मुंबई में 28 सौ करोड़ की परियोजना का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने आरबीआई और एसबीआई का हवाला देते हुए कहा कि पिछले 4 वर्षों में भारत में 8 करोड़ रोजगार का सृजन हुआ है। प्रधानमंत्री कि इस घोषणा के बाद रोजगार की स्थिति को लेकर गंभीर बहस छिड़ गई है।
एक- अर्थशास्त्रियों के अनुसार एसबीआई या आरबीआई रोजगार के आंकड़े इकट्ठा करने वाली संस्थाएं नहीं है।
दूसरा- एसबीआई और आरबीआई ने जिस पैमाने को आधार बनाकर रोजगार की संख्या का ऐलान किया है वह पैमाना ही संदिग्ध है। इसमें कई गलत मानदंडों का प्रयोग किया गया है। इसलिए इस सवाल पर देश में बहस छिड़ना स्वाभाविक था। हम सभी जानते हैं कि रोजगार का सवाल चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन गया था। अन्य कारकों के साथ बेरोजगारी को भी भाजपा की चुनावी पराजय के एक प्रमुख कारणों में माना जा रहा है। प्रधानमंत्री बेरोजगारी के कारण नौजवानों में फैले आक्रोश और सड़कों पर दिख रहे युवा सैलाब से डरे हुए हैं। इसलिए उन्हें संदिग्ध तथ्यों का सहारा लेना पड़ रहा है। जब महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री यह कह रहे थे ठीक उसी समय गुजरात के भरूच में एक होटल में नौकरी के लिए निकले विज्ञापन और मुम्बई में एक प्राइवेट एयर लाइंस द्वारा लोडर की नौकरी के लिए इंटरव्यू के ऐलान में उमडे़ हजारों नौजवानों का सैलाब प्रधानमंत्री के इस बयान को गंभीर चुनौती दे रहा था। प्रधानमंत्री के आधे-अधूरे सच और भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। आइए इस समस्या की जड़ पर चर्चा करते हैं।
कंपनी राज (एक)-18 वीं सदी में भारत पर कंपनी राज की पकड़ जैसे-जैसे मजबूत होती गई। वैसे-वैसे उसने औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों को थोपना शुरू किया। लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा 1793 में लाये गये भूमि बंदोबस्त भारत में ग्राम्य ढांचे को छिन्न-भिन्न करने लगा। जिससे बहुत बड़ा सामाज जीविका से वंचित होने लगा। ऐसी स्थितियों में कृषि और कुटीर उद्योग पर टिके समूहों को जीविका की तलाश में नए क्षेत्रों की खोज में पलायन करना पड़ा। साथ ही भारत के समृद्ध हस्त-कौशल और कुटीर उद्योग को मैनचेस्टर के कपड़ा उद्योग के मुनाफे और बाजार विस्तार के लिए कठोर नियमों और अमानवीय करों के बोझ तले इस तरह से दबाया गया कि वे बर्बाद हो गए। जैसे ही कर बोझ बढे़ बुनकरों से लेकर अन्य कारीगर लाखों की तादात में रोजगार से वंचित हो गए और उजरती मजदूर बन कर नए विकसित हो रहे नगरों की तरफ पलायन करने लगे। औपनिवेशिक सरकार द्वारा लाई गई नीतियों ने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी को जन्म दिया। इस कारण से ग्रामीण भारत से आबादी का पलायन शहरों से लेकर अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में हुआ। मॉरीशस व दक्षिण अफ्रीका से लेकर सूरीनाम त्रिनीदाद, टोबैगो सहित कैरेबियन द्वीप तक भारतीय उसी दौर में पहुंचे। अभी शिक्षा का प्रारंभ हुआ ही था कि बेरोजगारी सताने लगी। कारण सरकार के महत्वपूर्ण पदों का गोरों के लिए आरक्षित होना और कृषि और कुटीर उद्योग मैं संरचनात्मक बदलाव का आना।
इस स्थिति को देखकर कर भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने लिखा था कि –
“तीन बुलावे तेरह धावै ,निज-निज बिपदा रोय सुनावै, का सखि साजन ना ही ग्रेजुएट।” यानी कंपनी की औपनिवेशिक नीतियों से भारत ने पहली बार बेरोजगारी दरिद्रता, अकाल और भुखमरी देखी। इसके परिणाम विभिन्न तरह के जन विद्रोह में देखने को मिले। बाद के दौर में यही ग्रेजुएट भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सृजनकर्ता व नायक बने और भारत को उपनिवेश से निकलकर एक आजाद सार्वभौम गणतंत्रांतिक भारत बनाने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया।
कंपनी राज (दो)-आजादी के बाद भारत के विकास का नेतृत्व बड़े औद्योगिक घरानों विदेशी पूंजीपतियों और नौकरशाहों के गठजोड़ के हाथ में आ गया। स्वतंत्रता आंदोलन से उपजी विराट राष्ट्रवादी भावना और विकसित हुए नैतिक आदर्शों मूल्यों व सामाजिक सरोकार के दबाव में भारत में एक हद तक सकारात्मक विकास की दिशा देखी गई। विश्व परिदृश्य में समाजवादी क्रांतियों के बढ़ते दबाव के चलते भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया। जिससे तेज गति से औद्योगीकरण हुआ और संरचनात्मक विकास को गति मिली। आजादी की लड़ाई से समाज के विभिन्न वर्गों में एक नई चेतना विकसित हुई थी। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के विस्तार, नई-नई सरकारी परियोजनाओ संस्थानों के निर्माण व पब्लिक क्षेत्र के उद्योगों ने जनता में उत्साह का सृजन किया था।
दूसरी तरफ आजाद भारत के सार्वभौम संवैधानिक गणतंत्र की यात्रा शुरू की। जो कई पड़ावों से गुजरते लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ती रही। भारत ने एक हद तक गरीबी भुखमरी अशिक्षा पिछड़ेपन और कृषि के ठहराव पर विजय पाना शुरू किया। नए-नए सम्मानजनक रोजगार के सृजन से उत्पादक शक्तियों में नई गति आई और वे उत्पादन के नए क्षेत्रों की तरफ जाने लगे। सामाजिक जड़ता खत्म होने लगी।
शुरुआती दौर में आजाद भारत में अपनी समस्याओं से लड़ने की प्रबल इच्छा शक्ति थी। साथ ही नवजात पूंजीपति वर्ग इतना ताकतवर नहीं था कि बड़ी-बड़ी संस्थाओं और परियोजनाओं का संचालन कर सके। इसलिए राजकीय क्षेत्र का विस्तार और सरकार द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में शुरू की जाने वाली परियोजनाएं पूंजीपति वर्ग के दूरगामी रणनीतिक हितों के अनुकूल थी। उस समय सरकार का राजनीतिक नेतृत्व भी स्वतंत्रता आंदोलन की आग से तप कर आया था। इसलिए उसके पास भारत को आगे ले जाने की रणनीतिक समझ थी। इसके परिणाम हम चौतरफा विकास के तौर पर देखते हैं। लेकिन इस विकास यात्रा की अगुवाई करने वाले निम्न पूंजीवादी नेतृत्व की वर्गीय सीमा निश्चित थी। जिससे वह भारतीय समाज को और आगे नहीं ले जा सकता था। जिसके परिणाम बहुत शीघ्र ही दिखाई देने लगे।
चूंकि भारतीय राज्य की अगुवाई दलाल नौकरशाह पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजीपतियों के साथ गठजोड़ बनाकर कर रहा था। इसलिए भारतीय राज्य और उसकी विकास यात्रा को संकटग्रस्त होना ही था। वह मंजिल 90 के दशक में आ ही गई। जब विश्व पूंजीवाद समाजवाद पर विजय हासिल कर एक ध्रुवीय दुनिया बनाने में कामयाब हो गया। इसलिए उसने ठहरे हुए विकास की आड़ में भारत के संरचनात्मक पुनर्गठन की मुकम्मल परियोजना पेश की। जिसका नाम था “उदारीकरण निजीकरण वैश्वीकरण” (एलपीजी) यानी भारत के दरवाजे विश्व पूंजीवाद के लिए खोलना। जिसकी अगुवाई साम्राज्यवादी देशों द्वारा बनाए गए संस्थाओं के हाथ में थी। (विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक आदि)।
इसके साथ ही साम्राज्यवादी ताकतों के नेतृत्व में भारत की वर्ण व्यवस्था के अंदर मौजूद अलोकतंत्रिकता और गैर बराबरी के कारण मौजूद अंतरविरोध का फायदा उठाकर और धार्मिक विविधताओं के बीच सचेतन षड्यंत्र रचकर भीषण टकराव के लिए उदारीकरण के लिए भौतिक स्थिति तैयार की गई। बाबरी मस्जिद विध्वंस व अन्य पिछड़े वर्ग केआरक्षण के नाम पर नौजवानों के अग्नि दहन की घटनाएं इसी दौर मे हुई। जिससे समाज में अलगाव और टकराव तेज हो गया।
इस तूफानी टकराव की आड़ में एलपीजी को आगे बढ़ाया गया। साथ ही समाज और राज्य का नेतृत्व अंबानी, टाटा जैसे पूंजी पतियों ने वीएचपी की आड़ में आरएसएस और बीजेपी को सौंप देने में भरपूर योगदान दिया। (यहां आडवाणी की रथ यात्रा के लिए अंबानी द्वारा तैयार की गयी रथ योजना) भारत में हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ इसी काल खंड में ठोस आकर लेना शुरू किया। जो नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने और गोधरा के बाद हुए नरसंहारों के बाद एक मजबूत नेता के मिथक के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। हालांकि हिंदुत्व का संबंध पूंजीपतियों राजे-रजवाड़ों जमींदारों औपनिवेशिक शासकों के साथ आजादी के दौर से ही घनिष्ठ था। जो 90 के दशक में आए ढांचा गत संकट के समय खुला आकार ग्रहण कर सका।
1990 से लेकर 92 तक बीएचपी आरएसएस और भाजपा के उन्मादी दस्तों के समक्ष भारतीय राज्य असहाय सा दिखने लगा था, और अंततः आत्म समर्पण कर दिया। यहीं से हिंदुत्व कॉरपोरेट गठजोड़ भारत के लोकतंत्र और नागरिक समाज पर काबिज होने लगा।
नई आर्थिक नीतियों के चलते भारत मुक्त बाजार की दिशा में आगे बढ़ा। चारों तरफ मुक्त व्यापार और निजीकरण का गौरव गान शुरू हो गया। सरकारी और पब्लिक सेक्टर के उद्योगों और संस्थानों को सफेद हाथी घोषित कर अर्थव्यवस्था पर बोझ करार दिया गया। तत्कालीन कांग्रेस के नरसिंहा राव सरकार ने इस बदलाव की अगुवाई की और इसका रचनाकार मनमोहन सिंह को माना गया। (नरसिम्हा राव को भारत रत्न देने का महत्व और भाजपा द्वारा उनकी प्रशंसा को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए)। लेकिन तय था कि आने वाले समय में भारत में उत्पादक शक्तियों के विध्वंस की जो परियोजना शुरू हुई है। उसकी कमान कांग्रेस के उदारवादी नेतृत्व के हाथ में बहुत दिन तक नहीं रह सकेगी। अंततोगत्वा उसे दक्षिणपंथी ताकतों के हाथ में जाना ही था।
आज भारत इसी यथार्थ के रूबरू है। उद्योगों का निजीकरण सरकारी संस्थाओं को कौड़ियों के मूल्य निजी हाथों में सौपना तथा रोजगार विहीन विकास की दिशा की अगुवाई आज के समय संघ नीति मोदी (भाजपा) सरकार के हाथ में है। जो तेज गति से भारत के संसाधनों को कुछ एक कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में देने के लिए काम कर रही है। जिसे मित्र पूंजीवाद कहा जा रहा है। जिसकी अगुवाई अंबानी, अडानी, टाटा जैसे कारपोरेट घरानों के हाथ में है। जिन्होंने मोदी राज का लाभ उठा कर तेजी से भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को अपने औद्योगिक साम्राज्य में विलीन कर लिया है।
इस स्थिति में भारत के दरिद्रीकारण की गति तेज हो गई। जिसने समाज के हर क्षेत्र को अपने दायरे में खींच लिया है। संकट गहरा है। कृषि से पलायन की रफ्तर बहुत तेज है। किसान कर्जदारी और बाजार के संकट से लड़ते हुए आत्महत्या करने को मजबूर हैं। नोटबंदी और लॉकडाउन के बाद कृषि पर बोझ बढ़ जाने से खेती का संकट और गहरा हो गया है। उद्योगों में बड़े पैमाने पर छंटनी ठेकेदारी और आउटसोर्सिंग के कारण बहुत बड़ी श्रमशक्ति रोजगार विहीन हो चुकी है या अमानवीय स्थितियों में चौथाई से भी कम मजदूरी पर काम कर रही है।
एलपीजी के लाक्षणिक विशेषता-उद्योगों और राजकीय संस्थानों का निजी हाथों में संकेंद्रण। श्रम कानूनों का धीरे-धीरे कमजोर होना और श्रमिकों के अधिकारों में कटौती। काम के घंटे में बढ़ोतरी। उस अनुपात में मजदूरी का घटना। देसी विदेशी कॉर्पोरेट घरानों का अर्थव्यवस्था पर एक छत्र नियंत्रण। यानी मुट्ठी भर हाथों में सारे संसाधनों उद्योगों और पूंजी का संकेंद्रण।
राज्य का कारपोरेट के समक्ष समर्पण। प्राकृतिक संसाधनों से लेकर श्रमशक्ति का अमानवीय दोहन। पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा के मानकों का उल्लघंन। बहुसंख्यक समाज का बेरोजगारी, गरीबी, दरिद्रीकरण और संसाधनों से वंचित होते जाना। कृषि और लघु उद्योग की बर्बादी। जिससे बहुत बड़ी श्रमशक्ति और सामाजिक समूह में फैलती निराशा हताशा और गरीबी। जिस कारण गंभीर सामाजिक संकट का जन्म लेना। जैसे आत्महत्या, परिवारों का विघटन, सामाजिक तनाव, अपराध और सामाजिक व लोकतांत्रिक नैतिकता का क्षरण।
लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण–
पूंजी के संकेंद्रण से सत्ता का कुछ हाथों या एक छोटे से गुट में सिमटते जाना। जिससे लोकतंत्र का क्षरण और तानाशाही के कारण देश का दक्षिणपंथी रास्ते की तरफ बढ़ना। जैसा हम इस समय यूरोप सहित दुनिया के सभी महाद्वीपों में देख रहे हैं। इस समय फासीवादी तानाशाहियां अतीत की वस्तु नहीं यथार्थ जीवन का संकट है। सभी तरह के आलोकतांत्रिक फासीवादी विचारों का तेजी से प्रसार और सामाजिक स्वीकृति मिलते जाना।
भारत में उदारी करण के परिणाम-
देश के युवाओं के समक्ष इतिहास की सबसे तेज दर से बेरोजगारी है। जीडीपी बढ़ने के सारे दावे के बावजूद भारत में 80% आबादी की जीवन स्थिति बदतर हुई है और कुछ चंद हाथों में सभी संसाधन और संपदा केंद्रित होना व रोजगार विहीन विकास। न्यूनतम वेतन पर काम करने वाले ठेका मजदूरों में वृद्धि।
अब तो कोर सेक्टर जैसे शिक्षा स्वास्थ्य के साथ-साथ सेना तक में अस्थाई सैनिकों की नियुक्ति ने सामाजिक तनाव को बढ़ा दिया है। (एक खबर आई थी कि पुलिस बल में भी अग्नि वीर जैसी योजना शुरू की जाएगी) सेवा क्षेत्र से लेकर सरकारी उद्योगों तक में ठेकेदारी प्रथा आउट सोर्सिंग और अस्थाई चरित्र की नौकरियां।
यहां आरबीआई, एसबीआई, नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों की बाजीगरी में जाने की जरूरत नहीं है। बस्तुस्थिति यह है कि शिक्षित बेरोजगारों की अलग-अलग श्रेणियां में बेरोजगारी दर 24 से 46% के बीच है। ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और बीटेक, एमटेक एमबीए, डिग्री धारी छात्रों नौजवानों में बेरोजगारी का दर सबसे ज्यादा है। करोड़ों की तादात में युवा प्रतिवर्ष श्रम बाजार में आ रहे हैं। इसकी तुलना में रोजगार सृजन स्वतंत्रता के बाद सबसे निचले स्तर पर है। ऊपर से प्रतियोगी परीक्षाओं में हो रहे पेपर लीक और भ्रष्टाचार ने कोढ़ में खाज का काम किया है।
प्रतियोगी परीक्षा में भयानक भ्रष्टाचार-
अभी नीट परीक्षा में हुए पेपर लीक और प्रायोजित भ्रष्टाचार देश में चर्चा का विषय बना ही हुआ था कि यूपीएससी में पिछले कई वर्षों से चल रहे भ्रष्टाचार की पोल खुलने लगी है। ईडब्ल्यूएस से लेकर एसटी एससी ओबीसी और विकलांग कोटे में जिस तरह के भ्रष्टाचार की खबरें आ रही है। उसने भारत सरकार और उसकी चयन प्रणाली पर नौजवानों के विश्वास को डिगा दिया है।
वस्तुत मोदी सरकार संघ परिवार के सदस्यों को विश्वविद्यालयों के कुलपति, चयन आयोगों के सदस्य निदेशक और अध्यक्ष आदि महत्वपूर्ण पदों पर नामित और पदस्थापित कर रही है। संघ से जुड़े अक्षम और अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में स्वायत्त संस्थानों को देने से संस्थाओं की विश्वसनीयता गुणवत्ता और क्षमता पर गंभीर दुष्प्रभाव पडा है। आज आयोगों, संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों के पदाधिकारी होने के लिए सिर्फ एक मात्र योग्यता है। आरएसएस के शाखाओं में भाग लेने का सर्टिफिकेट। नीट के अध्यक्ष डॉक्टर प्रमोद जोशी के बाद यूपीएससी के अध्यक्ष मनोज सोनी के कार्यकाल की घटनाओं ने देश को हिला दिया है। (ये सभी संघ से जुड़े रहे हैं।) स्वाभाविक तौर पर इसका शिकार हमारी युवा जनसंख्या हुई है। इसीलिए आक्रोश पढ़े-लिखे शिक्षित नौजवानो में सघन रुप में दिख रहा है। प्रधानमंत्री डेमोग्राफिक डिविडेंड की चर्चा बहुत करते हैं। आज उसी को तबाह करने में उनकी नीतियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
युवा बेरोजगारी और उसकी प्रकृति-भारत में युवा बेरोजगारी के आंकड़े चौंका देने वाले हैं। कल ही संसद में कपिल सिब्बल ने कहा कि आईएलओ के अनुसार 23% सभी तरह के युवा बेरोजगार है। समग्र रूप से युवाओं में बेरोजगारी 83% है। जो सन 2 हजार में 35,2,%, 2022 तक बढ़कर 67.7% और 2024 में 83% हो गई है। इसका मूल कारण है शिक्षा के क्षेत्र का पतन, औद्योगिक उत्पादन में ठहराव, तकनीकी शिक्षा की दिशाहीनता और जीडीपी में गिरावट। निजीकरण से संगठित क्षेत्र सिकुड़कर 10% रह गया है। उपभोग सूचकांक लंबे समय से ठहरा हुआ है।
तीन तरह की बेरोजगारी साफ दिख रही है–
मजदूरों में मौसमी और अर्द्ध बेरोजगारी। दूसरा -छिपी बेरोजगारी और मजदूरी विहीन रोजगार जैसे -पारिवारिक श्रम। मजदूरी में कटौती। ग्रामीण क्षेत्र में 20% युवा ₹100 और 15% युवा ₹200 प्रतिदिन कमा पाते हैं। 46% आबादी कृषि से जुड़ी है। जीडीपी में कृषि का हिस्सा 15%रह गया है। इससे कृषि से जुड़े लोगों की माली स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। अचानक लॉकडाउन में 6 करोड़ लोगों के गांव की तरफ लौटने से कृषि पर बोझ बढ़ गया है।
‘एलपीजी’ लागू होने के बाद प्रति वर्ष 50 लाख से ज्यादा लोग गांव छोड़ने लगे थे। उसके पीछे कृषि पर कर्जदारी और फसलों का उचित मूल्य न मिलना था। ‘पलायनऔर आत्महत्या’ की जुड़वां प्रवृत्ति कृषि संकट की गंभीरता को प्रकट करती है। जो ‘एलपीजी’ का स्वाभाविक परिणाम है।
मोदी सरकार के दो फैसले नोटबंदी और जीएसटी ने लघु और मध्यम उद्योगों की कमर तोड़ दी। लाखों उद्योगों के बंद हो जाने से करोड़ों लोग रोजगार विहीन हो गए हैं। जो श्रम बाजार में सस्ते मूल्य पर बिकने के लिए तैयार बैठे हैं। तकनीकी विकास ने श्रमिकों को रोजगार से बाहर कर दिया है। (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) जिस कारण से अतिरिक्त श्रम की प्रचुरता के कारण श्रमिकों की सौदेबाजी की ताकत खत्म हो गई है। आज देसी-विदेशी कॉरपोरेट घराने इसी का फायदा उठाकर दिन दूना-रात चौगुना पूंजी बटोर रहे हैं।
उच्च शिक्षित और तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवाओं की बेरोजगारी दर 46% के आसपास है। जहां 2017-18 में प्रति 3 घंटे में दो युवा आत्महत्या कर रहे थे। वहीं 23 -24 में प्रति घंटे एक युवा आत्महत्या कर रहा है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट तो यही कह रही है। हालांकि आंकड़े छुपाने में मोदी सरकार माहिर है। एनएसओ के अनुसार 10 साल में 9 करोड़ रोजगार का सृजन हुआ। जिसमें 6 करोड़ सिर्फ कृषि क्षेत्र से। उद्योग पोर्टल के अनुसार पिछले 47 वर्षों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है।
प्रोफेसर से पकौड़ा और पंचर जोड़ने तक रोजगार की यात्रा-गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार सृजन लगभग बंद है। मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार 6 करोड़ से घटकर 5 करोड़ पर पहुंच गया है। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 23% से घटकर 17% हो गई है। सेंटर फॉर इकोनामी के अनुसार युवा बेरोजगारी 9% हो गई है। हायर एजुकेशन और उच्च तकनीकी सेक्टर में सम्मानजनक रोजगार है ही नहीं। सरकारी क्षेत्र अधिकतम पांच प्रतिशत रोजगार ही दे पा रहा है। युवाओं को मजबूरी में असंगठित क्षेत्र और कृषि की तरफ जाना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री की बहुचर्चित घोषणा कि युवाओं को रोजगार मांगने वाला नहीं, देने वाला बनना चाहिए। इसलिए पकौड़े और पंचर बनाने जैसे क्षेत्रों में शिक्षित नौजवानों को रोजगार तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ा है। हजारों ऐसे नौजवान हैं जो उच्च शिक्षित होने के बाद भी ई- रिक्शा चालक के बतौर रोजगार में लगे हैं। आप छोटे कस्बों से लेकर गांव तक चले जाइए, फेरी लगाने कूड़ा इकट्ठा करने जैसे रोजगार में बड़ी तादात में नौजवान लड़के,लड़कियां, बच्चे आपको मिल जाएंगे।
इस अंधकार के वातावरण में सरकार का पक्षपाती चरित्र भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक अक्षमता ने संकट को विकट बना दिया है ।केंद्र सरकार राज्यों के अधिकारों में कटौती करते हुए सभी तरह के टैक्स से लेकर एजुकेशन तक को अपने हाथ में लेती जा रही है। एनटीए और नीट (जीएसटी तथा कृषि और खनन जैसे राजस्व के स्रोतों को कानून बनाकर केंद्र के अधीन करना) इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। जिससे राज्यों में रोजगार का सृजन घटता जा रहा है। राजनीतिक सत्ता के संकेद्रण के साथ पूंजी का संकेंद्रण कुछ हाथों में आ जाने से समस्याएं कैंसरस हो गई हैं।
भाजपा शासित राज्य और केंद्र सरकारों की असफलता- 70 से ज्यादा परीक्षाओं के पेपर लीक होने से लगभग 20 करोड़ युवाओं में भयानक असंतोष है। अभी नीट, नीट यूजी क्यूट और यूपीएससी में जिस तरह का भ्रष्टाचार खुलकर सामने आया है। उसने आग में घी का काम किया है। युवा बेरोजगारों का सरकार संस्थानों से विश्वास भंग हो गया है। स्वाभाविक है यह विश्वास भंग संस्थाओं से बाहर निकल कर भारतीय राज्य व्यवस्था को चुनौती देने लगा है। कोविड की शुरुआत में एक लेख में अरुंधति राय ने लिखा था कि “पूंजीवाद का इंजन ठहर गया है। अब वह आधुनिक विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता खो बैठा है। इसलिए जितना जल्दी हो इसे बदल देना ही मानवता की भलाई के लिए आवश्यक है”।
युवा असंतोष और चुनाव-
मोदी सरकार की नीतियों के खतरनाक चरित्र लोकतांत्रिक प्रगतिशील ताकतों को पहले से ही मालूम था। वे इसके खिलाफ जनसंघर्षों द्वारा चेतना विकसित कर रहे थे और इसकी कीमत भी चुका रहे थे। लेकिन पहली बार मोदी सरकार के खिलाफ युवा असंतोष राजनीतिक दिशा लेने लगा है। मजदूर-किसान पहले से ही ‘एलपीजी’ के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। नौजवानों के इस दायरे में आ जाने से संघर्ष का दायरा व्यापक हो गया है। इसलिए अपने क्रांतिकारी चरित्र के कारण विकसित हो रहे आक्रोश की अग्रिम कतार में छात्र युवा आ गये हैं।
नीट, एनटीए जैसी संस्थाए मोदी राज्य में इसलिए बनाए ही गये थे कि भ्रष्टाचार को संस्थागत और केंद्रीकृत किया जा सके। अब यूपीएससी भी संघ की नीतियों का शिकार हो गया। संघ नीति मोदी सरकार द्वारा संस्थाओं पर कब्जा करने की नीति का यह तार्किक परिणाम था। यूपीएससी जैस प्रतिष्ठित संस्थाओं की विश्वसनीयता खत्म होते ही युवा आक्रोश आकार लेने लगा है।
दूसरा-रोजगार का सृजन शून्य स्तर पर है। प्रतिवर्ष 2 करोड़ युवाओं के रोजगार के क्षेत्र में आने से भारी भीड़ इकट्ठा हो गई है। इसमें कोढ़ में खाज यह हुआ कि मोदी सरकार ने अपने लोगों को खपाने के लिए नीतिगत से लेकर अपराधिक भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाया।
पहला खुलासा व्यापम में मध्य प्रदेश में सामने आया था। उस समय प्रमोद जोशी ही वहां एमपीपीएससी के अध्यक्ष थे। फिर तो एक-एक कर सभी राज्यों मे परीक्षाओं की पोल खुलने लगी। अब नीट और यूपीएससी में भ्रष्टाचार सामने आ जाने से मोदी सरकार बैक फुट पर चली गई। युवा आक्रोश को नियंत्रित करने में उसके हाथ पांव फूल रहे हैं। छात्रों का संघर्ष अनवरत जारी है।
अग्निपथ योजना और निजीकरण के खिलाफ शुरू हुआ संघर्ष अब एक मंजिल पूरा कर राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने की तरफ मुड़ चुका है।
छात्र, युवा अपने कैंपस और रोजगार के अधिकार की लड़ाई से आगे जाकर कॉर्पोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों को वापस लेने की मांग तक आगे बढ़ गए हैं। “नीति और सरकार बदलो” के नारे द्वारा 2024 के चुनाव में उन्होंने सीधे कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की मोदी सरकार को खारिज करने का आह्वान किया और पूरी ताकत से इस दिशा में पहलकदमी भी ली। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र और युवा समूहों में गांवों की तरफ निकल गये। सत्ता संपत्ति की ताकत को खारिज करते हुए धर्म जाति क्षेत्र की सीमाओं को तोड़ते हुए इस चुनाव में नौजवानों, छात्रों ने भारत को एक नई दिशा दिखा दी है। जिससे मोदी सरकार भयभीत हो गई है। यह नई स्थिति है। यहां समझ लेना चाहिए कि जब छात्र, नौजवान, किसान, मजदूर, महिलायें अपने आर्थिक, सामाजिक हालातों से ऊपर उठकर राजनीतिक लक्ष्य के लिए सड़कों पर उतरने लगे। तो तानाशाही सरकारों के दिन गिने चुने रह जाते हैं। 2024 के चुनाव में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर भारत के छात्रों युवाओं ने इस बात का संकेत दे दिया है।
कंपनी राज (दो) के खिलाफ युवा भारत परिवर्तन के दरवाजे पर दस्तक दे चुका है। कंपनी राज (एक) के खिलाफ संघर्ष से जहां भारत आजादी हासिल कर सार्वभौम गणतंत्र बना था। वही कंपनी राज (दो) की लड़ाई भारत सहित दुनिया के सभी मुल्कों को साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाने व गैर बराबरी वाले विश्व ऑर्डर को मिटाकर नया विश्व इतिहास लिखेगी।
भारत सहित दुनिया के छात्र युवा विश्व के सबसे जटिल ऐतिहासिक मोड़ पर साम्राज्यवादी पूंजी के खिलाफ एकजुट होकर इसका संकेत देने लगे हैं। (यूरोप अमेरिका में फिलिस्तीन के पक्ष में उठ रही रही युवा आवाज)।
आइए, नए भारत के लिए युवाशक्ति की आहट का स्वागत करें। शायद इसी घात-प्रतिघात के बीच से भारत के लोकतांत्रीकरण की राह आगे बढे़। जिसका 140 करोड़ भारतीयों को बेसब्री से इंतजार है।
(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र टिप्पणीकार व किसान नेता हैं।)
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