उपमहाद्वीप में 1947 के बंटवारे ने बहुत कुछ विभाजित कर दिया था लेकिन कुछ ऐसी चीजें बची रह गईं जिन्होंने बाद में उस वक्त के जख्म भरने का काम बखूबी किया। सियासत ने तो कुछ किया नहीं और न सियासतदानों ने। अलबत्ता सियासत की अंगीठियों पर अपनी-अपनी रोटियां सेंकने का सिलसिला आज भी जारी है। कभी अचानक कुछ ‘खुल’ जाता है तो आकस्मिक तौर पर ‘बंद’ करने की घोषणा भी कुछ महीनों के बाद दोनों देशों की ओर से कर दी जाती है। कभी-कभी तो हफ्तों बाद ही।
इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कि खेल और मनोरंजन जगत ने दोनों मुल्कों के जख्मयाफ्ता अवाम की दर्दनाक यादों को किसी हद तक कम करने में अहम भूमिका अदा की लेकिन सियासत और कट्टरपंथ की कैंची उन पर भी चल गई। अब भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी किस्म का कोई खेल मुकाबला होता है तो उसे बहुधा ऐसे लिया जाता है गोया स्टेडियम मैदान-ए-जंग हो और टीवी चैनलों पर युद्ध लाइव दिखाया जा रहा हो। पहले ऐसा नहीं था।
वितृष्णा का भाव रखने वाले उधर भी थे और इधर भी। खेल के बाद मनोरंजन की दुनिया थी जो भारत और पाकिस्तान को शिद्दत के साथ आपस में एक पुख्ता मंच पर जोड़ती थी। 90 के दशक तक पाकिस्तानी टीवी के कार्यक्रम अथवा ड्रामे हिंदुस्तान में बेहद मकबूल थे और पाकिस्तान में भारतीय फिल्में तथा बॉलीवुड सितारे। फिल्मों का रिश्ता वाया पंजाब भी बखूबी बनता था।
भारतीय पंजाब में पाकिस्तानी पंजाबी फिल्में बेतहाशा मकबूल थीं और पाकिस्तानी पंजाब में हिंदुस्तानी पंजाबी फिल्में। कई फिल्मों के तो ‘रीमेक’ भी हुए और उन्हें दोनों देशों में दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। यह सिलसिला भी अब अचानक बंद हो गया और मीडिया में बड़ी सुर्खियां भी इसे हासिल नहीं हो पाईं। मतलब कि कोई जान ही नहीं पाया कि पाकिस्तानी फिल्में अब भारतीय पंजाब में क्यों रिलीज नहीं हो सकतीं और पाकिस्तान में भारतीय पंजाब की फिल्मों से सिनेप्रेमी एकाएक क्यों वंचित कर दिए गए?
कोरोना महामारी काल का असर पूरी दुनिया के साथ-साथ हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मनोरंजन जगत पर भी पड़ा था। दोनों तरफ की फिल्म तथा टीवी इंडस्ट्री ठप होकर रह गई और जैसे-जैसे महामारी की वापसी हुई वैसे-वैसे दोनों देशों की इंडस्ट्री फिर अपने पैरों पर खड़ी होने लगी। महामारी के अवसाद से निकले दोनों मुल्कों के लोगों को मनोरंजन की दुनिया के पुराने दिनों की हिंदुस्तानी तथा पाकिस्तानी फिल्में एवं टीवी के मकबूल सीरियल न महज याद आने लगे बल्कि नयों का इंतजार भी शिद्दत से ‘उधर’ और ‘इधर’ होने लगा।
आम लोग शायद नहीं जानते थे की महज थोड़े अरसे में बहुत कुछ तब्दील हो गया है और पुलों के नीचे से बहने वाले पानी का बहाव तेज रफ्तार पकड़ गया है। यानी मनोरंजन की दुनिया को भी दोनों ओर से कूटनीति, राजनीति और नफरत के नाग बेतहाशा डंसने लगी है। अचानक भारतीय और पाकिस्तानी दर्शक एक-दूसरे के टेलीविजन चैनलों से अलहदा कर दिए गए। फिल्मों के साथ भी यही सुलूक हुआ।
पाकिस्तानी सिनेमा का दूसरा मतलब वहां का पंजाबी सिनेमा है जो हिंदुस्तान में और पूरी दुनिया में बसे भारतीय पंजाबियों को बहुत पसंद है। भारतीय पंजाब में पाकिस्तान में बनने वाली एक पंजाबी फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ का बेसब्री से इंतजार था। हालांकि यह एक आम-सी कमर्शियल मूवी है, जिस तरह की भारत में हिंदी और दक्षिण में बनती हैं एवं पर्दे पर खूब तालियां बटोरती हैं तथा पर्दे के पीछे से अकूत पैसा कमाती हैं।
पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ भी ठीक ऐसी ही एक फिल्म है। पाकिस्तानी सिनेमा इतिहास में पहली बार था कि सौ करोड़ रुपए की लागत से किसी फिल्म का निर्माण हुआ। इससे पहले बहुत कम लागत और संसाधनों के साथ वहां फिल्में बनाईं जाती थीं। फिर भी भारतीय दर्शकों के बीच खासी मकबूल होती थीं।
भारतीय पंजाब सहित दिल्ली और हरियाणा के कुछ पंजाबी भाषाई शहरों में यह फिल्म 30 दिसंबर, 2022 को धूमधाम के साथ प्रदर्शित की जानी थी। कई हफ्तों से इसका प्रचार चल रहा था और इसे देखने की चाह रखने वाले लोगों की बेसब्री दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी कि अचानक इसकी स्क्रीनिंग रोक ली गई। पंजाब में जगह-जगह लगे इसके पोस्टर उतार लिए गए। अचानक ऐसा क्यों हुआ, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। वितरक भी इस सवाल पर अनभिज्ञता जाहिर करते हुए कहते हैं कि उन्हें खुद जानकारी नहीं है कि इस फिल्म को क्यों रोका गया?
जालंधर उत्तर भारत के फिल्म वितरण का बहुत बड़ा सेंटर है। यहां के एक वितरक ने इस पत्रकार के पूछने पर (नाम न देने की शर्त पर) बताया कि पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ की जबरदस्त प्रीबुकिंग हुई थी लेकिन 29 दिसंबर को अचानक फरमान मिला कि यह फिल्म फिलहाल भारत में प्रदर्शित नहीं होगी। तमाम बुकिंग रद्द कर दी जाए और पोस्टर हटा दिए जाएं।
यह अन्य मॉल के मालिक ने बताया कि किसी को कुछ मालूम नहीं कि एकाएक इस फिल्म का स्थगन क्यों किया गया? फिल्मी दीवानों की बेचैनी का जवाब भी किसी के पास नहीं था। यह भी कोई नहीं बता पा रहा कि आखिर यह फिल्म भारत में स्क्रीन पर कब देखने को मिलेगी?
गौरतलब है कि पाकिस्तान ही नहीं बल्कि भारतीय सेंसर बोर्ड ने भी फिल्म को पूरी तरह स्वीकृति दे दी थी और इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया था। कुछ भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक सेंसर बोर्ड ने ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ के प्रदर्शन के लिए दी गई प्रक्रियागत इजाजत अस्थायी तौर पर वापिस ले ली लेकिन वजह के तौर पर एक पंक्ति भी नहीं लिखी।
नतीजतन अब भारतीय दर्शक पाकिस्तान की अति महत्वाकांक्षी और दुनिया भर में लोकप्रियता तथा व्यवसायिकता के नए शिखर छू रही ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ देखने से अचानक महरूम हो गए और समझ भी नहीं पाए कि ऐसा क्यों हुआ?
अब दूसरे देशों में रह रहे परिचितों और परिजनों के जरिए वे इंटरनेट पर ‘डाउनलोड’ करके इसे देख रहे हैं। जिला कपूरथला के गांव खेड़ा के अवतार सिंह के अनुसार फिल्म देखने का असली मजा तो स्क्रीन पर ही आता है। इंटरनेट के जरिए बस काम चलता है, आनंद नहीं मिलता।
लोग-बाग इस फिल्म को नए साल का तोहफा मानकर चल रहे थे लेकिन अब ठगे-से महसूस कर रहे हैं। मिलते आश्वासनों के मद्देनजर उन्हें विश्वास है कि यह पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म बड़े पर्दे पर उन्हें यथाशीघ्र दिखाई जाएगी। अगर ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ का प्रदर्शन 30 दिसंबर को होता तो सन 2011 के बाद यह भारत में रिलीज होने वाली पहली पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म होनी थी।
पाकिस्तान में सीरियल और संगीत के एल्बम तो खूब निरंतर बनते हैं लेकिन फिल्मों की रफ्तार कुछ धीमी है। दरअसल, 1979 में एक पाकिस्तानी मूवी ‘मौला जट्ट’ भारतीय पंजाब में रिलीज हुई थी। ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ को उसी का रीमेक बताया जा रहा है।
1979-80 के दौर में भारतीय पंजाब का पंजाबी सिनेमा किन्हीं विशेष कारणों से हाशिए पर जा रहा था और इक्का-दुक्का फिल्में ही कभी-कभार बनती थीं और सिनेमाघरों का मुंह देखती थीं। अतीत में पंजाबी फिल्मों का बहुत बड़ा दर्शक वर्ग रहा है जो वक्त के साथ-साथ व्यापक भी होता गया।
बेशक आधुनिक हिंदी फिल्में कहीं ज्यादा तामझाम और एक्शन के साथ प्रदर्शित होती थीं लेकिन पंजाब के लोग अपनी मातृभाषा में बनीं फिल्में भी देखने के खूब तमन्ना रखते थे।
फिल्म वितरण कारोबार से जुड़े रहे जालंधर के हंसराज बजाज याद करते हैं कि सन 1979-80 में हिंदुस्तान में किसी उल्लेखनीय पंजाबी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ और जिनका हुआ, वे वितरक न मिलने के चलते गोदामों के डिब्बों में बंद होकर रह गईं। फिर पंजाबी दर्शक नया भी कुछ देखना चाहते थे। पंजाबी फिल्मों के पुराने ढर्रे से वे आजिज आ गए थे।
उसी दौरान यानी 1979 में पाकिस्तान की एक पंजाबी फिल्म ‘मौला जट्ट’ आई और हफ्तों तक सिनेमाघरों में लगी रही। पंजाब में उसे ऐतिहासिक मकबूलित हासिल हुई। उसे देखकर भारतीय पंजाब के सिनेमाकारों ने भी उसी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म को कथित तौर पर अपना आदर्श मान लिया। उसके बाद पंजाबी में ‘मौला जट्ट’ की तर्ज पर इधर के पंजाब में भी खूब फिल्में बनने तथा मकबूल होने लगीं।
इसी सिलसिले में निर्माता (जो बाद में अपने दौर के पंजाबी सिनेमा के सुपरस्टार कहलाए) गुग्गू गिल ने ‘पुत्त जट्टा दें’ का निर्माण किया। इस फिल्म में हिंदी फिल्मों के सितारे धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा व विद्या सिन्हा ने भी काम किया था। इस फिल्म को रिकॉर्ड तोड़ कामयाबी हासिल हुई और पाकिस्तान में भी इसे खूब देखा गया। ‘मौला जट्ट’ से भी ज्यादा इस फिल्म ने पैसा कमाया।
फिर ऐसी फिल्मों की झड़ी लग गई लेकिन उनमें से ज्यादातर पाकिस्तानी पंजाबी फिल्मों से ही गहरे तक प्रभावित थीं। गीत-संगीत से लेकर अदाकारों की डायलॉग डिलीवरी भी लगभग पाकिस्तानी फिल्मों जैसी थी। उसे कमर्शियल पंजाबी सिनेमा का सुनहरा दौर माना जाता है। बाद में एक लंबे स्थगन के बाद पंजाबी सिनेमा ने कॉमेडी की तरफ रुख किया तो यह हवा भी पाकिस्तान से आई थी। पंजाबी ही क्यों हिंदी फिल्मों में भी पाकिस्तानी गीत-सगीत का अच्छा शुमार रहता है।
खैर, भारत और पाकिस्तान के बीच फिल्मों का आदान-प्रदान कतिपय कारणों से बेशक फिलवक्त बंद है लेकिन दोनों देशों के दिग्गज सितारे यहां-वहां यानी पाकिस्तान और हिंदुस्तान में पहले की मानिंद ही खासे मकबूल हैं। जिस तरह दोनों देशों की क्रिकेट से वाबस्ता खिलाड़ी हस्तियां।
सिनेमा और खेल दो ऐसी चीजें हैं जिनका कोई मजहब या जात नहीं होता। फन ही सब कुछ होता है। अगर फिल्में और क्रिकेट-हॉकी दोनों देशों को अमन और सद्भाव की भावना के साथ भावनात्मक रूप से कहीं न कहीं आपस में जोड़ें तो उन पर प्रतिबंध नाजायज है। बशर्ते कि आप चाहते हों दोनों मुल्कों में नफरती हवा का आवागमन कम हो या नहीं ही हो, तो विभाजन के बाद बने इन पुलों के दरवाजे कृपया खोले रखिए। देखने वालों को ‘द लीजेंड मौला जट्ट’ बाखुशी देखने दीजिए।
आखिर पंजाब एक सरहदी सूबा है और दोनों देशों के पंजाब का अवाम शिद्दत से ऐसा चाहता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भारतीय पंजाबी सिनेमा दम तोड़ रहा था तो पाकिस्तानी पंजाबी सिनेमा ने प्रेरणा देकर उसे जिंदा करने में अहम भूमिका निभाई थी।
(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं)
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