रोजगार को लेकर युवाओं की हताशा को स्वर देकर विपक्ष चुनावी नैरेटिव अपने पक्ष में मोड़ सकता है

देश अब पूरी तरह चुनावी मोड में प्रवेश कर चुका है। भाजपा तो शायद 2019 से ही इसकी तैयारी कर रही थी, विपक्ष भी अब कमर कस चुका है। ओपिनियन बनाने के लिए चैनलों पर ओपिनियन पोल का खेल भी शुरू हो चुका है।

आज सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि चुनाव किस नैरेटिव और एजेंडा पर लड़ा जाएगा। भाजपा यह चाहती है कि पूरा चुनाव हिंदुत्व और मोदी के ‘करिश्मे’ पर केंद्रित हो जाय, जिससे वह सारे मोर्चों पर अपनी 10 साल की घोर नाकामी तथा जनता की चौतरफा तबाही को मुद्दा न बनने दे और एन्टी-इनकम्बेंसी से बच निकले।

22 जनवरी के राम मंदिर के उद्घाटन को केंद्र कर पूरे माहौल को राममय बना देने की तैयारी है। उसी शोरगुल में चुनाव की घोषणा करवा कर उसे करवा लेने की योजना है। उसके लिए न सिर्फ संघ-भाजपा, गोदी मीडिया बल्कि धर्मनिरपेक्ष संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए भारतीय राज्य की पूरी सरकारी मशीनरी लगी हुई है।

विपक्ष के सामने यह चुनौती है कि वह भाजपा के इस diversionary खेल को कामयाब न होने दे। उसे संघ-भाजपा की विचारधारा तथा मोदी की विनाशकारी नीतियों और कदमों से 10 साल में हुई देश की अर्थव्यवस्था, समाज-संस्कृति और राजनीतिक व्यवस्था की बर्बादी, संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बोलने की आज़ादी के लिए पैदा खतरों को पुरजोर ढंग से उठाना होगा।

सबसे बढ़कर बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा-स्वास्थ्य के असह्य बोझ जैसे जीवन के मूलभूत सवालों पर जनता की नाराजगी और बेचैनी को मोदी-भाजपा के खिलाफ चुनाव का मुख्य राजनीतिक मुद्दा और talking पॉइंट बना देना होगा।

सर्वोपरि, मोदी राज की विध्वंसकारी नीतियों का निषेध करते हुए उनका सकारात्मक विकल्प पेश करना होगा- विचार और कार्यक्रम के स्तर पर भी और नेतृत्व के स्तर पर भी- idea of india, भारत की विविधता के अनुरूप।

एक ओर तानाशाही और जनता की तबाही है, दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की बहाली और जनता के लिए खुशहाल जिंदगी का आश्वासन।

अगले 4 महीने इन दोनों नैरेटिव के बीच तीखे द्वंद्व के होंगे। मूलतः इनमें से जो अपने नैरेटिव और एजेंडा को जनता के बीच लोकप्रिय और स्वीकार्य बना ले जायेगा, वही 2024 के महासमर को जीतेगा।

आज हर मोर्चे पर विफल सरकार की 10 साल की एन्टी-इनकम्बेंसी उसका पीछा कर रही है, आम जनता के बीच तो असन्तोष खदबदा ही रहा है, सत्ता के दमन और तानाशाही ने करीब करीब सम्पूर्ण विपक्ष, सारी आंदोलन की ताकतों, नागरिक समाज को पूरी तरह उसके खिलाफ एक मोर्चे में लामबन्द कर दिया है।

मोदी सरकार और गोदी मीडिया की लाख diversionary कोशिशों के बावजूद 10 साल की तबाही की खबरें दबाये नहीं दब रहीं।

इसकी एक बानगी मोदी सरकार की कर्जखोरी पर IMF के आंकड़े हैं।

मोदी रोज दावा कर रहे हैं कि उनके राज में अर्थव्यवस्था कुलांचे भर रही है और अपने तीसरे कार्यकाल में वह इसे विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना कर रहेंगे।

बहरहाल IMF के आंकड़े विकास के दावों की धज्जियां उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं। IMF के अनुसार भारत पर जो विदेशी कर्ज़ 2014 तक 54 लाख करोड़ रुपये था, वह अब 4 गुना बढ़कर 205 लाख करोड़ रुपये हो गया है।

अर्थात जहां आज़ादी के बाद के 67 साल में सब प्रधानमंत्रियों ने मिलकर 54 लाख करोड़ रुपये कर्ज़ लिया, वहीं अकेले मोदी जी ने 10 साल में 151 लाख करोड़। IMF ने चेतावनी देते हुए कहा है कि भारत पर कुल कर्ज़ देश की GDP से ज़्यादा होने वाला है। जबकि भारत जनता से सबसे ज्यादा टैक्स वसूल करने वाले देशों में शुमार है।

अर्थव्यवस्था की यह तबाही जमीनी-स्तर पर जनता के तमाम तबकों के भयावह असन्तोष के रूप में अभिव्यक्त हो रही है, बस उसे सटीक political articulation का इंतज़ार है।

हाल ही में रोजगार के सवाल को लेकर युवाओं ने संसद के अंदर घुसकर और बाहर जिस तरह प्रदर्शन किया वह भी इसकी एक बानगी भर है।

द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार उसमें शामिल चारों युवा या तो बेरोजगार थे या रोजगार को लेकर परेशान थे। उन्होंने पुलिस को बताया कि वे बेरोजगारी से निपटने में सरकार की विफलता के खिलाफ अपना विरोध जताना चाहते थे।

युवा-आक्रोश ने अतीत में तमाम चुनावों की तकदीर तय की है। 4 साल पहले तेजस्वी यादव और विपक्षी महागठबन्धन ने 10 लाख नौकरियों के वायदे से बिहार विधानसभा चुनाव में जिस तरह लहर पैदा की थी और तत्कालीन नीतीश-भाजपा गठजोड़ के हाथ से करीब करीब सत्ता छीन ली थी, उसे कोई भूल नहीं सकता।

उसी के साथ उत्तर प्रदेश का नकारात्मक उदाहरण भी मौजूद है जहां जबरदस्त माहौल के बावजूद विपक्ष 37% मत और 125 सीटों तक पहुंच कर भी सत्ता से दूर रह गया क्योंकि छात्र-युवाओं के बीच नौकरियों को लेकर भारी गहमागहमी, आंदोलन-दमन के बावजूद अखिलेश यादव उसे बड़ा मुद्दा बना पाने में चूक गए।

दरअसल, जब जब बड़ा राजनीतिक बदलाव हुआ है युवाओं की दावेदारी और रोजगार का सवाल forefront पर रहा है- चाहे वह इंदिरा गांधी की अखंड सत्ता का अंत करने वाला JP आंदोलन रहा हो, 400 से अधिक सीटों वाले राजीव गांधी के राज का अंत करने वाली वीपी सिंह की मुहिम रही हो।

यहां तक कि वाजपेयी सरकार के ‘इंडिया शाइनिंग’ के खिलाफ 8% दर के साथ युवाओं की बेरोजगारी भी उस समय एक बड़ा मुद्दा थी, जिसके फलस्वरूप करिश्माई वाजपेयी जी की वह सरकार 2004 में विदा हो गयी थी।

2014 में स्वयं मोदी के राज्यारोहण में रोजगार का सवाल सबसे बड़े factors में था। रैली-दर-रैली उन्होंने जिस तरह रोजगार को मुद्दा बनाया, हर साल 2 करोड़ jobs का वायदा किया, भारत को चीन की तरह ‘दुनिया का मैनुफैक्चरिंग हब’ बनाने का सब्जबाग दिखाया, उसने युवाओं में जबरदस्त आकर्षण पैदा किया और उनकी रैलियों में मोदी-मोदी का कोरस गूंजने लगा।

लेकिन पिछले 10 साल इस सरकार ने युवाओं के सपनों को रौंदने का ही काम किया। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 के अनुसार 23 साल से कम उम्र के ग्रेजुएट्स में आज बेरोजगारी दर 42.3% है। PLFS (जुलाई 22- जून 23) के अनुसार 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में बेरोजगारी दर 10% के खतरनाक स्तर पर है ( ग्रामीण 8.3%, शहरी 13.8% )।

इस सवाल पर सरकार की संवेदनहीनता और उदासीनता का आलम यह है कि मंत्री द्वारा इसी साल जुलाई में संसद में दिए गए लिखित जवाब के अनुसार स्वयं मोदी जी की केंद्र सरकार में मार्च 22 में 9 लाख 64 हजार 359 पद खाली पड़े थे। उन्हें समय से भरने की बजाय इस साल चुनाव-वर्ष में उन्होंने ‘इवेंट’ आयोजित करवा कर कुछ नियुक्ति पत्र बांटे।

UP में 5 साल से रोक रखी गयी पुलिस भर्ती का चुनाव आने पर अब विज्ञापन हुआ है। नतीजा यह है कि पिछले सालों में जो बच्चे age-limit के अनुरूप eligible थे, अब वे बिना कोई परीक्षा दिए ही 23 साल की आयु सीमा के सरकारी फरमान के हिसाब से अयोग्य हो चुके हैं।

लेकिन भाजपा सरकार आयु सीमा बढ़ाने को तैयार नहीं है। यह अन्याय की पराकाष्ठा है, इससे उन युवाओं में पैदा होने वाली हताशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इलाहाबाद जैसे बड़े केंद्र में युवा मंच और संयुक्त युवा मोर्चा के बैनर तले युवा-प्रतियोगी छात्र इन लड़ाइयों को लगातार लड़ रहे हैं।

आज देश में रोजगार के सवाल पर स्थिति विस्फोटक है। सवाल यही है कि क्या विपक्ष युवा पीढी की इस चरम हताशा को राजनीतिक स्वर दे सकता है और बदलाव के लिए उसे आंदोलित कर सकता है? 2024 के जनादेश में यह निर्णायक कारक बनेगा।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments