क्वांटम यांत्रिकी: कितना यथार्थ, कितनी पहेली?

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क्वांटम क्रान्ति के संपूर्ण विस्फोट की कथा पर बात करते हैं, जिसे सन् 1925 में चंद अत्यन्त मेधावी तरुणों ने अंजाम दिया। यहां तक कि इस नए सिद्धांत को ‘लड़कों की भौतिकी’ (German-Knaben-Physik) का उपनाम प्राप्त हो गया, हालांकि कुछ प्रौढ़ और प्रसिद्ध भौतिक-शास्त्रियों ने भी इस सिद्धांत को अन्तिम रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1927 तक पहुंचते-पहुंचते यह क्रान्ति सम्पन्न हो चुकी थी।

क्लासिकीय भौतिकी की असफलताओं और पुरानी क्वांटम थियोरी की विसंगतियों का निवारण हो चुका था। अब एक सर्वथा नया और आंतरिक संगति वाला सिद्धांत हाथ में था, जो पदार्थ के स्थायित्व की पहेली की तथा परमाणुओं के सूक्ष्म-जगत की सभी परिघटनाओं की व्याख्या में समर्थ था।

लेकिन, सफलताओं के बावजूद, नये सिद्धांत के दार्शनिक और अवधारणात्मक अर्थ को लेकर विवाद खड़े हो गए। भौतिकी के दो सबसे बड़े दिग्गजों, अल्बर्ट आइंस्टाइन और नील्स बोर, के बीच महान बहस का सूत्रपात हुआ। क्लासिकीय भौतिकी के निर्धारणवाद का अंत हो गया था और प्रकृति के मूलभूत नियमों में ‘संभाविता’ (Probabilty) को जगह मिल गई थी।

क्वांटम यथार्थ तब तक अनिर्धारित प्रतीत हो रहा था, जब तक कि उसका मापन या प्रेक्षण न कर लिया जाए। यही नहीं, क्वांटम के सूक्ष्म-जगत में यथार्थ की प्रकृति के निर्धारण में माप या प्रेक्षण की क्रिया स्वयं एक निर्धारक की भूमिका निभाती थी।

यह अल्बर्ट आइंस्टाइन को स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने पूछा, “जब कोई नहीं देख रहा होता तो क्या चांद का वजूद नहीं होता?”

(रवि सिन्हा, लेखक और वामपंथी आंदोलन से विगत चार दशकों से अधिक वक़्त से जुड़े कार्यकर्त्ता, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से संबद्ध , प्रशिक्षण से भौतिकीविद डॉ सिन्हा ने MIT, केम्ब्रिज से अपनी पीएचडी पूरी की ( 1982 )और एक भौतिकीविद के तौर पर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड, फिजिकल रिसर्च लेबोरेट्री और गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद में काम किया। अस्सी के दशक के मध्य में आपने फैकल्टी पोज़िशन से इस्तीफा देकर पूरा वक़्त संगठन निर्माण तथा सैद्धांतिकी के विकास में लगाने का निर्णय लिया।)

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