व्यंग्य : देवलोक के शहीद

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देवराज ने अपने वित्तमंत्री कुबेर तथा देवलोक के सुपर धनाढ्यों के साथ मिलकर प्रजा से ज्यादा से ज्यादा धन उगाहने की नयी-नयी तकनीकों पर गहन मैराथन मंत्रणा पूरी किया था और सभी ने मिलकर अप्सराओं के अद्भुत नृत्य के बीच सुरापान शुरू ही किया था, कि “नारायण- नारायण” करते हुए मीडिया प्रभारी नारद जी ने दस्तक दे दिया।

नारद : “हे देवराज! यह सब क्या हो रहा है? विश्वकर्मा जी अपने तकनीकी शोधकर्ताओं की लानत-मलामत कर रहे हैं कि वे अन्य लोकों के शोधकर्ताओं की तरह विज्ञान की कोई बुनियादी खोज करने में असफल क्यों हो रहे हैं, इससे देवलोक की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है। दुनिया हम पर हँस रही है, कि बड़े आये हैं विश्वगुरु बनने! हमारे लोक की सारी खोजें केवल व्यवसायियों को हेराफेरी करने में मदद कर रही हैं, जबकि हमारे पड़ोसी लोकों के वैज्ञानिक तकनीक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में एक से एक खोजी कारनामे करते जा रहे हैं।”

“हे देवराज, एक तरफ वैज्ञानिकों को डाँटा जा रहा है, जबकि दूसरी तरफ अपने पूरे लोक में युवाओं को विज्ञान-विरोधी कामों में उलझाया जा रहा है। उनके भीतर विज्ञान-विरोधी सोच विकसित की जा रही है। उनसे यज्ञ, हवन और कीर्तन करवाया जा रहा है। यह कैसा अनर्थ है देवराज?

“देवलोक के बुद्धिजीवियों के बीच कानाफूसी होने लगी है कि देवराज अपनी सत्ता को बनाये रखने और बचाये रखने के लिए युवाओं को जान-बूझकर विज्ञान-विरोधी, मूर्ख और लंपट बनाना चाह रहे हैं।

देवराज : “पहले शांत हो जाओ नारद! आओ पार्टी का आनंद लो। इन युवाओं से जो कुछ करवाया जा रहा है, उसे होने दो। इन्हें यह सब करने में लगे रहने दो। यही लोग तो हमें सत्ता में बनाये रखेंगे।

“मान लो हमारा देश ज्ञान -विज्ञान में मजबूत हो जाए, बाक़ी देशों से आगे निकल जाए, लेकिन हमें सत्ता से बाहर कर दिया जाए, तो तुम्हारा क्या होगा?

“जानते हो कि हम यहां तक कैसे पहुंचे हैं? कितना इंतजार करना पड़ा है यहां तक पहुंचने में? कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है?… क्या-क्या नहीं करना पड़ा है!

“वह देशभक्ति कैसी जब देश ही हमारे हाथ में ना हो?!

“कुछ न कुछ बवाल होते रहना चाहिए। एक कोने से दूसरे कोने तक पूरा देश उलझे रहना चाहिए। किसी न किसी तरह की आग हमेशा सुलगती रहनी चाहिए। एक जगह बुझे तो दूसरी जगह, फिर तीसरी जगह, फिर दस-बीस जगह सुलगती रहे।

“आग बुझी नहीं कि हम सत्ता से बाहर!

“सत्ता में बने रहेंगे तो ताक़त बनी रहेगी, ताक़त यानि सेना, पुलिस, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया… सब हमारी पकड़ में रहेंगे, हमारे इशारे पर नाचेंगे, हमारी सेवा में रहेंगे, धन वर्षा भी हमारे ही आंगन में होगी।

“नौजवानों को ज्ञान-विज्ञान सिखाने का शौक ज्यादा चर्राया तो समझो हमारी दुकान बंद। इन्हें क़ब्रें खोदने में लगे रहने दो। जब वे उस पर सवाल उठाने लगेंगे, तो समझो हम पर सवाल उठाने लगेंगे। फिर वे हमारे वोटर नहीं रह जाएंगे। फिर हमारा क्या हाल होगा?! वही “पुनर्मूषको भव!” कहानी सुनी है न? चूहे के शेर बनने, और फिरसे चूहा बन जाने वाली कहानी!

“नारद तुम मीडिया के प्रभारी हो। तुम बुद्धिजीवियों की बातों को प्रचारित, प्रसारित ही न होने दो। चारों तरफ बस यही चर्चा फैला दो कि हमारा लोक अपने प्राचीन गौरव को हासिल करने जा रहा है। चारों ओर सुख शांति है। ये युवा, जिन्हें लंपट कहा जा रहा है अपने लोक की इस समृद्धि के लिए अपने करियर का बलिदान करने वाले शाहीद कहलाएंगे।

नारद : “शहीद! महाराज शहीद तो उनको कहते हैं न, जो समाज को आगे ले जाने के लिए अपनी जान दे देते हैं?! समाज को पीछे ले जाने वाले कब से शहीद हो गये?

देवराज : “नारद, यह सब आम प्रजा को क्या मालूम? जो कुछ हम उन्हें समझाना चाहेंगे, वही समझा देंगे। तुमको यही काम तो सौंपा गया है! जो तुम तीनों लोकों में बेफिक्र घूमते रहते हो, तुम्हारे खर्चे-पानी, यातायात और चौबीसों घंटे की यह आवारा गर्दी, जानते हो किसके बल पर चलती है? मेरी सत्ता के बल पर!

“मेरी सत्ता के पाये डगमगाये नहीं, कि तुम सलाखों के पीछे नजर आओगे। समझे?

“इसलिए ज्यादा दिमाग़ मत लगाओ। ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार और उन गिनती के सत्ता-विरोधी बुद्धिजीवियों की कानाफूसी की कहीं चर्चा भी मत होने दो। तुम्हारे चैनलों के नक्कारखानों में इन तूतियों की आवाज़ें दबी रहनी चाहिए।

“जोर-शोर से केवल देवलोक के प्राचीन गौरव की गाथाओं और देवराज के कारनामों की चर्चा होनी चाहिए।

“विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, ये सारे लोकतंत्र के नहीं, सत्ता के सिंहासन के पाये हैं। इन्हें सत्ताधीश के नितंबों के नीचे ही दबे रहना चाहिए।

“दरबार ए खास का यह जो सारा रास-रंग है, जो अप्सराओं का नृत्य है, जो यहां का वैभव है, बेशुमार व्यंजनों की कतारें और मदिरा की बहती हुई नदियां हैं, और जो तुम लोग बेहिसाब दौलत बना रहे हो, यह सब तभी तक है, जब तक तुम लोग हमारे सुर में सुर मिला रहे हो।

“और रही बात विश्वकर्मा जी की, तो उनका शोधकर्ताओं को डांटना वाजिब है। ऐसी डांट-फटकार करते रहना भी सत्ता में बने रहने की रणनीति होती है। ताकि लोगों को भ्रम बना रहे, कि सरकार ज्ञान-विज्ञान को आगे बढ़ाना चाहती है और शोधकर्ताओं में भी ग्लानि पनपती रहे, कि सरकार तो भरपूर कोशिश कर रही है, बस वही लोग ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं।

नारद जी देवराज की बातों को मुग्धभाव और विस्मय से सुन रहे थे। उन्होंने भाव-विभोर होकर कृतज्ञ भाव तथा अश्रुपूरित नेत्रों से देवराज को साष्टांग प्रणाम किया, और “नारायण-नारायण” कहते हुए हिल स्टेशन पर अपने निर्माणाधीन आलीशान बंगले का निरीक्षण करने निकल गए।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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