Saturday, April 20, 2024

तो अमेरिका ने हार मान ली है!

गुजरे 27 अप्रैल को अमेरिका में जो बाइडेन प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने एक बेहद महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। ध्यान रखने की बात यह है कि थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट में यह भाषण उन्होंने अपनी सरकारी हैसियत में दिया। वहां जो कुछ कहा, उसे बार-बार बाइडेन प्रशासन की नीति के रूप में उन्होंने पेश किया। इसलिए इस भाषण में कही गई बातों को बिना किसी संदेह के अमेरिका का आधिकारिक आकलन माना जा सकता है।

सुलिवन के पूरे भाषण पर चीन की चिंताएं हावी रहीं। उन्होंने चीन से आर्थिक मोर्चे पर मिल रही चुनौतियों का जिक्र किया और फिर चीन के साथ भू-राजनीतिक टकराव पर अमेरिका की नीति स्पष्ट की। जाहिरा तौर पर, इन दोनों बातों को विस्तार से समझे जाने की जरूरत है। लेकिन इस बारे में कोई निष्कर्ष निकालने से पहले बेहतर यह होगा कि सुलिवन ने जो खास बातें कहीं, उन पर ध्यान दिया जाए। तो उनकी कुछ टिप्पणियों पर गौर कीजिएः

  • बाजार हमेशा पूंजी का सामाजिक रूप से अपेक्षित ढंग से संसाधनों का आवंटन नहीं करता।
  • अमेरिका ने वास्तविक अर्थव्यवस्था पर वित्त को तरजीह देकर गलती की।
  • सिर्फ उदारीकरण के लिए व्यापार का उदारीकरण नहीं किया जाना चाहिए।
  • विभिन्न देशों के बीच आर्थिक एकीकरण से उन देशों के उसूलों का भी जुड़ाव हो जाए, ऐसा असल में नहीं होता है।
  • दक्षिणपंथी खेमों ने पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी के इस कथन को गलत ढंग से समझा कि उठती लहर के साथ सबकी नौकाएं ऊपर होती हैं। केनेडी का यह कतई मंतव्य नहीं था कि जो नीतियां धनी लोगों के लिए सही हैं, वह श्रमिक वर्ग के हित में भी हैं। केनेडी सिर्फ यह कहना चाहते थे कि हम सभी एक ही नौका पर सवार हैं।

यहां ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को दुनिया भर में स्वीकार्य बनाने के लिए खुद अमेरिका ने उठती लहर के साथ सबकी नौका ऊपर होने के कथन को दुनिया भर में प्रचलित कराया था। भारत में भी 1991 के बाद से इस कथन को मंत्र की तरह दोहराया गया है। इस कथन का मतलब यह रहा है कि अगर धनी लोगों का धन और बढ़ता है, तो उसका लाभ फिर धीरे-धीरे रिस कर (ट्रिकल डाउन होकर) सब तक पहुंचता है। इसलिए धनी लोगों के लिए टैक्स कटौती और उन्हें लाभ पहुंचाने वाले इस जैसे अन्य कदम पूरी अर्थव्यवस्था और असल में समाज के तभी तबकों के हित में हैं। इन नीति को कथित वॉशिंगटन सहमति का अभिन्न हिस्सा माना जाता रहा है।

‘वॉशिंगटन सहमति’ अमेरिका के वित्त मंत्रालय, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के बीच उन नीतियों पर बनी सहमति थी, जिन्हें शीत युद्ध के बाद पूरी दुनिया में फैलाया गया। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण इस सहमति का प्रमुख स्तंभ रहे हैं।

लेकिन अब खुद नव-उदारवाद का गढ़- या इसे इस रूप में कहें कि जिस देश की राजधानी के साथ इन नीतियों पर सहमति (Washington Consensus) की बात जुड़ी हुई है, खुद वहां की सरकार इस आर्थिक दिशा पर सवाल खड़े कर रही है। लगभग 40 वर्ष तक ‘विकास’ का जो फॉर्मूला वहां की विभिन्न सरकारों ने दुनिया को बताया है, उसे अब बाइडेन प्रशासन गलत करार दे रहा है। क्यों? इसे समझने के लिए सुलिवन की कुछ और टिप्पणियों पर गौर करना होगा। उन्होंने कहाः

  • हमें जो कुछ निर्मित करने की जरूरत है, हमारी आर्थिक रणनीति ने उस पर ध्यान केंद्रित करना छोड़ दिया।
  • हमें ऐसी गुंजाइश बनानी होगी, जिससे दुनिया भर में हमारे सहभागी देश (पार्टनर) ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने के कदम उठा सकें, जिनसे उनके यहां लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक करार (social compact) को भी बल मिल सके। (सामाजिक करार का मतलब समाज के विभिन्न वर्गों में एक अघोषित समझौते से है, जिसके तहत सभी तबके किसी व्यवस्था को स्वीकार कर उसमें अपनी भागीदारी निभाते और उसमें अपनी हिस्सेदारी का दावा करते हैं। सुलिवन के बयान का स्पष्ट मतलब है कि नव-उदारवादी नीतियों ने विकसित देशों में भी सामाजिक करार को तोड़ दिया, जिसकी वजह से वहां विभिन्न वर्गों में तीखा ध्रुवीकरण पैदा हुआ है और लोकतंत्र खतरे में पड़ा है।)
  • विश्व व्यापार संगठन (WTO) में मौजूद “गैर-बाजार अर्थव्यवस्था” वाले देश (अर्थात चीन) को ध्यान में रखते हुए इस संगठन में बुनियादी सुधार की जरूरत है। (दरअसल, अपने भाषण में सुलिवन ने “गैर-बाजार अर्थव्यवस्था” का कई बार उल्लेख किया।)

अब उनकी इस टिप्पणी पर गौर करें:

“दो टूक कहा जाए, तो हमारी आर्थिक नीतियां हमारी अंतरराष्ट्रीय नीतियों के परिणामों को समझने में पूर्णतः विफल रहीं। मसलन, ‘चाइना शॉक’ (चीनी झटके) ने खासकर हमारे घरेलू मैनुफैक्चरिंग उद्योग के स्थलों पर करारा प्रहार किया। इस बात का पर्याप्त पूर्वानुमान नहीं लगाया गया था और ना ही जब ये नतीजे सामने आए, तो उनका पर्याप्त मुकाबला किया गया। और इन घटनाओं ने मिलकर उन सामाजिक-आर्थिक बुनियादों को जीर्ण कर दिया, जिन पर कोई मजबूत और आंतरिक-शक्ति से परिपूर्ण लोकतंत्र टिकता है।”

तो अब हमें उस पृष्ठभूमि पर गौर करना चाहिए, जिसमें अमेरिका को इन बातों का अहसास हुआ है। वैसे तो चीन की तेज प्रगति का अंदाजा उसे 2011 तक लग चुका था, जब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने Pivot to Asia नीति का एलान किया था। यह नीति ही आगे बढ़ते हुए 2018 में तत्कालीन डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की तरफ से चीन के खिलाफ ट्रेड वॉर (व्यापार युद्ध) शुरू करने तक पहुंची। उसके बाद बाइडेन प्रशासन ने तो अपनी पूरी ताकत चीन को घेरने पर केंद्रित कर रखी है। बाइडेन प्रशासन ने चीन से प्रतिस्पर्धा की बात बार-बार की है, लेकिन अब संभवतः उसे अहसास हुआ है कि इस होड़ में उनका देश पिछड़ता जा रहा है।

साल 2020 में कोरोना महामारी जब दुनिया भर में फैली, तो विश्व अर्थव्यवस्था के साथ-साथ विभिन्न देशों की अपनी अर्थव्यवस्था की शक्ति का भी इम्तिहान हुआ। तब दुनिया भर में अमेरिका के वित्तीय पूंजीवाद आधारित नव-उदारवादी आर्थिक मॉडल बनाम चीन के सार्वजनिक क्षेत्र के नेतृत्व वाली और नियोजित (planned) आर्थिक मॉडल के बीच टकराव का कथानक प्रचलित होने लगा। चीन अपने इस मॉडल को चीनी विशिष्टता वाला समाजवाद (socialism with Chinese characteristic) कहता है, जिसे जेक सुलिवन ने बार-बार non-market economy (गैर-बाजार अर्थव्यवस्था) कहा।

तो कुल निहितार्थ यह है कि दुनिया में इस वक्त मुक्त बाजार केंद्रित- वित्तीय पूंजीवाद आधारित आर्थिक मॉडल और चीनी विशिष्टता वाले समाजवादी मॉडल के बीच कड़ी होड़ चल रही है। जेक सुलिवन के भाषण की विशेषता यह है कि इससे पहली बार यह संकेत मिला है कि इस होड़ में अपने मॉडल की पराजय का अहसास अमेरिका को हुआ है।

वरना, जिन नीतियों को अमेरिका ने चार दशक तक दुनिया में आर्थिक विकास के रामबाण के रूप में प्रचारित किया, अब अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यह नहीं कहते कि उनकी वजह से अमेरिका का आर्थिक आधार कमजोर हो गया है। इन नीतियों की वजह से अमेरिका ने मैनुफैक्चरिंग की अपनी वह ताकत खो दी, जिसने एक दौर में उसे महाशक्ति बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इन नीतियों की वजह से वह विज्ञान और तकनीक की दुनिया में भी अपनी पुरानी धार बरकरार नहीं रख पाया है।

कोरोना महामारी के दौर में और उसके बाद न सिर्फ उसे, बल्कि उसका अनुकरण करने वाले यूरोप को भी अहसास हुआ कि वे चाहे जितनी कोशिश कर लें, चीन से व्यापार संबंध रखे बिना उनका काम नहीं चल सकता। ट्रंप के दौर से अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार में घाटा कम करने की जितनी भी कोशिशें कीं, असल में उसका यह घाटा उतना ही बढ़ता गया है। यही ट्रेंड यूरोप से लेकर भारत तक में देखने को मिला है।

स्थिति यह है कि अब अमेरिका ने यूरोप की इस समझ को भी स्वीकार कर लेने का संकेत दिया है कि चीन से पूरा संबंध तोड़ना (de-coupling) संभव नहीं है। पिछले महीने अपनी चीन यात्रा से ठीक पहले दिए एक महत्त्वपूर्ण भाषण में यूरोपियन कमीशन की प्रमुख उरसुला वॉन डेर लियेन चीन के साथ यूरोप के रिश्ते को लेकर de-coupling की जगह de-risking का कॉन्सेप्ट सामने रखा था। उसका अर्थ उन्होंने यह बताया था कि अमेरिका से पूरी तरह संबंध तोड़ने के बजाय यूरोप चीन के साथ संबंध से पैदा होने वाले जोखिमों को खत्म या कम करने की कोशिश करेगा। अब जेक सुलिवन ने कहा है कि अमेरिका इस सोच से सहमत है। उन्होंने अपने भाषण में कुछ महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण दिए। उन पर ध्यान दीजिएः

“हम अपने निर्णायक महत्त्व के टेक्नलॉजी की रक्षा कर रहे हैं और हमारे सहयोगी भी एक खास लक्ष्य तय कर ऐसा ही कर रहे हैं। इस प्रयास को विकासशील देशों की टेक्नालॉजी ब्लॉकेड” (तकनीक घेराबंदी) नहीं कहा जाना चाहिए, जैसाकि चीन कह रहा है। चीन के साथ हमारे मजबूत व्यापार संबंध हैं और हम उससे टकराव की तलाश में नहीं हैं।”

चीन के बारे में उनके एक और कथन पर गौर कीजिएः

“चीन के बारे में मोटे तौर पर मैं एक और बात कहना चाहता हूं। जैसा कि यूरोपियन कमीशन की अध्यक्ष वॉन डेर लियेन ने हाल में कहा था, हम decoupling नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम de-risking कर रहे हैं और चीन के साथ अपने संबंधों को विभिन्नतापूर्ण (diversifying) बना रहे हैं। हम अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए निवेश कर रहे हैं, ताकि हम सुरक्षित और अंतर-शक्ति से पूर्ण सप्लाई चेन स्थापित कर सकें। हम अपने श्रमिकों और कंपनियों के लिए समान धरातल निर्मित कर रहे हैं और (आर्थिक नीतियों के) दुरुपयोग के खिलाफ अपनी रक्षा कर रहे हैं।

हमने जो निर्यात प्रतिबंध लगाए हैं, वे बहुत छोटे दायरे में सिर्फ वैसी तकनीक पर केंद्रित हैं, जिनसे सैनिक संतुलन हमारे खिलाफ झुक सकता है। हम सिर्फ यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि अमेरिका की और उससे संबंधित तकनीक का हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल ना हो। हम व्यापार संबंध नहीं तोड़ रहे हैं।

असल में चीन के साथ अमेरिका के बहुत ठोस व्यापार एवं निवेश संबंध हैं। अमेरिका और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार में पिछले साल एक नया रिकॉर्ड बना था।”

तो इन बातों का संदेश साफ है। अमेरिका चीन से पूरा संबंध विच्छेद (decoupling) करने की स्थिति में नहीं है। क्यों? इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए पिछले साल आए दो बयानों पर गौर करना चाहिए। जब रूस पर प्रतिबंध लगाने के कारण यूरोप ऊर्जा के गहरे संकट में फंस गया और साथ ही असामान्य महंगाई का शिकार हो गया, तब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था कि पश्चिम के लिए ‘age of abundance’ (धन-धान्य का युग) खत्म हो गया है। उसके कुछ समय बाद यूरोपियन यूनियन के विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोराल ने एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था। उसमें उन्होंने कहा थाः

  • यूरोप की समृद्धि रूस से मिलने वाली सस्ती ऊर्जा और चीन से आने वाले सस्ते सामानों पर निर्भर रही है। अब चूंकि ये दोनों दुर्लभ हो गए हैं, इसलिए यूरोप में समृद्धि का दौर खत्म हो रहा है।
  • चीन के श्रमिकों ने सस्ती चीजें बना कर यूरोप में मुद्रास्फीति नीचे रखने में किसी भी देश के सेंट्रल बैंक से ज्यादा योगदान किया है।

अमेरिका ऊर्जा के मामले में आत्म-निर्भर है। लेकिन रोजमर्रा के उपयोग की ज्यादातर चीजों के लिए चीन पर निर्भर है। कोरोना काल में यह बात उस समय और साफ हुई, जब अमेरिका मास्क जैसी साधारण चीज के लिए भी चीन पर निर्भर नजर आया। इसीलिए 2018 में चीन से आयातित चीजों पर ट्रंप प्रशासन ने जो नए शुल्क लगाए, उससे आयात तो नहीं घटे, लेकिन उसका यह असर जरूर हुआ कि वे चीजें अमेरिकी उपभोक्ताओं को अधिक महंगी दरों पर मिलने लगीं।

पिछले दो साल से अमेरिका जिस महंगाई को झेल रहा है, उसमें इस घटनाक्रम का भी खास योगदान रहा है। इस महंगाई से निपटने के लिए अमेरिका के सेंट्रल बैंक- फेडरल रिजर्व- ने ब्याज दरें बढ़ाने की नीति अपनाई, जिससे वहां बैंकिंग संकट फैलता जा रहा है। उधर रूस पर प्रतिबंध लगाने का जो उत्साह अमेरिका ने दिखाया, उससे उसकी मुद्रा डॉलर के वैश्विक वर्चस्व के लिए गहरी चुनौती खड़ी हो गई है। इन हालात में चीन से decoupling आत्मघाती कदम होगा- यह बात वहां के नीति निर्माताओं को अब समझ में आने लगी है।

हाल के वर्षों में ताइवान से लेकर तमाम तरह के मसलों पर चीन से टकराव बढ़ाने और नए शीत युद्ध में दुनिया को धकेलने के बाद आखिर अमेरिका को अपनी कमजोरी का अहसास हुआ है, तो उसकी वजह क्या है? वजह वही है, जिसका जिक्र जेक सुलिवन ने किया। वजह वास्तविक अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी को तरजीह देना और अपनी उत्पादक क्षमता को नष्ट कर लेना है।

इस प्रक्रिया ने एक समय दुनिया भर के आकर्षण का केंद्र रहे अमेरिकी मध्य वर्ग को दुर्दशा में डाल दिया है, जिसका नतीजा वहां ट्रंप परिघटना और तीखे सामाजिक ध्रुवीकरण के रूप में सामने आया है। अच्छी बात है कि अमेरिका के नीति-निर्माता अपनी कमजोरी के साथ-साथ अपनी चार दशक पुरानी गलतियों को भी अब समझ और स्वीकार कर रहे हैं। हालांकि इन गलतियों से पैदा हुई समस्याओं का उनके पास कोई समाधान भी है, इसका कोई संकेत अभी तक नहीं मिला है।

अब यक्ष प्रश्न भारत जैसे देशों के सामने है। क्या हमारे नीति-निर्माताओं में भी वैसी बौद्धिक क्षमता और सच को स्वीकार करने का साहस है, जिसका संकेत जेक सुलिवन ने दिया है? बेशक, ना तो इन नीतियों को बदलना आसान है और ना ही राज्य निर्देशित नियोजित अर्थव्यवस्था को फिर से गले लगाना। कारण यह कि इस बीच अमेरिका से लेकर भारत तक अपने को भले लोकतंत्र कहते हों, लेकिन वे कुलीनतंत्र (oligarchy) में तब्दील चुके हैं। इन oligarchs के शिकंजे से अर्थव्यवस्था को छुड़ाना आसान नहीं है।

फिर भी अगर बीमारी का निदान हो जाए, तो इलाज की दिशा में कदम उठाना आसान हो जाता है। बहरहाल, भारत जैसे देशों में निदान तो दूर, अभी इस दिशा में सोचने को भी कोई तैयार नहीं दिखता। मगर ये बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है कि जब तक ऐसा नहीं होता, चीन से टकराव, चीन से decoupling और चीन को नियंत्रित करने की बातें महज दिवास्वप्न ही बनी रहेंगी।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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