ग्राउंड रिपोर्टः गंगा क्षेत्र को कछुआ सैंक्चुरी घोषित कर मोदी सरकार ने छीन ली निषादों की रोजी-रोटी

भदोही। लोकसभा चुनाव से बेखबर भदोही के डीह इलाके में गंगा के किनारे 65 साल के साधुराम निषाद नदी में मछली फंसाने लिए जाल फेंककर उसे खींचने की कोशिश में जुटे थे। वह चुपके से कई घंटों से पानी में जाल डाले हुए थे। जिस जगह वह मछली पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, वहां करीब आधा दर्जन नौकाएं थीं, जो गंगा के किनारे खड़ी थीं। साधु के मन में पकड़े जाने का खौफ था, क्योंकि केंद्र सरकार ने प्रयागराज के मेजा स्थित कठोरी गांव से भदोही के बरीपोर परवार गांव तक गंगा नदी में 30 किमी क्षेत्र को कछुआ सैंक्चुरी घोषित कर दिया है। भदोही जिले में अब गंगा में मछली पकड़ना पूरी तरह प्रतिबंधित है।

साधुराम निषाद के जाल में उम्मीद के मुताबिक उस दिन भी मछलियां नहीं फंसी थीं। भीषण गर्मी के चलते उनका चेहरा पसीने से तर-बतर था। बीच-बीच में चेहरे से बूंदें टपक रही थीं, जिसे वो बार-बार अपने गमछे से पोंछने की कोशिश कर रहे थे। वो मुश्किल से बात करने पर राजी हुए। लोकसभा चुनाव पर बात चली तो बिफर पड़े। बोले, ” ये कैसी सरकार है जो अच्छे दिन का ख्वाब दिखाती है और हमें मुश्किलों में धकेल देती है। वो हमारा गुनाह तो बताए और यह भी बताए कि बनारस की कछुआ सैंक्चुरी को भदोही की ओर क्यों ठेल दिया गया? 

यहां गंगा में सिर्फ नाम के लिए पानी है। ऐसे में भला कछुए कैसे जिंदा रहेंगे? मछली पकड़ना हमारा पारंपरिक पेशा था, जिसे बीजेपी सरकार ने एक झटके से ही बंद कर दिया। अब हम चोरी-छिपे ही गंगा में मछली पकड़ते हैं। गंगा में नाव चलाने पर भी रोक लगाई जा रही है। हमारे छह बच्चे हैं जो गंगा में मछलियां पकड़ा करते थे। अब किसी के पास काम नहीं है। लाचारी में कुछ बच्चों को कमाने के लिए हमें परदेश भेजना पड़ा है। हमारी मुश्किलें पहाड़ जैसी हैं। हमारी मुश्किलें नेताओं के समझ में क्यों नहीं आ रही हैं?”

निषादों के प्रतिनिधि धनराज।

भारत में कछुओं की 29 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 14 सिर्फ गंगा में मिलती हैं। बनारस में इसलिए कछुआ सैंक्चुरी स्थापित की गई थी कि वहां मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर लोग जले-अधजले शव गंगा में बहा दिया करते हैं। गंगा को निर्मल बनाए रखने के लिए कछुआ सैंक्चुरी में पहले हर साल मांस खाने वाले कछुए छोड़े जाते थे। बीजेपी सरकार ने काशी विश्वनाथ मंदिर को धाम बनाया तो व्यवसाय के कई रास्ते भी खोल दिए।

तंबुओं का शहर बसाने में कछुआ सैंक्चुरी बाधक बनी तो उसे यहां से भदोही की ओर ट्रांसफर कर दिया गया। डीह, छिछुहा, बारीपुर, कलिजरा, अरई, महादेवा, बहपुरा, इब्राहिमपुर, रामपुर गुलौरी, बोगांव समेत तमाम गांव गंगा के किनारे बसे हैं और इन गांवों में मछुआरों की एक बड़ी आबादी है। मछली पकड़ने पर पाबंदी लगने की वजह से मछुआरे खून के आसूं रो रहे हैं। पहले मछुआरा समाज ही बालू की निकासी भी करता था। अब इसे भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। नतीजा भदोही के करीब बीस हजार से अधिक मछुआरों के परिवारों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया है। 

डीह गांव के धनराज निषाद जिला पंचायत सदस्य हैं। मछुआरों को जन-जाति का दर्जा दिलाने और कछुआ सैंक्चुरी में मछली पकड़ने की छूट दिलाने के लिए मुहिम चला रहे हैं। वह कहते हैं, “लोकसभा चुनाव में कछुआ सैंक्चुरी को भदोही में सबसे बड़ा मुद्दा है। सत्तारूढ़ दल ने मछुआरों पर जब से पाबंदियां लगाई हैं, तब से वह ठगा महसूस कर रहा है। जो लोग कई पीढ़ियों से मछली पकड़ने का धंधा करते थे, उनके सामने दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो गया है। मछुआरे पहले कभी भी और कहीं भी गंगा में मछली पकड़ सकते थे।

कोई दिक्कत नहीं थी। सरकार ने जब से भदोही जिले में गंगा को कछुआ सैंक्चुरी के रूप में चिह्नित किया है तब से दिक्कत खड़ी हो गई है। मछुआरे अब चोरी छिपे ही मछली पकड़ पा रहे हैं। मजबूरी यह है कि वो यह काम नहीं करें तो अपने परिवार का पेट कैसे भर पाएंगे? कई बार वन विभाग के कारिंदे धमक जाते हैं। मछली मारते हुए पकड़ते जाने पर डराया-धमकाया जाता है और उगाही भी की जाती है। पिछले साल सर्दियों में कुछ मछुआरों को वन विभाग वालों ने गंगा में मछली पकड़ते हुए धर लिया था। हमने काफी प्रयास किया और अपने पास से सुविधा शुल्क दिया तब वो छूट पाए थे।”

 इधर क्यों ठेल दी कछुआ सैंक्चुरी?

 “डीह में पहले घाट चलता था। बाद में सीतामढ़ी में पीपा का पुल बन गया। इस वजह से घाट बंद हो गया और निषाद समुदाय की कमाई एक झटके में ही खत्म हो गई। यहां सबसे बड़ा नुकसान बालू खनन बंद होने से हुआ है। कछुआ सैंक्चुरी बनने से पहले हमारे समुदाय के लोगों को गंगा में मछलियां पकड़ने पर रोक नहीं थी। मछुआरा समाज बालू का धंधा भी करता था। ज्यादातर लोगों के पास नौकाएं थीं, जिससे वो बालू की ढुलाई किया करते थे।

अब गंगा के किनारों पर नौकाएं सड़ रही हैं। सबकी आजीविका पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गौर करने की बात यह है कि भदोही में गंगा तेजी से सूखती जा रही है। ज्यादातर स्थानों पर 10-15 फीट से अधिक पानी नहीं है। आखिर ये कछुए कहां रहेंगे? कछुए और डाल्फिन मछलियां तो गंगा से न जाने कब से गायब हो चुकी हैं।

धनराज निषाद यह भी कहते हैं, “भदोही को कछुआ सैंक्चुरी की कोई जरूरत नहीं थी। बनारस की कछुआ सैंक्चुरी को यहां धकेलने का क्या मतलब? आखिर सरकार ने यह कैसे पता लगा लिया है कि कछुओं ने अपना घर बदल लिया है और उनका नया ठिकाना भदोही हो गया है?  किसानों के अलावा सिर्फ निषाद समुदाय ही बचा है जो अपने पारंपरिक धंधे से विमुख नहीं हुआ है। बाकी सभी जातियों के लोगों ने अपने पुश्तैनी धंधों को छोड़ दिया है। मछुआरा समुदाय की स्थिति दलितों से भी बदतर है। इसके बावजूद हमें अनुसूचित जाति अथवा जनजाति में शामिल नहीं किया जा रहा है। नावें चलेंगी भी तो कैसे, जब सभी के पास गाड़ियां हो गई हैं। माल ढोने वाली गाड़ियों का रेला लग गया है। गंगा में कई पुल भी बन गए। मल्लाहों के बारे में किसी ने यह तक नहीं सोचा कि वो आखिर जिंदा कैसे रहेंगे? “

नौजवानों के साथ चुनाव पर चर्चा।

तीन बच्चों के पिता 55 वर्षीय जोखू निषाद पुराने मल्लाह हैं। इनकी कई पीढ़ियां डीह इलाके में मछली पकड़ते और बालू निकालते हुए मर-खप गईं। दो बच्चे आज भी मछली पकड़ते हैं। इनका एक बेटा कमाई करने बाहर गया है। जोखू कहते हैं, “नेताओं को सिर्फ हमारे वोटों से मतलब है। हमारी मुश्किलें इनके मन में तनिक भी बेचैनी पैदा नहीं करती हैं। हमसे अच्छे तो भदोही जिले के बिंद हैं। वो पढ़े-लिखे हैं और हमें खुद से कमतर मानते हैं।

सिर्फ वोट लेने के लिए वो खुद को निषाद समुदाय की उप-जाति बताते हैं। सच यह है कि बिंद समुदाय के लोग हमारे समाज में शादियां नहीं करते। राजनीति और शिक्षा में भी वो हमसे आगे हैं। यही वजह है कि वो हमें अपने से बड़ा मानते हैं। पूर्वांचल में गोरखपुर के धीरज साहनी और भदोही के धनराज निषाद के अलावा कोई जिला पंचायत सदस्य तक नहीं है। राम के नाम पर वोट मांगने वाले भूल गए हैं कि भगवान राम के बाल सखा तो केवट ही थे।”

उत्तर प्रदेश में निषाद समुदाय की अच्छी खासी आबादी है। अति-पिछड़ों की कुल आबादी में 17 से 18 फीसदी निषाद हैं। मोटे तौर पर यह अनुमान लगाया जाता है कि राज्य की करीब 140 विधानसभा सीटों पर निषाद समुदाय सिर्फ समीकरण ही नहीं, नजीतों को बदलने की भूमिका निभाता रहा है। यही वजह है कि निषाद समुदाय के विकास के नाम पर कई सियासी दल खड़े हो गए हैं। इनमें सबसे अहम है निषाद पार्टी, जो इस लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी के साथ है।

“निषाद,” उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत सूचीबद्ध एक जाति समूह है। इस जाति समूह के भीतर मल्लाह, बिंद, मांझी, केवट, कश्यप, तुरहा, मझवा, बाथम तथा कई अन्य जातियां और उप-जातियां शामिल हैं। ओबीसी के रूप में वर्गीकृत यह समुदाय मुख्य रूप से मछली पकड़ने और नाव चलाने का काम करता है और साथ ही नदी किनारे सब्जी और फलों की खेती करता रहा है। इस काम के अलावा ग्रामीण उत्तर प्रदेश का निषाद समुदाय बालू खनन और दिहाड़ी मजदूरी का काम करता है और समाज के बहुत से लोगों को काम की तलाश में मुंबई व दिल्ली जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन भी करना पड़ता है।

 उपेक्षा का शिकार निषाद समुदाय

 पूर्वांचल में निषाद समुदाय की अगुवाई करने वाले विनोद निषाद बताते हैं, “हमारे समुदाय पर आरोप था कि हम लोगों ने गंगा नदी के बीच में ब्रिटिश सैनिकों की हत्या की। एक तरह से हम लोगों ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, लेकिन सरकारों ने हमारी उपेक्षा की। हम लोगों को मूलभूत अधिकार तक नहीं मिले और ऐसा क्यों हुआ, ये मैं नहीं समझ पाया हूं। हम लोगों की मांग है कि निषाद समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया जाए। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने हमें अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने का वादा किया था, लेकिन इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई।”

खेतों में पड़ी गेहूं की फसल।

मां गंगा निषाद राज समिति के अध्यक्ष प्रमोद साहनी कहते हैं, “हमारे समुदाय की घोर उपेक्षा की जा रही है। खासतौर पर बीजेपी के शासन में उत्पीड़न और आतंक का आलम है। देश के हुक्मरान यह भूल गए हैं कि मछुआरा समाज राम का वंशज है। हमारे समुदाय का वर्णन हर युग में मिलता है। सभी जातियों का पिता निषाद समुदाय ही है। जिन लोगों ने जल, जंगल और जमीन पर राज किया वो निषाद ही थे। हड़प्पा को बसाने वाले भी निषाद थे। निषाद में से कई धर्म निकले और कई जातियां भी। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में भी निषादों का जिक्र है।”

“सिर्फ हमारी जाति ऐसी है जो कभी गुलाम नहीं हुई। हमारे पुरखे अपने स्वाभिमान से जीते थे। उन्हें मौत पसंद थी, लेकिन गुलामी नहीं। यही वजह थी कि अंग्रेजों ने हमें जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था। फिरंगियों के चंगुल से देश को आजाद कराने वाले तिलका मांझी, भीमा नायक, भीमा मल्लाह, सिंधुरा लक्ष्मण, जुब्बा साहनी सरीके क्रांतिकारियों ने अहम भूमिका अदा की थी।

राजा हिरण्यधनु निषाद, वीर एकलव्य, तीर्थराज निषाद, राजा नल निषाद, सम्राट गुह्यराज निषाद, कोटिया भील सभी निषाद समुदाय के राजा थे। चाणक्य भी निषाद थे और कौटिल्य भी। लोकसभा चुनाव आते ही सत्तारूढ़ दल हमें फुसलाने में जुट गया है। हम जानते हैं कि वे हमें झूठी गारंटी दे रहे हैं। अबकी निषाद समुदाय किसी भ्रम में नहीं है। हम अपने वोटों की ताकत से स्वार्थी नेताओं को सबक सिखाएंगे। यह भी बताएंगे कि हमारी उपेक्षा अबकी उन्हें भारी पड़ने जा रही है।”

प्रमोद यह भी कहते हैं, “यूपी में निषाद समुदाय के मछुआरों और मल्लाहों के बिना गंगा की कल्पना नहीं की जा सकती। गंगा और निषाद समुदाय एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस नदी का अस्तित्व हमारे साथ जुड़ा है। निषाद समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत बदलाव नहीं हुआ। पिछले एक दशक में भाजपा और सपा ने इस समुदाय से कई वादे किए, लेकिन उन्हें पूरा कभी नहीं किया। भाजपा के साथ तालमेल कर सत्ता में बैठी निषाद पार्टी ने भदोही लोकसभा सीट पर अपने प्रत्याशी डा.विनोद बिंद को मैदान में उतारा है। उनसे कोई यह तो पूछे कि वो मिर्जापुर जिले की मझवां विधानसभा सीट से विधायक चुने जाने के बाद उन्होंने मल्लाहों के लिए क्या कुछ किया? सत्तारूढ़ दल के विधायक रहते हुए उन्होंने कछुआ सैंक्चुरी का विरोध क्यों नहीं किया? “

आधुनिकीकरण और निजीकरण

भदोही जिले के सभी मल्लाहों का दर्द यह है कि वो अपने नावों की मरम्मत करा पाने की स्थिति में नहीं है। नए जाल ख़रीदने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं हैं। तमाम समस्याओं के बीच वो सरकार के साथ भी संघर्ष कर रहे हैं। पुलिस उन्हें गंगा से मछली निकालने नहीं देती है और कई बार मछली पकड़ने की कोशिशों के चलते वो पुलिस थाने में पहुंच जाते हैं। भदोही जिले में निषाद समुदायों के कई लोगों के पास जो ज़मीन है वो गंगा नदी में है, जहां पानी उतरने के बाद लोग सब्जियों की खेती किया करते थे। अफसरों के तंग किए जाने के बाद बहुत से लोगों ने खेती ही छोड़ दी है और वो अपने पुर्वजों की जमीन से बेदखल कर दिए गए हैं। इस भूमि पर पहले लोग ककड़ी, खरबूजा, टमाटर, लहसुन, कद्दू और करेला जैसी सब्जियों और फलों की खेती करते थे।

निषाद समुदाय के लोगों की आजीविका आमतौर पर गंगा नदी पर निर्भर है। भदोही में इन निषादों की आमदनी तब से ज्यादा प्रभावित हुई है जब से यहां गंगा को कछुआ सैंक्चुरी के रूप में चिह्नित किया गया। हाल के कुछ सालों में गंगा में मछलियों की प्रजातियों में भारी कमी देखने को मिल रही है। इसके चलते निषाद समुदाय के लोग दिल्ली, लखनऊ, मुंबई में जाकर दिहाड़ी मज़दूरी करने लगे हैं और वे नदी से कट गए हैं। नदी में बढ़ते प्रदूषण और बढ़ते बांधों की वजह से यह हो रहा है।

भदोही के शिव निषाद अपनी पान की दुकान चलाते हैं। वह कहते हैं, ”निषाद समुदाय के लोगों के पास अब कोई काम नहीं बचा है। व्यापार की कौन कहे, नौकरियों में हमारी स्थिति नहीं के बराबर है। निषाद समाज के लोग ज्यादातर शहरों में बोझ ढोने के अलावा मजूरी, फेरी लगाना, रिक्शा खींचना, ऑटो चलाना आदि काम करते हैं। महिलाएं खेतों में कटाई, मड़ाई, बुआई का काम करती हैं। फिर भी दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाना कठिन है। अभी गेहूं की कटाई शुरू हुई है तो तमाम पुरुष घर लौट आए हैं और थ्रेसिंग के काम में जुट गए हैं। मछली पकड़ने वाला समुदाय सिर्फ भदोही ही नहीं, समूचे देश में हासिये पर है।”

 लापता हैं कछुए

यूपी में गंगा में सिर्फ कुछए ही नहीं, सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों की कई प्रजातियों का घर है। नमामि गंगे योजना के तहत गंगा में प्रयागराज भदोही व मीरजापुर की सीमा पर स्वीकृत कछुआ सैंक्चुरी की बाधा दूर हो गई है। इस बाबत आपत्तियां मांगी गई थीं। जागरूकता के अभाव में किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। इसके बाद मिर्जापुर, भदोही और प्रयागराज में गंगा का 30 किमी क्षेत्र कछुआ सैंक्चुरी घोषित कर दिया गया। इस क्षेत्र में अब न मछली पकड़ी जा सकेगी और न ही बालू खनन का पट्टा हो सकेगा।

भदोही के डीह इलाके में खड़ी नावें।

कछुआ सैंक्चुरी घोषिए किए जाने के बाद भदोही में गंगा घाटों के अलावा इस नदी में मछली मारने और किसी भी प्रकार के खनन पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध है। नियम के मुताबिक गंगा में जाल तक नहीं डाला जा सकता है। नदी विज्ञानियों के मुताबिक, गंगा में कुल 13 प्रकार के कछुए पाए जाते हैं। इनमें से 10  प्रजातियां  संकटग्रस्त हैं। जबकि तीन प्रजाति विलुप्त प्राय है। कछुओं के 13 में से 10 प्रजाति भारतीय वन्यजीव अधिनियम 1972 शेड्यूल वन के तहत शामिल है। यानी इस प्रजाति के कछुओं को छूने मात्र से भी कई धाराओं में जेल हो सकती है।

भारत में जितनी भी नदियां हैं वहां मानव व्यवधान बढ़ने से कछुओं की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इसी कारण अंडे भी कम होते जा रहे हैं। मछली के जाल में कछुओं का पकड़ में आना सामान्य बात है। ऐसे कछुए अधिकतर मछली खाकर अपना जीवन यापन करते हैं और मछली के साथ जाल में फंस जाते हैं। इन कछुओं की बड़े पैमाने पर तस्करी भी होती है। उत्तर भारत से कछुओं को उत्तर पूर्वी भारत और उत्तर पूर्वी देशों में बड़ी मात्रा में भेजा जाता है। चीन, मंगोलिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, वर्मा समेत कई देशों में कछुओं की तस्करी अधिक मात्रा में होती है।

भदोही के प्रभागीय वनाधिकारी नीरज कुमार आर्य कहते हैं, ”गंगा के प्रयागराज से लगायत भदोही तक के क्षेत्र को कछुआ सैंक्चुरी घोषित किया गया है। इस इलाके में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 के सभी प्रावधान लागू कर दिए गए हैं। इस क्षेत्र में मछली पकड़ना, खनन, पेड़ों की कटाई जैसे कार्य रोकने पड़ेंगे। किसी के भी अधिकारों का हनन न हो और सर्वेक्षण कराकर पक्का बंदोबस्त करना बाकी है। 

इसके आगे का काम राजस्व विभाग के जिम्मे है। प्रतिबंधित क्षेत्र में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे। वाच टावर व इंटरप्रेटेशन सेंटर बनेगा। कछुआ सैंक्चुरी में लखनऊ के कुकरैल से जियोस्लिम्स हैमिलटोनी व पंगशुरा टेंटोरिया प्रजाति के कछुए लाए जाएंगे। इंडियन साफ्टशेल टर्टल, नैरो हेडेड टर्टल भी छोड़े जाएंगे।”

 बेनूर है मछुआरों की जिंदगी

 निषाद राज सेवा समिति के राष्ट्रीय सचिव हरिश्चंद कहते हैं, ”हमारे समुदाय के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है। पहले पुरुष रात में मछली पकड़ते थे और सुबह उसे बेच देते थे। जो कुछ भी बचता था उसे औरतें सिर पर टोकरी रख फेरी लगाकर बेचती थीं। अब भदोही में बंगाल से मछलियां आ रही हैं। सिर्फ मछुआरे ही नहीं, मछली के कारोबारी भी काफी परेशान हैं। बाहर से मछली खरीद कर लाने में उन्हें बहुत नुकसान हो रहा है। देशी मछली खाने की बात ही अलग है। पूर्वांचल के लोग स्थानीय नदियों की मछलियां खाने के शौकीन रहे हैं। 

मछली की कीमत उनकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है। छोटी मछली 50-60 रुपये में बिक जाया करती है तो बड़ी मछली के 100 से 200 रुपये भी मिल जाते हैं। ज्यादातर छोटी मछलियां ही नदियों में पाई जाती हैं। जो मछुआरे शहरों के करीब या आसपास के हैं, उन्हें तो फिर भी उचित मूल्य मिल जाता है, लेकिन जो दूर हैं उनके साथ ऐसा नहीं है। उनके ग्राहक भी उनकी तरह आर्थिक रूप से कमजोर ही होते हैं। इस व्यवसाय पर अब ढेरों बंदिशें लगाए जाने से मल्लाहों के सामने दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो गया है।”

बनारस और प्रयागराज के बीच मिर्जापुर व भदोही जिले पड़ते हैं जहां से गंगा गुजरती हैं। चारों जिलों में निषादों की बड़ी आबादी रहती है। जहां मछली पकड़ने की छूट है वहां भी बारिश के दिनों में काम बंद हो जाता है। नाविक और मछुआरे आज भी गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। आज भी उनका उत्पीड़न बदस्तूर जारी है। आरोप है कि ऊंची जातियों के लोग आए दिन उनकी मछलियां छीन लेते हैं। 

कई बार उनके साथ मारपीट की जाती है और उनकी नावें भी गंगा में डुबो दी जाती हैं। निषाद समुदाय के लोगों को बाढ़ के दिनों में बचाव कार्य में लगा दिया जाता है। गंगा में किसी डूबते हुए को बचाने की बात आती है तो जबरिया मल्लाहों को गहरे पानी में उतारा जाता है। निषाद समुदाय का ब्योरा सरकार के पास है ही नहीं। मछली पकड़ने और खनन के कामों में लगे लोगों का कोई रिकार्ड नहीं है। अन्य समुदायों की तुलना में पढ़ाई-लिखाई का स्तर बहुत नीचे है।

भदोही जिले के गेराई गांव (गोपीगंज) में खीरा और बेल का शर्बत बेच रहे रोहित कुमार ने जनचौक से कहा, ”निषाद समुदाय सबसे वंचित लोगों में से एक है। कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी दयनीय है। आने वाले दिनों में इस समुदाय के लोग भुखमरी से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। भदोही के करवधिया, अरई, खेमापुर, महादेवा, दुगुना, परसनी, कूड़ी कला, कूड़ी खुर्द, शेरपुर, बहपूरा, भदराव, धनतुलसी, कलातुलसी, हरिरामपुर, भुर्रा, छेछुआ, कलिक कवैया, बसगोती मवैया, मवैयाथान सिंह, इटहरा, पश्चिमवाहिनी, सोनपुर, मनीपुर तलवां, डीघ, दस्युपुर, बनकट, सीतामढ़ी, नारेपार और बारीपुर आदि गांवों के मछुआरों के बीच इन दिनों चर्चा मछलियों की नहीं, सिर्फ चुनाव की चल रही है। हरहराती लू में नेताओं की गाड़ियां दौड़ रही हैं। हम जानते हैं कि वोट लेने के बाद वो शायद ही इस इलाके में आएंगे। पिछली मर्तबा रमेश बिंद पर लोगों ने भरोसा जताया और जीतने के बाद वो कभी लौटे ही नहीं।”

भदोही में गेहूं की फसल पक गई है और मड़ाई का काम जोरों से चालू है। चट्टी चौराहों पर लोकसभा चुनाव और मुद्दों पर गरमा-गरम बहसें चल रही हैं। चुनाव का ताप बढ़ने के साथ ही राजनीतिक दलों के नेताओं की गाड़ियां सड़कों का सीना चीरने लगी हैं। हर तरफ गहमा-गहमी और नारों व दावों का शोर है। कोई गारंटी का दावा कर रहा है तो कोई वोटरों को लुभावने नारों की नोवालजिन बांट रहा है।

 भदोही में बढ़ रहा चुनावी ताप

 गोपीगंज से सटे गेराई गांव के एक तिराहे पर बतकुच्चन करते मिले बबलू सिंह। चुनावी चर्चा छिड़ी तो बोले,  “इस चुनाव में बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है। भदोही के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कालीन निर्यातकों से एडवांस टैक्स की वसूली दूसरा बड़ा मुद्दा है। नौजवानों की मुश्किल यह है कि सेना में भर्ती बंद है और कोई अग्निवीर में जाना नहीं चाहता।

पुलिस परीक्षा का पेपर लीक होने से युवाओं की दुश्वारियां बढ़ी हैं। कइयों की उम्र ही निकल गई।” बबलू सिंह के पास खड़े संदीप तिवारी कछुआ सैंक्चुरी पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, “अब की लोकसभा चुनाव में कुछआ अभ्यारण्य सबसे बड़ा मुद्दा होगा। इस सैंक्चुरी के चलते हजारों मल्लाह परिवार भुखमरी के शिकार हैं। इनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है।”

एनडीए ने अपने घटक दल निषाद पार्टी को भदोही की सीट दी है। पार्टी ने मिर्जापुर के मझवां के विधायक डा.विनोद बिंद को मैदान में उतारा है तो ललितेश पति त्रिपाठी इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी हैं। वह ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के फूल-पत्ती सिंबल पर मैदान में उतरेंगे। बसपा ने अभी इस सीट पर प्रत्याशी घोषित नहीं किया है।

फिलहाल मुकाबला कांटे का है। भदोही में ब्राह्मण समुदाय लतितेश पति त्रिपाठी के पक्ष में लामबंद होता दिख रहा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि ललितेश यूपी के मुख्यमंत्री रहे पंडित कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र हैं, जिन्होंने इस इलाके के विकास में बड़ी भूमिका निभाई थी। माना जा रहा है कि इस बार भदोही का चुनाव बाकी सभी सीटों से अलग और काफी दिलचस्प होगा।

 (लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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