भारत के सबसे गरीब लोगों की मजदूरी आज उतनी भी नहीं है जितनी 2014 में थी

भारत में इस विषय पर सबसे कम बातचीत होती है कि वास्तविक मजदूरी में कोई बढ़ोत्तरी हुई है या नहीं, जबकि यह बेरोजगारी के आंकड़ों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण विषय है। सबसे गरीब लोगों के लिए बेरोजगारी का सवाल बहुत प्रासंगिक नहीं है। गरीब लोग शायद ही कभी बेरोजगार होते हों, क्योंकि वे कुछ-न-कुछ किये बिना जीवित ही नहीं रह सकते। अगर उन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती है, तो वे सड़क पर अंडे बेचने या रिक्शा खींचने जैसे कामों के बल पर जिंदा रहने की कोशिश करने लगते हैं।

अतः वास्तविक मजदूरी के आंकड़े काफी महत्वपूर्ण होते हैं। यदि वास्तविक मजदूरी बढ़ रही है, तो इसका मतलब होता है कि मजदूरों के अधिक कमाने और बेहतर जीवन जीने की संभावना है। वास्तविक मजदूरी में निरंतर वृद्धि इस बात का संकेत है कि आर्थिक विकास काम के बेहतर अवसरों में परिवर्तित हो रहा है। दूसरी ओर, गरीबी कम करने के दृष्टिकोण से वास्तविक मजदूरी में ठहराव एक प्रमुख चिंता का विषय होता है।

लेकिन हालत यह है कि नवीनतम ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ के 200 से अधिक पृष्ठों वाले सांख्यिकीय परिशिष्ट में एक बार भी “मजदूरी” शब्द का उल्लेख तक नहीं हुआ है। न ही केंद्रीय वित्त मंत्री के नवीनतम बजट भाषण में, या उनके पिछले साल के बजट भाषण में कहीं भी “मजदूरी” शब्द का उल्लेख किया गया है।

‘लेबर ब्यूरो’ कई सालों से हर महीने सभी भारतीय राज्यों में अलग-अलग व्यवसायों में मिल रही मजदूरी के आंकड़े एकत्र करता है और ‘इंडियन लेबर जर्नल’ में आंकड़ों के सारांश प्रकाशित करता है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय राज्यों पर सांख्यिकी की अपनी नवीनतम पुस्तिका में भी 2014-15 से 2021-22 तक के ‘लेबर ब्यूरो’ के आंकड़ों के आधार पर ही वार्षिक मजदूरी के अनुमान प्रस्तुत किये हैं।

हलांकि ये अनुमान केवल पुरुष श्रमिकों से संबंधित हैं, और केवल सामान्य कृषि मजदूरों, निर्माण क्षेत्र के मजदूरों, गैर-कृषि मजदूरों और बागवानी का काम करने वाले मजदूरों के ही बारे में हैं। बागवानी श्रमिकों की मजदूरी के आंकड़े केवल कुछ ही राज्यों के हैं।

‘कृषि क्षेत्र के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ (सीपीआईएएल) का उपयोग करके वास्तविक मजदूरी में बदलने के बाद निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। 2014-15 और 2021-22 के बीच की कृषि क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी की वृद्धि दर प्रति वर्ष 1 प्रतिशत से कम थी। दरअसल कृषि क्षेत्र की वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर 0.9%, गैर-कृषि क्षेत्र की 0.3% और निर्माण क्षेत्र की (-0.02%) थी। निर्माण क्षेत्र में तो मजदूरी वृद्धि दर ऋणात्मक हो गयी। यानि मजदूरी बढ़ने की बजाय घट गयी। इसकी बजाय ‘सामान्य उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ का इस्तेमाल करने पर तो ये दरें और भी कम हो जाती हैं।

रिजर्व बैंक ने 2021 के बाद इन आंकड़ों को जारी करना रोक दिया है। नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण में प्रस्तुत उसी स्रोत के अधिक हालिया आंकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि मजदूरी में ठहराव का यही पैटर्न 2022 के अंत तक जारी रहा। स्पष्ट है कि पिछले आठ वर्षों में अखिल भारतीय स्तर पर वास्तविक मजदूरी में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है।

अगर आपको गणित बिल्कुल भी पसंद नहीं है, तो आप वास्तविक मजदूरी के ग्राफ को देख सकते हैं, इससे हालत बहुत आसानी से समझ में आ जाती है।

ये आंकड़े इतने विश्वसनीय हैं कि यहां तक ​​कि वित्त मंत्रालय ने भी उदारतापूर्वक मैक्रोइकॉनॉमिक डायग्नोस्टिक्स पर एक प्रशिक्षण सत्र के लिए इन आंकड़ों का उपयोग करने के लिए मुझसे (लेखक ज्यां द्रेज से) अनुमति मांगी है।

इसी तरह से ‘सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन’ द्वारा एकत्र किए गए मजदूरी के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में ईंट-भट्ठा श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में लगातार गिरावट आई है। यह बहुत खतरनाक बात है, क्योंकि ईंट-भट्ठा का काम भारत के कुछ चरम गरीब समुदायों के लिए रोजी-रोटी की अंतिम शरणस्थली है। बहुत लंबे समय से ऐसी हालत कभी नहीं हुई थी।

राज्यों के स्तर पर भी तस्वीर ऐसी ही है। कृषि क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी की वार्षिक वृद्धि दर सिर्फ दो प्रमुख राज्यों कर्नाटक (2.4%) और आंध्र प्रदेश (2.7%) में 2 प्रतिशत से ऊपर है। पांच प्रमुख राज्यों (हरियाणा, केरल, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु) में 2014-15 और 2021-22 के बीच वास्तविक मजदूरी में वृद्धि के बजाय गिरावट आयी है। कुल मिलाकर, तथ्य यह है कि देश में वास्तविक मजदूरी आज भी उतनी ही है जितनी 2014-15 में थी। श्रम ब्यूरो के आंकड़े अनौपचारिक क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी के ठहराव की ओर इशारा करते हैं।

इससे कुछ जरूरी सबक निकलते हैं। सबसे पहले, हमें वास्तविक मजदूरी पर अधिक ध्यान देना चाहिए। दूसरा, सरकार को मजदूरी संबंधी आंकड़ों का संग्रह जरूर कराना चाहिए। तीसरा, भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र वृद्धि और वास्तविक मजदूरी की सुस्त वृद्धि के बीच आज एक गंभीर और परेशान करने वाला अंतर आ गया है। इस अंतर का तकाजा यह है कि लोगों की मजदूरी बढ़ाने के उपायों पर अधिक ध्यान देने के साथ आर्थिक नीतियों की दिशा बदली जानी चाहिए। अगर अगले बजट भाषण में रोजगार और मजदूरी पर कुछ शब्द शामिल किए जाएं तो यह भी एक अच्छी शुरुआत होगी।

(ज्यां द्रेज के लेखों पर आधारित, ‘द इंडियन एक्सप्रेस से साभार’, प्रस्तुति: शैलेश)

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