नम्बरों की पड़ताल की गई तो पता चला ये सभी नंबर अहमदाबाद स्थित अक्षर ट्रावेल के हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने अक्षर ट्रावेल के निदेशक सुहाग मोदी से बात की तो उन्होंने बताया, “अक्षर ट्रावेल केवल काल सेंटर की तरह काम कर रहा है। हम डाटा एकत्र कर कलेक्टर ऑफिस को दे देते हैं। इससे अधिक हमारी कोई भूमिका नहीं है।”
अधिकतर श्रमिक ट्रेनों का आयोजन लोकल सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ता कर रहे हैं। पहले रेलवे 1200 यात्रियों की ट्रेन देता था बाद में इसे बढ़ाकर 1620 कर दिया गया। कलेक्टर अथवा तहसीलदार सीधे पूरी ट्रेन ही एक व्यक्ति को दे दे रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मिस्टर X ने 1620 यात्रियों का डाटा तैयार कर तहसीलदार से एक पूरी ट्रेन की मांग करता है। उसे ट्रेन आसानी से मिल जाती है। X के बताए स्थान से तहसीलदार तय समय और तारीख पर यात्रियों को बस से रेलवे स्टेशन ले जायेगा। कौन व्यक्ति सफर करेगा वह X तय करेगा। यात्रियों से किराया वसूली की जिम्मेदारी भी X की है। इस प्रक्रिया में वह यात्री को एक निजी कूपन देगा जिसके आधार पर यात्री रेलवे स्टेशन जाने वाली बस में बैठ जाएगा। स्टेशन पहुंचने से पहले X संबंधित तहसीलदार को एकत्र पैसा देगा। जो तहसीलदार रेलवे में जमा करेगा।
उदाहरण : यदि अहमदाबाद से पटना का किराया 750/- रुपए प्रति यात्री है। तो X 1620 x 750 = 1215000 रुपया तहसीलदार या किसी अन्य अधिकारी को देगा जो रेलवे को एक साथ पूरी रकम देगा। बदले में रेलवे प्रत्येक यात्री को 750 रुपये का टिकट देगा।” यदि X 750 के बजाय 1000 रुपये भी लेले तो हुए भ्रष्टाचार के बारे में कोई नहीं पूछेगा। क्योंकि X कोई सरकारी व्यक्ति नहीं है। ऐसे समय में जब मजदूर 2000 , 2500 किलो मीटर पैदल चलने को मजबूर हैं। तो लाचार मजदूर 1000 रुपये देकर भी धन्यवाद कहेगा। सरकार की गलत नीतियों ने मजदूरों को न केवल चकमा दिया बल्कि उन्हें समाज के इन अगुआ लोगों के आगे ट्रावेलिंग कूपन के लिए रोना और गिड़गिड़ाना भी पड़ रहा है। जनचौक ने बहुत सारे यात्रियों से बात की तो पता चला कि उनसे 1500 रुपये तक अधिक वसूले गए। लेकिन साथ ही यात्रियों ने यह भी कहा कि उनसे भले ही थोड़े पैसे अधिक लिए गए लेकिन वे खुश हैं क्योंकि आख़िरकार उन्हें कूपन तो मिल गया।
बड़ौदा के पर्यावरण सुरक्षा समिति के आनंद बताते हैं, “जब हमने टीवी पर देखा कि प्रवासी मजदूर पैदल ही अपने गाँव जा रहे हैं तो हम विशेष कर उन्हें देखने गोधरा रोड पर कार से निकले तो बड़ी संख्या में मजदूर पैदल चल रहे थे। यदि पुलिस उन्हें रात में रोकती तो वह दिन में चलते, दिन में रोकती तो रात में चलते। उनकी दुर्दशा देखकर मैंने प्रवासी मजदूरों के लिए किराये पर बस चलाने की अनुमति माँगी। तो बड़ौदा के डिप्टी कलेकटर ने प्रावधान न होने की बात कहकर मना कर दिया। जो लोग पैदल चल रहे थे पूछे जाने पर बता रहे थे संबंधित ऑफिस से ट्रावेल परमिट के लिए आवेदन दिया था लेकिन अधिकारी संतोषजनक उत्तर नहीं दे रहे थे। खाने पीने की दिक्कत के कारण भगवान भरोसे पैदल ही चल दिए।”
आनंद का मानना है कि सरकार आर्थिक कारणों से प्रवासी मजदूरों को रोके रखना चाहती थी। लेकिन वे रुके नहीं। कुतुबुद्दीन, साजिद और अब्दुल्ला गाजीपुर के तारी घाट के रहने वाले हैं। तीनों अहमदाबाद में गुब्बारा बेचने का काम करते हैं। हज हाउस के गेस्ट हाउस में 60 रुपये प्रति दिन के किराये पर रहते थे। लॉक डाउन में फंस गए थे। बताते हैं ” श्रमिक एक्सप्रेस की घोषणा हुई तो उन लोगों ने भी कंप्यूटर से फॉर्म भरवा दिया लेकिन पंद्रह दिन बीत जाने के बाद भी नंबर नहीं आया। आख़िर में गाँव के एक बसपा नेता से संपर्क किया उनकी यहाँ जान पहचान थी। फिर 20 मई को उनकी उसी जान पहचान से लखनऊ तक का ट्रेन का कूपन मिल गया। कूपन से उन्हें बस से रेलवे स्टेशन लाया गया और लखनऊ की ट्रेन में बैठा दिया गया।”
जनचौक ने अहमदाबाद के कलेक्टर के के निराला से अक्षर ट्रावेल और मजदूरों को गुमराह करने वाली हेल्पलाइन के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ” ये सभी नंबर बंद किये जा चुके हैं। ट्रेनें बिहार सहित अन्य कई राज्यों में रोज़ाना जा रही हैं। ” फिर जनचौक ने अहमदाबाद ज़िला मजिस्ट्रेट से कांस्ट्रॅक्शन साइट पर काम कर रहे बिहार के मजदूरों को ट्रावेल परमिट न मिलने तथा श्रमिक एक्सप्रेस के कूपन न मिल पाने की दिक्कतों से उन्हें अवगत कराया था। उसके अगले दिन अहमदाबाद से अचानक बिहार के लिए कई ट्रेनें लगा दी गईं। जिससे सुविधा तो हुई लेकिन बहुत सारी दिक़्क़तें भी मज़दूरों को झेलनी पड़ीं। लॉक डाउन के समय प्रवासी मजदूरों से वसूले जा रहे किराये के विरोध में गुजरात हाईकोर्ट में एडवोकेट आनंद याग्निक के माध्यम से याचिका डाली गई थी। जिस पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने राज्य सरकार को किराया वहन करने या फिर रेलवे को छूट देने का निर्देश दिया है।
इससे पहले 19 मई को याग्निक ने प्रवासी मजदूरों की ओर से आईआईएम अहमदाबाद के डायरेक्टर , PSP कंपनी और राज्य के मुख्य सचिव को नोटिस जारी कर आईआईएम अहमदाबाद के प्रोजेक्ट पर काम कर रहे मजदूरों को दो महीने का न्यून्तम वेतन और प्रवासी भत्ता देने की मांग की थी। PSP एक कंस्ट्रक्शन कंपनी है। आपको बता दें कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का गुजरात का कार्यालय तथा दिल्ली स्थित भाजपा ऑफिस का इंटीरियर भी PSP ने ही बनाया है। आईआईएम का प्रोजेक्ट भी PSP के ही पास है। 24 मई से गुजरात हाईकोर्ट के आदेश के बाद प्रवासी मजदूरों से रेल किराया नहीं लिया जायेगा।
अब तक 90 प्रतिशत मजदूर अपने गावों को जा चुके हैं। सरकार की गलत नीतियों के कारण मजदूरों को अपने गांव लौटने में न केवल संघर्ष करना पड़ा बल्कि उनसे किराये से अधिक पैसे वसूले गए। बहुत से मजदूर ब्लैक में टिकट खरीद कर गए हैं। 25 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक का प्रति टिकट में भ्रष्टाचार हुआ है। जनचौक ने अहमदाबाद के वस्त्राल, बापूनगर और रखियाल में बहुत सारे मजदूरों से बात की तो उन्होंने बताया कि उनसे अधिक पैसे वसूले गए हैं। टिकट के नाम पर कूपन की ब्लैक मार्केटिंग हुई। राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता खुद औद्योगिक विस्तार में घूम-घूम कर कूपन से काला बाजारी कर रहे थे।
इमरान एक प्रवासी मजदूर हैं। गांधीनगर IIT साइट पर काम करते हैं। उन्होंने 25 लोगों के साथ सीतामढ़ी के लिए रखियाल से कूपन लिया। ट्रेन में बैठने के बाद फोन कर बताया कि उनसे 40 रुपये अधिक लिए गए हैं।
24 मई को गुजरात हाई कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों से रेल टिकट का पैसा न वसूलने को कहा है। लेकिन अधिकतर मजदूर पैसे देकर कूपन ले चुके थे। आदेश के बाद आयोजकों ने वसूले पैसे वापस किये लेकिन अधिकतर मजदूर पैसे वापस लिए बिना ही चले गए। राजेश महतो जो मुज़फ़्फ़रपुर जाने वाली ट्रेन से गए उन्होंने एक दिन पहले कूपन लिया था। आयोजकों ने 24 को शाम छ बजे महतो को पैसे लौटा दिये वहीं सुबह 11 बजे बस से रेलवे स्टेशन जाने वाले ज़ाकिर, परवेज़, महबूब सहित 100 लोग अपने पैसे नहीं ले पाए और बिहार चले गए। आयोजकों का कहना है। कूपन देख कर ही पैसे लौटाए जायंगे। जो चले गए हैं उन्हें जय हिंद जय भारत बोल दो।
एडवोकेट उवेश मलिक कहते हैं, “मजदूरों को जिस प्रक्रिया के जरिये उनके गृह प्रदेश भेजने का काम हुआ है। उस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के पूरे अवसर हैं। सरकारी व्यक्ति के बजाय राजनैतिक दल के कार्यकर्ता कूपन बाँट कर पैसे वसूल करेंगे तो पारदर्शिता रही कहाँ। किसने कितने वसूले कहाँ से पता चलेगा। कानूनी तौर पर सरकारी या गैर सरकारी व्यक्ति पैसे वसूल कर रसीद अथवा बिल न दे तो यह गैर जमानती गुनाह है। यदि पैसे के बदले कूपन दिये गए हैं और रसीद नहीं दी गई तो यह गैर जमानती गुनाह है। ”
राज्य सरकार प्रवासी मजदूरों को राज्य में ही रोके रखना चाहती थी परंतु मजदूर रुके नहीं। जिसे जब भी मौका मिला वह जाता रहा। अंततः सरकार को गाड़ियां बढ़ानी पड़ी। समय पर सही निर्णय नहीं लिया गया जिसके चलते न केवल असुविधा हुई बल्कि मजदूरों को पीड़ा से भी गुज़रना पड़ा। राज्य सरकार की नीतियों से ऐसा लग रहा था कि सरकार प्रवासी मजदूरों को गुमराह कर राज्य में ही रोके रखना चाहती है। ताकि कारखाने और कंस्ट्रक्शन साइट लॉक डाउन के तुरंत बाद शुरू हो सकें। परंतु राज्य सरकार उन्हें रोकने में असफल रही। प्रवासी मजदूरों को जब जैसे मौका मिला अपने गांव लौट गए।
(अहमदाबाद से जनचौक संवाददाता कलीम सिद्दीक़ी की रिपोर्ट।)