Friday, April 26, 2024

आजाद भारत का ‘जलियांवाला बाग’ खरसावां शहीद स्थल को पिकनिक स्पॉट बना रही झारखंड सरकार

आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद ही पहली जनवरी 1948 में खरसावां हाट बाजारटांड़ में पुलिस फायरिंग में हजारों लोग मारे गए थे। जिसे आजाद भारत का जलियांवाला बाग हत्याकांड की संज्ञा दी गई है। कितने लोग उस गोली कांड में शहीद हुए थे, यह आज भी रहस्य बना हुआ है। पूरे मामले को दबाने का प्रयास किया गया था। मृतकों की संख्या को कम से कम दिखाने की व्यवस्था की गयी थी, अब तक यह दावा किया जाता रहा है कि हजारों आदिवासी ओडिशा पुलिस की गोली से शिकार हुए थे। लाशों को ट्रकों पर लादकर दूर-दराज के जंगलों में फेंक दिया गया था।

आज जहां शहीद स्थल बना हुआ है, पहले वहां एक कुंआ हुआ करता था। पुलिस फायरिंग में मारे गये आदिवासियों के शवों को ओडिशा पुलिस ने पहले उस कुंआ में डाला था, जब कुआं शवों से भर गया, तब जाकर लाशों को अन्यत्र ठिकाने लगाया गया। इसी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस गोलीकांड में कितने लोग शहीद हुए होंगे। एक तरफ जहां पूरी दुनिया पहली जनवरी को नए वर्ष का जश्न मनाती है, वहीं झारखंड के खरसावां का आदिवासी समुदाय एक जनवरी को ‘काला दिवस’ के रूप में मनाता है। हर साल एक जनवरी को खरसावां के शहीद स्थल पर शहीदों को याद किया जाता है और श्रद्धासुमन अर्पित की जाती है।

लेकिन पिछले कुछ सालों से क्षेत्र पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ इस शहीद स्मारक स्थल पर राजनीतिक हस्तक्षेप का भी प्रभाव बढ़ा है जिसके कारण शहीद स्थल अपने मौलिक उद्देश्य से विलग हो रहा है। पिछले वर्ष 1 जनवरी 2022 को यहां शहीद स्थल पर श्रद्धांजलि देने के क्रम में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसे विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा के साथ 16 करोड़ के बजट की भी घोषणा की थी। लोगों का मानना है कि पर्यटन स्थल बनने के बाद सम्भवतः शहीद स्मारक स्थल अपना मौलिक अस्तित्व खो देगा और यह मनोरंजन का केंद्र बन कर रह जाएगा। बावजूद इसका कोई विरोध नहीं कर पा रहा है।

वहीं दूसरी तरफ राज्य के गिरिडीह जिला अंतर्गत मधुबन स्थित पारसनाथ पर्वत पर अवस्थित जैन समाज का विश्वस्तरीय तीर्थस्थल श्री सम्मेद शिखर जी को पर्यटन स्थल घोषित करने के खिलाफ जैन समुदाय आंदोलित है। इसे लेकर 1 जनवरी 2022 को दिल्ली के इंडिया गेट के समक्ष जैन समुदाय के लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। जैन समाज ने झारखंड सरकार से फैसला वापस लेने की मांग की है।

बता दें कि जैन समाज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल सम्मेद शिखरजी को झारखंड सरकार और केंद्र सरकार द्वारा पर्यटन स्थल घोषित किया गया जिसे लेकर जैन समाज के कुछ लोग विरोध कर रहे हैं और इसे लेकर देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शन भी करवा रहे हैं। जैन समाज के इन लोगों का मानना है कि ऐसा होने से तीर्थस्थल का मौलिकता समाप्त हो जाएगी।

वहीं यह बताना जरूरी हो जाता है कि पारसनाथ पहाड़ के आसपास आदिवासियों के साथ-साथ कुछ दलित व पिछड़ी जातियां बसती हैं और इनकी रोजी रोटी का केंद्र पारसनाथ पहाड़ पर अवस्थित जैन धर्म स्थल हैं। क्योंकि जब जैन धर्मावलम्बी लोग यहां आते हैं तो यही लोग डोली मजदूर के रूप में उन्हें डोली में बिठाकर 9 किमी की ऊंचाई पर ले जाते हैं और 9 किमी की परिक्रमा भी कराते हैं। ऊपर से नीचे उतारने की दूरी भी 9 किमी हो जाती है, यानी पूरे 27 किमी का सफर तय करवाते हैं। इस काम में लगभग 15 हजार लोगों की जीविका जुड़ी है। क्योंकि डोली मजदूर के अलावा पर्वत शिखर पर कुछ लोगों ने छोटे छोटे होटल भी खोल रखा है।

वहीं पर्वत की सतह पर जैन गुरुओं ने कई मंदिर बना रखा है, जिससे उन्हें दान की एक बड़ी रकम हासिल हो जाती है। वहीं उनके लोगों ने कई धर्मशाला खोल रहा है जिसमें जैन धर्मावलम्बियों की ठहरने की सुविधा है, जिससे भी अच्छी कमाई हो जाती है। जाहिर सरकार द्वारा पर्यटन स्थल बना देने के बाद इन सारी चीजों पर सरकार का कब्जा हो जाएगा, जिससे इनकी कमाई का श्रोत बंद हो जाएगा। संभवतः इसी कारण जैन समुदाय के कुछ खास लोग विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ इस पर्वत को संथाल समुदाय मराङ बुरू मानता है और इसकी पूजा करता है। यह पर्वत माला आदिकाल से संथाल समाज की आस्था से जुड़ा बताया जाता है।

जबकि खरसावां के शहीद स्थल को पर्यटन स्थल की घोषणा पर आदिवासी समाज में कोई हलचल नहीं देखी जा रही है, जिसकी वजह शहीद स्थल को लेकर राजनीतिकरण बताया जा रहा है। पिछले 1 जनवरी 2017 को यहां राजनीतिकरण का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि देने का केवल विरोध ही नहीं हुआ बल्कि उन पर जूते-चप्पल भी फेंके गये।

विस्थापित मुक्ति वाहिनी के एक कार्यकर्ता घनश्याम कहते हैं शहीद स्थल राजनीतिकरण का शिकार हो रहा है, जिसके कारण आने वाले दिनों में संभव है शहीद स्थल पूरी तरह पिकनिक स्पॉट व मनोरंजन का केंद्र न बन जाए। वैसे काफी समय से यह स्थिति देखने को मिल रही ही है। नयी पीढ़ी शहीद स्थल को मनोरंजन का केंद्र समझने लगी है। जिससे बुजुर्गों को काफी दुख हो रहा है। वे कहते हैं कि वैसे तो दूर दराज के लोगों में शहीद स्थल को लेकर आज भी सम्मान की दृष्टि देखने को मिलती है। जबकि आसपास के युवा पीढ़ी इसे पिकनिक स्पॉट बनाने लगी है। कुछ लोग ही हैं जो यहां शहादत की परम्परा को निभा रहे है। वहीं यहां राजनीति के प्रवेश से स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है।

आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान के केन्द्रीय अध्यक्ष दामोदर सिंह हांसदा की माने तो पहले शहीद स्थल के आसपास के गांव के लोग खासकर नौजवान एक जनवरी को यहां केवल पिकनिक मनाने और मनोरंजन करने के उद्देश्य से आते थे। डीजे बजाना और उसके धुन पर डांस करना ही उनका मकसद होता था। यह प्रक्रिया लगभग पिछले दो दशक से चल रही थी। ऐसे में संस्थान की तरफ हमलोगों द्वारा इस तरह की हरकत का विरोध किया जाता रहा, कमोबेश पिकनिक वाला मनोरंजन और गैर आदिवासी संस्कृति पर बैन तो लगा है, लेकिन डीजे के प्रभाव को नहीं रोका जा सका है।

दूसरी तरफ शहीद स्थल के बगल में स्थित नदी को युवा वर्ग आज भी पिकनिक स्पॉट बनाकर रखा है। दूरदराज के लोग भले ही शहीद स्थल को काला दिवस के रूप में देखते हैं लेकिन कई स्थानीय लोग मनोरंजन का दृष्टिकोण अपनाए हुए है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। वे बताते हैं कि स्थानीय विधायक दशरथ गागराई के पहल पर सरकारी स्तर से शहीद स्मारक समिति बनी है जो शहीद स्मारक स्थल की देखभाल व रखरखाव करती है। पिछले साल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शहीद स्मारक स्थल को विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की और 16 करोड़ का फंड भी देने को घोषित किया।

यह पूछे जाने पर कि अगर शहीद स्थल को पर्यटन स्थल बनाने पर यह मनोरंजन का केंद्र नहीं बन जाएगा? दामोदर कहते हैं कि समिति की पूरी कोशिश होगी कि ऐसी स्थिति पैदा नहीं हो। वे आगे कहते हैं कि आज से 17-18 साल पहले यहां लोग मनोरंजन ही किया करते थे, लेकिन हमलोगों ने आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान नामक संस्था के माध्यम से इस पर रोक लगाने की कोशिश की, तब जाकर अभी थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। संभव है स्मारक समिति के पहल पर इस तरह की स्थितियों पर प्रतिबंध लगे। वहीं दूसरी तरफ वे यह भी कहते हैं कि यह भी सच है कि शहीद स्थल राजनीतिकरण का शिकार हुआ है। 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास का विरोध हुआ था और उनपर जूता चप्पल भी चला था जो दुर्भाग्यपूर्ण है, ऐसा नहीं होना चाहिए था।

शिवचरण हांसदा कहते हैं कि पर्यटन स्थल बनने से जाहिर है यहां केवल एक जनवरी काला दिवस का ही महत्व नहीं रह पाएगा जबकि धीरे धीरे एक जनवरी सामान्य दिनों में शामिल हो जाएगा। वैसे अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई है लेकिन इतना तो देखने को जरूर मिल रहा है कि जहां एक तरफ एक जनवरी को काला दिवस मनाया जाता है वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग पिकनिक के तौर पर भी इस दिन मनोरंजन करते हैं जो काफी दुखद है, एक तरह यह शहीदों का अपमान है।

खरसावां गोलीकांड के बारे में बता दें कि गोलीकांड में घायल हुए कुछ लोगों में जो लोग कुछ साल पहले तक जीवित थे। वे बस इतना ही बता पाये थे कि चारो ओर जहां तक नजर दौड़ती थी, लाश ही लाश नजर आती थी। शहीदों की संख्या के बारे में जो बहुत कम दस्तावेज उपलब्ध है। पी. के. देव (पूर्व सांसद व महाराजा, विपक्ष के नेता) द्वारा लिखित पुस्तक “मेमोरीज ऑफ एन बाइगोन एरा” में इस बात का उल्लेख है कि खरसावां का ओडिशा में विलय का विरोध करने वाले आदिवासियों पर ओडिशा मिलिट्री ने फायरिंग की थी, जिसमें 2000 से ज्यादा आदिवासी मारे गये थे। लेकिन ओडिशा की तत्कालीन सरकार ने पुलिस फायरिंग में सिर्फ 35 आदिवासियों के मरने की पुष्टि की थी। इसकी रिपोर्ट कोलकाता से प्रकाशित अंगरेजी दैनिक द स्टेट्समैन में 3 जनवरी, 1948 के अंक में छपी थी। जाहिर है ऐसे में शहीदों की संख्या को कमतर दिखाया गया। इस गोलीकांड की जांच के लिए ट्रिब्यूनल का गठन किया गया था। उसकी रिपोर्ट कहां गयी? आजतक पता नहीं चल पाया है।

बता दें कि खरसावां का यह क्षेत्र के विलय प्रक्रिया के अनुसार 1 जनवरी 1948 को ओडिशा को सत्ता सौंपना था। अतः इस विलय के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया। जयपाल सिंह मुंडा ने ओडिशा में विलय का विरोध किया था। वे बिहार के साथ जाना चाहते थे। वे जानते थे कि बिहार के हिस्से को काटकर झारखंड राज्य बनाने की मांग जो चल रही है वह आज नहीं तो कल पूरी होगी ही। लेकिन अगर सरायकेला और खरसावां का ओडिशा में विलय हो जाता है तो बाद में किसी भी हालत में उसे अलग झारखंड राज्य में शमिल नहीं किया जा सकता है।

बिहार के सारे नेता भी आदिवासियों की मांग से सहमत थे कि सरायकेला-खरसावां को बिहार में ही रहना चाहिए। जयपाल सिंह और अन्य नेताओं ने 1 जनवरी 1948 को पावर का हस्ताक्षर होने का विरोध करने का निर्णय लिया था। इसी को लेकर उन्होंने अपील की गयी थी कि विलय का विरोध करने के लिए सभी खरसांवा पहुंचे। जयपाल सिंह के आह्वान पर 50 हजार से ज्यादा लोग पारंपरिक हथियारों के साथ खरसावां पहुंचे थे। झारखंड के आदिवासी किसी भी कीमत पर ओडिशा में विलय नहीं चाहते थे। अंततः दोपहर में हल्की झड़प शुरू हो गयी। ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी, मशीनगन से फायरिंग की गयी, दो हजार से ज्यादा से लोग मारे गये, चारों ओर लाशें पड़ी थीं। प्रत्यक्षदर्शी ने बताया था उसके अनुसार जैसे ही फायरिंग शुरू हुई कुछ तो लेट गये ताकि गोली नहीं लगे वे ही बच गये, बाकी मारे गये। कौन लेटा हुआ था, कौन मारा गया था, इसकी पहचान करना मुश्किल था।

राज परिवार का कहना था कि जिस समय गोली चली, वे लोग अपने महल में थे और जब राजा ने बाहर निकलने का प्रयास किया तो ओडिशा पुलिस ने रोक दिया और नहीं जाने दिया। बताना जरूरी होगा कि इस क्षेत्र को ओडिशा राज्य में मिलाने के लिए ओडिशा के मुख्यमंत्री विजय पाणी काफी आतुर थे। क्योंकि सिंहभूम का खरसावां व सरायकेला का क्षेत्र पहाड़ों और जंगलों से घिरा था, जो खनिज संपदाओं से भरपूर था, जिसकी जानकारी ओडिशा के मुख्यमंत्री विजय पाणी को थी। इसी मोह के वशिभूत हो ओडिशा के मुख्यमंत्री क्रूरता की हद पार कर दी। गोलीकांड के बाद पूरे देश में हंगामा हुआ।

आजादी के बाद यह देश का सबसे बड़ा गोलीकांड था, विलय के विरोध में यह घटना घटी, इसलिए सरकार भी इस मामले को दबाना चाहती थी ताकि दूसरे जगहों पर हिंसा की घटना नहीं घटे। जांच के लिए ट्रिब्यूनल बना लेकिन उसकी रिपोर्ट कहां गयी, पता नहीं चला। इस घटना के बाद एक तरह से ओड़िसा की पुलिस ने खरसावां को खाली कर दिया था। लोगों में पुलिस के प्रति काफी आक्रोश था। इस घटना के कुछ माह बाद ही ओडिशा के तमाम विरोध के बावजूद सरायकेला, खरसावां को बिहार में शामिल कर लिया गया और जब बिहार का विभाजन हुआ तो वह स्वतः झारखंड में आ गया। इस तरह हजारों गुमनाम आंदोलनकारियों की शहादत के बाद आज सरायकेला, खरसावां झारखंड में है। हर साल झारखंडी जनता 1 जनवरी को अपने शहीदों को नमन करते हैं और इस दिन को काला दिवस के रूप में मनाते हैं।

घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया, जिसका आदिवासी समाज में बहुत भावनात्मक व अहम स्थान है। खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है। एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है। लोग श्रद्धांजलि देते हैं। फूल-माला के साथ चावल का बना रस्सी (खीर) चढ़ा कर पूजा की जाती है। शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता है। लेकिन कुछ दिनों से यह स्थल पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित होता जा रहा है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट)

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