लातेहार। केंद्र सरकार ने 2006 में वन-भूमि पर निर्भर समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए अनुसूचित जाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों के लिए वन अधिकारों की मान्यता कानून लाया। जिसको संक्षिप्त में वन अधिकार कानून या FRA (Forest Rights Act) कहते हैं। यह कानून लोगों के वन भूमि के इस्तेमाल को कानूनी मान्यता देता है।
यह कानून वन में रहने वाले समुदायों और आदिवासी आबादी के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है जो भूमि और अन्य वन संसाधनों पर निवास करते हैं जो देश में औपनिवेशिक काल से वन कानूनों की निरंतरता के कारण दशकों से वंचित थे।
यह अधिनियम 29 दिसंबर 2006 को लागू हुआ। यह अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे-जनजातीय विधेयक, जनजातीय अधिकार अधिनियम और जनजातीय भूमि अधिनियम।

इस अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि किसी भी वन अधिकार के धारक, ग्राम सभा और उन क्षेत्रों में ग्राम स्तरीय संस्थाओं को, जहां इस अधिनियम के तहत किसी भी वन अधिकार के धारक हैं, निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन करने का अधिकार दिया गया है।
जैसे- वन, वन्यजीवन और जैव विविधता की सुरक्षा करें। निकटवर्ती जलग्रहण क्षेत्रों, जल आपूर्तियों और अन्य पारिस्थितिक रूप से कमजोर क्षेत्रों के लिए पर्याप्त सुरक्षा की गारंटी। यह सुनिश्चित करना कि अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के आवास में उनकी सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विरासत को प्रभावित करने वाली हानिकारक गतिविधियों से बचा जाए।
सुनिश्चित करें कि सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुंच को नियंत्रित करने तथा जंगली जानवरों, जंगल या जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली किसी भी गतिविधि को रोकने के ग्राम सभा के निर्णयों का पालन किया जाए।

वन अधिकार कानून 2006, अध्याय 3 की उपधारा 4 (5) में स्पष्ट उल्लेख किया गया है – जैसा अन्यथा उपबन्धित है उसके सिवाय, किसी वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजाति या अन्य परम्परागत वन निवासियों का कोई सदस्य उसके अधिभोगाधीन वन भूमि से तब तक बेदखल नहीं किया जायेगा या हटाया नहीं जाएगा जब तक कि मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती है। इसके बावजूद वन विभाग के अधिकारियों द्वारा निरंतर ने इस क़ानूनी धारा का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन किया जाता रहा है।
उल्लेखनीय है कि एक तरफ झारखंड सरकार पिछले 1 वर्ष से अबुआ बीर दिशुम अभियान के तहत ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन अधिकार व सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन का अधिकार का पट्टा निर्गत करने की बात करती रही है। वहीं राज्य के नौकरशाह विशेषकर वन विभाग के कोई भी अधिकारी अपनी औपनिवेशिक जमींदारी मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं हैं। विभाग ऐतिहासिक कालों से जंगलों के आस – पास निवास करने वाले निवासियों खासकर आदिवासियों पर जुल्म करता रहा है।
इसका ताजा उदाहरण लातेहार जिले के गारू प्रखण्ड कारवाई गांव का है। जहां ग्रास प्लॉट निर्माण के नाम पर विगत 22 अगस्त को वन विभाग वगैर ग्राम सभा की सहमति ग्रामीणों के पारंपरिक अधिकार क्षेत्र के वन में हरातू गांव के मजदूरों को लाकर घेरान कार्य (घेराबंदी) करा रहा था। ग्राम सभा कारवाई ने वन विभाग के इस योजना का तीव्र विरोध करते हुए मजदूरों द्वारा लगाए गए घेरान कार्य को उखाड़ फेंका।
उसके बाद वन विभाग द्वारा 5 ग्रामीणों पर 40 बण्डल घेरान तार चोरी का आरोप लगाकर गारू थाना में फर्जी केस दर्ज करने हेतु आवेदन दिया गया है, ऐसा ग्रामीणों का दावा है। मतलब साफ है कि वन विभाग ग्राम सभा के इस विरोध को पचा नहीं पाया और 5 ग्रामीणों को फर्जी मामले फंसाने कोशिश कर रहा है।
वन विभाग के इस कदम से ग्रामीण अत्यधिक आक्रोशित हैं और इसके विरोध में 24 अगस्त को ग्राम कारवाई, दलदलिया और अरमू गांव के सैकड़ों महिला, पुरुष अपने बाल बच्चों सहित पलामू टाइगर प्रोजेक्ट, गारू पूर्वी रेंज कार्यालय का 3 घंटे तक घेरे रखा। ग्रामीण रेंज ऑफिसर से सामूहिक वार्ता करने की बात पर अड़े थे। लेकिन वन कर्मियों ने ग्रामीणों के आक्रोश को देखते हुए रेंज कार्यालय का मुख्य गेट बंद कर दिया था। इस बीच रेंज ऑफिसर ने गारु थाने के दारोगा को फोन कर बुलवा लिया।
ग्रामीणों के अनुसार दोनों अधिकारियों ने अंदर कुछ आपसी बात-चीत की। फिर दारोगा ने ग्रामीणों से आग्रह किया कि “आप में से 5 लोग वार्ता के लिए अंदर जा सकते हैं।” लेकिन ग्रामीण इस बात पर अड़े रहे कि वार्ता जब भी होगी सामूहिक और खुली जगह में होगी। यदि रेंज अधिकारी को ग्रामीणों से कोई भय है तो वे गेट के पास आयें, वे उस पार रहेंगे और हम ग्रामीण इस पार से ही अपनी बात रखेंगे। लेकिन रेंज अधिकारी इसके लिए तैयार नहीं हुए। ग्रामीण गेट पर ही 3 घंटे तक बैठे रहे।
उसके बाद जब ग्रामीण वापस जाने लगे तो अंदर से रेंज अधिकारी ने जोर देकर कहा कि अंदर दरी बिछवा दी गई है ग्रामीण आयें हम बातचीत को तैयार हैं। लेकिन तब तक ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट चुका था। वे 3 घंटे की समय बर्बादी को लेकर बेहद नाराज थे। ग्रामीणों ने रेंज अधिकारी की अपील की एक न सुनी और वापस गांव लौट गए और देर शाम तक ग्राम सभा की बैठक कर एक स्वर में प्रस्ताव पारित किया गया कि “हम किसी भी सूरत में ग्रास प्लॉट नहीं लगने देंगे। वन विभाग के इस जुल्म का डटकर मुकाबला करेंगे। फर्जी केस का सामना हम ग्राम सभा के लोग मिलकर करेंगे। हम सब एकताबद्ध रूप से आस-पास के सभी गांव अपने पारंपरिक अधिकारों के लिए सामूहिक लड़ाई लड़ेंगे।”
विदित हो कि वन विभाग ने इसके पूर्व भी 12-13 मार्च 2024 को भी कारवाई गांव के पड़ोसी ग्राम सभा दलदलिया के पारंपरिक अधिकार क्षेत्र में वन रोपण के नाम पर झाड़ियों की सफाई व पीट (जंगल के किनारे- किनारे गढ्ढा) खोदने का कार्य प्रारंभ कर रहा था, इस कार्य का भी दलदलिया ग्राम सभा ने तीव्र विरोध करते हुए मजदूरों को और वन विभाग के कर्मियों को कार्य स्थल से खदेड़ दिया था।
बताते चलें कि ग्राम सभा कारवाई ने वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अनुमंडल स्तरीय समिति को सामुदायिक दावा पत्र हेतु सभी प्रक्रियाएं पूरी करते हुए दावा पत्र पेश कर दिया है। उसकी पावती भी ग्राम सभा के पास मौजूद है।
वन कानून अधिकार के धारा 3 (1) ख- निस्तार के तहत गांव के परंपरागत वन सीमा में जो भी वन संसाधन हैं वह गांव की सामुदायिक संपदा है। जंगल समुदाय का सदियों से जंगल पर जो परंपरागत अधिकार अर्थात जंगल को उपयोग में लाने का हक रहा है वे सारे सामुदायिक वन अधिकार के रूप में मंजूर हैं। इसके अंतर्गत जंगल से भर बनाने, हल-जुआट या कृषि औजार, जलावन लकड़ी, और मवेशियों को जंगल में चराने या जंगल से चारा लाने इत्यादि का हक है, चाहे वह संरक्षित वन या आरक्षित वन हो। ये अधिकार राज्य के भू-राजस्व कानून या खतियान पार्ट 2 में भी दर्ज है।
धारा 3 (1) ग- लघु वनोपज या गैर-लकड़ी वनोपज पर अधिकार- इसके तहत टिम्बर या पेड़ को छोड़कर जंगल से मिलने वाले सभी प्रकार के वन उपज को संग्रह कर उपयोग में लाने और बेचने का अधिकार है। इसके अंतर्गत गैर – काष्ठ, झाड -झंखाड़, बांस, बेंत, केंदु, बीड़ी पत्ता, लाह और मधू यानि शहद सहित सभी प्रकार के कन्द-मूल और फल – फूल शामिल हैं।
धारा 3 (1) घ- के तहत जंगल के सभी प्रकार के जल, स्रोतों, जैसे नदी, नाले, झरने, तालाब, बांध इत्यादि से मछली, केंकड़े इत्यादि भी पकड़ने का अधिकार है।
धारा 3 (1) ज – पुराने आवासों, सर्वेक्षित/ असर्वेक्षित सभी वन ग्रामों को राजस्व ग्राम का दर्जा का अधिकार है।
धारा 3 (1) झ- सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण एवं प्रबंधन का अधिकार – इसके तहत गांव की अपनी परंपरागत सीमा में स्थित वन संसाधनों के संरक्षण, संवर्द्धन, पुनर्जीवन और प्रबंधन का अधिकार ग्राम सभा को है।
धारा 3 (1) ट- जैव विविधता तथा बौद्धिक संपदा और पारंपरिक ज्ञान तक पहुंच का अधिकार – इसके तहत जंगल से सभी प्रकार की जड़ी – बूटी लाने एवं उपयोग का अधिकार है। जड़ी बूटी से दवा बनाने और बेचने का भी हक है।
धारा 3 (1) ठ – जंगल पर अन्य पारंपरिक अधिकार- अपने गांव के जंगल सीमा के अंदर सांस्कृतिक, धार्मिक पूजा-पाठ या देवी-देवताओं के स्थल पर परंपरागत अधिकार है। लेकिन जंगल में शिकार करने या वन्य जीव को मारने का हक नहीं है।
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)
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