ब्राह्मणों की सियासत में उलझी सपा-बसपा, असली शुभचिंतक बनने की लगी होड़

इन दिनों उत्तर प्रदेश की सियासी जंग में ब्राह्मण समाज को लेकर खासी खींचतान मची हुई है। प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग को स्थापित करने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने जब 14 वर्ष के बाद दोबारा दलित ब्राह्मण गठजोड़ के राजनीति को सर्वोपरि रखते हुए विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ब्राह्मण सम्मेलनों की शुरुआत की तो भला दूसरी पार्टियां भी क्यों पीछे रहने वाली थीं। बसपा के बाद अब समाजवादी पार्टी भी जल्दी ही पूरे उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलनों की शुरुआत करने जा रही है जिसकी तैयारियां भी जोर-शोर से शुरू हो चुकी हैं। दरअसल ये पार्टियां यह मान रही हैं कि जिस भरोसे और उत्साह से ब्राह्मणों ने भाजपा को वोट देकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था आज वही ब्राह्मण समाज भाजपा से बेइंतहा नाराज हो चला है, क्योंकि भाजपा शासन में ब्राह्मणों को ना केवल नजरअंदाज किया गया बल्कि उन पर अत्याचार भी हुए और उनके एनकाउंटर भी हुए।

साल 2007 में मायावती ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट देकर चुनावी मैदान में उतारा था और उनकी यह रणनीति सफल भी हुई। नतीजतन, उस चुनाव में बीएसपी को यूपी की 403 सीटों में 206 सीटों पर जीत हासिल हुई। बीएसपी 2022 के चुनाव से पहले प्रदेश भर में ब्राह्मण सम्मेलन के सहारे दुबारा सत्ता में आने की पूरी योजना बना चुकी हैं। बहरहाल मौजूदा समय में बसपा का यह दलित- ब्राह्मण वाला डेढ़ दशक पुराना फार्मूला क्या उसे साल 2007 की तरह सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाएगा, फिलहाल कहना मुश्किल सही लेकिन एक बात तो निश्चित है कि जिस तरह से पार्टी इस फार्मूले को दोबारा सफल बनाने के लिए जी जान से जुट गई है उसने अन्य पार्टियों की नींद तो उड़ा ही दी है।

राज्य में वोटों के हिसाब से करीब 12 प्रतिशत की भागीदारी रखने वाले ब्राह्मणों पर हर किसी की पैनी नजर है जिसमें बसपा का नंबर सबसे पहले आता है। थोड़ा पीछे जाएं तो यह तस्वीर साफ हो जाती है कि ब्राह्मण समाज को अपने पाले में करने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने विकास दुबे एनकाउंटर के समय किस मुखरता के साथ भाजपा को घेरा था। बीते साल कुख्यात अपराधी विकास दुबे और उसके छह साथियों को एनकाउंटर में मार गिराए जाने के बाद मायावती ने भाजपा को निशाने पर लिया था और यहीं से मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में हिट रहे अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले पर काम करना शुरू कर दिया था।

योगी राज में खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे ब्राह्मण समाज को साधने के लिए मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि दलितों की तरह ही ब्राह्मणों का हित भी बसपा के साथ रहने से पूरा हो सकता है और इसी हित को साधने के लिए बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा की छत्रछाया में 23 जुलाई से अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत भी कर दी गई। हालांकि बसपा ने इन सम्मेलनों को सीधे-सीधे ब्राह्मण सम्मेलन कहने से बच रही है और इन सम्मेलनों को “प्रबुद्ध वर्ग संवाद सुरक्षा सम्‍मान विचार गोष्‍ठी” नाम दिया है और यह नाम ठीक अयोध्या सम्मेलन से पहले दिया गया जबकि पूर्व में पार्टी द्वारा इसे ब्राह्मण सम्मेलन ही कहकर प्रचारित कर रही थी।

नाम बदलने की मज़बूरी इसलिए भी है क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जाति के नाम पर कोई राजनैतिक कार्यक्रम करने पर रोक लगा रखी है। इसीलिए बीएसपी ने भी अपने ब्राह्मण सम्मेलन को प्रबुद्ध सम्मेलन का नाम दिया है और ऐसा ही किसी नाम पर सपा भी विचार कर रही है। भाईचारा कमेटियों के जरिये बसपा पहले ही ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगाने की फिराक में है। कुल मिलाकर ब्राह्मण समाज के जो लोग बसपा के इस सोशल इंजीनियरिंग को स्वीकार कर रहे हैं उनके मुताबिक कम से कम एक यही पार्टी है जो यह मान रही है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण “दलित” ही हैं जिसको सुनहरे दिनों का सपना दिखाया गया और हाशिए में डाल दिया गया।

उधर सपा ने भी बसपा की काट ढूंढ़ते हुए ब्राह्मणों को अपने पाले में करने की कवायद शुरू कर दी है। बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन के ठीक बाद आखिलेश यादव ने भी ब्राह्मण नेताओं के साथ बैठक की। इस बैठक के बाद जो बात निकलकर सामने आई है, उसके मुताबिक़ सपा भी ब्राह्मण समुदाय के बीच अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश करेगी। अखिलेश यादव ने सपा की प्रबुद्धसभा और परशुराम पीठ से जुड़े पार्टी के नेताओं को ब्राह्मण समुदाय के बीच जाकर अधिक से अधिक बैठक करने को कहा है।

इन बैठकों की शुरुआत अगस्त से होगी। बसपा की भांति ही सपा भी यह दोहराने से पीछे नहीं कि प्रदेश के ब्राह्मणों का भला सपा ही कर सकती है अन्य कोई दल नहीं। सपा के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी के मुताबिक लगातार उत्पीड़न झेल रहे ब्राह्मण समुदाय के लोगों में योगी सरकार के प्रति नाराज़गी है। वे कहते हैं कि इन बैठकों के दौरान लोगों को बताया जाएगा कि ब्राह्मणों को न्याय सिर्फ़ अखिलेश यादव की सरकार में ही मिल सकता है। तो वहीं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय, एसपी की प्रबुद्ध सभा के अध्यक्ष मनोज पांडेय बैठकों को लेकर रणनीति बनाने के काम में जुट गए हैं। ये सभी नेता प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर प्रेस कॉन्फ्रेन्स करेंगे और अखिलेश सरकार के कार्यकाल में ब्राह्मण समुदाय के लोगों के लिए किए गए काम के बारे में बताएंगे।

तो कुल मिलाकर ब्राह्मण वोटरों को लेकर यूपी में राजनैतिक संग्राम छिड़ गई है। ब्राह्मणों का असली शुभचिंतक कौन है, यह बताने और जताने की होड़ लगी है। खासकर बसपा और सपा ने भी ब्राह्मणों को अपना बनाने के लिए लंबी चौड़ी प्लानिंग कर ली है। सपा की योजना में जल्दी ही लखनऊ में परशुराम की मूर्ति का उद्घाटन होना तय है, जिसके लिए बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी बुलाया जाएगा।

पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी रहेंगे। समाजवादी पार्टी के ब्राह्मण नेता संतोष पांडे और उनकी टीम पिछले साल से ही परशुराम की मूर्ति लगवाने के काम में जुटी है। पार्टी के मुताबिक अयोध्या में भी मूर्ति जल्द बन कर तैयार हो जाएगी। अब जब सपा परशुराम की मूर्ति लगवाने की बात कह रही है तो भला बसपा कैसे पीछे रहे उसने तो सपा की मूर्ति से भी बड़ी मूर्ति लगवाने की बात कह डाली।

इसमें दो राय नहीं कि पिछले साल हुए बिकरू कांड के बाद से ही विभिन्न राजनैतिक दलों ने ब्राह्मण समाज को अपने पाले में करने के लिए कुख्यात बदमाश विकास दुबे के एनकाउंटर की भरसक आलोचना करते हुए योगी सरकार को काफी खरी-खोटी सुनाई थी। विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों के ब्राह्मण समुदाय के नेताओं ने बीजेपी को निशाने पर ले लिया था। कहा गया था कि योगी आदित्यनाथ की सरकार में सैकड़ों निर्दोष ब्राह्मणों की हत्या हुई है और योगी सरकार को ब्राह्मण विरोधी बताने की कोशिश की गयी थी।

इसके बाद भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाने के मामले में बीएसपी और एसपी आमने-सामने आ गए थे। एसपी ने जब एलान किया था कि वह लखनऊ में 108 फुट की और हर जिले में भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाएगी तो मायावती ने तुरंत बयान जारी कर कहा था कि बीएसपी की सरकार बनने पर एसपी से ज़्यादा भव्य भगवान परशुराम की प्रतिमा लगाई जाएंगी।

बहरहाल जैसे बसपा यह मान चुकी है कि उसे अपने चौदह साल पुराने सोशल इंजनियरिंग के फार्मूले की ओर लौटना ही पड़ेगा तब ही वह आगामी विधानसभा चुनाव में कुछ कमाल कर सकती है वैसे ही सपा भी यह मान रही है कि केवल यादव और मुस्लिम वोटों के सहारे भाजपा को हराना आसान नहीं होगा। सपा में कोई प्रमुख ब्राह्मण चेहरा भी नहीं है, जो प्रदेश स्तर पर अपनी पहचान रखता हो। इसी वजह से अखिलेश यादव की सहमति लेकर प्रदेशभर में परशुराम की मूर्तियां लगाने की योजना पर काम किया जा रहा है। कुछ जिलों में परशुराम की मूर्तियां लगाने का काम पूरा हो चुका है। तो बसपा इस प्रचार की ओर बढ़ रही है कि अगर 23 फ़ीसदी दलित और 13 फ़ीसदी ब्राह्मण साथ आ जाएं तो उत्तर प्रदेश में फिर से बीएसपी की सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। मायावती ख़ुद इन ब्राह्मण सम्मेलनों की मॉनीटरिंग कर रही हैं।

उधर सपा, बसपा का ब्राह्मण प्रेम भाजपा को तनिक भी रास नहीं आ रहा। भाजपा यह प्रचार करते नहीं थक रही कि कोई भी पार्टी चाहे जितना भी ब्राह्मण प्रेम दिखलाए उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण समाज पूरी तरह से भाजपा के ही साथ है। तो क्या इसे भाजपा की घबराहट मानी जाए या बौखलाहट यह समय बता ही देगा।

(लेखिका लखनऊ में रहती हैं और एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य कर रही हैं।)

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