सागर। पृथ्वी पर जीवन जीने के लिए मूल आधार रोटी, कपड़ा और मकान है। हमारे देश में संसाधनहीनता के शिकार लोग रोटी और कपड़ा जुटा लेते हैं। मगर, रहने के लिए पक्का घर हासिल करना उनके लिए किसी सपने से कम नहीं। ऐसे में बेघर और कच्चे घर में रहने वाले गरीब लोगों के लिए पूर्ण अनुदान वाली प्रधानमंत्री आवास योजना की आधारशिला रखी गयी। वर्ष 2014 से पीएम आवास योजना ग्रामीण स्तर पर अस्तित्व में आयी।
तब से देश के विभिन्न राज्यों में बेघर और कच्चे घर वाले लोगों को आवास योजना का लाभ दिया जा रहा है। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि जिन लोगों के पक्के घर हैं उन्हें भी बड़े पैमाने पर आवास योजना से लाभान्वित किया गया है। इस स्थिति में ग्रामीण स्तर पर कई गांवों में बेघर और कच्चे घर वाले लोग आवास योजना से वंचित रह गये हैं।
ऐसी ही दशा मध्यप्रदेश के सागर जिले में सुरखी थाना क्षेत्र और उससे सटे कुछ गांव की है। पीएम आवास योजना की जमीनी हकीकत जानने के लिए हमने सुरखी थाना और उससे सटे कुछ गांव का दौरा किया।
जब हम सागर से करीब 30 किलोमीटर दूर सुरखी थाना पहुंचे। तब सुरखी थाना में बाजार से सटी एक बस्ती हमें नजर आती है। इस बस्ती में लगभग 80 से 120 कच्चे घर और झोपड़ियां होंगी। बस्ती में पक्की सड़क, नाली, स्वच्छ पानी, जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव दिखता है। बस्ती में दलित-आदिवासी सहित अन्य समुदाय के लोग सालों से निवास करते आ रहे हैं। हमने इन लोगों के बदहाल निवास की हालत देखकर आवास योजना पर बातचीत की।
तब रामकली रैकवार बताती है कि, “मेरे पति का देहांत हो चुका है। बच्चों ने मुझे अकेला छोड़ दिया है। मेरा कच्चा घर था, जिसमें मैं रहती थी। वह घर भी गिर गया है। अब लकड़ी और पॉलिथीन के सहारे बनी झोपड़ी में रहती हूं। खुद का पेट भरने के लिए मैं दूसरे के घर बर्तन साफ करने जाती हूं। सरकार पर भरोसा था वह मुझे कुटी देगी। पर अब तक नहीं मिली। लगता है, पक्का घर ना होने का दर्द मुझे जिन्दगी भर खलता रहेगा।”
पूजा रैकवार कहती हैं कि, “मैं शादीशुदा हूं। पर मेरे पास घर नहीं है। ना ही मुझे आवास योजना का लाभ मिल रहा है। 7 साल से मैं अपने माता-पिता के कच्चे घर में रह रही हूं। जब वर्षा होती है, तब घर में पानी भर जाता है। मच्छर इतना है कि, दवा तक का असर नहीं होता। मेरी दो छोटी-छोटी बेटियां हैं, जो मच्छर के काटने से बीमार होती रहती हैं। मैं अपनी बेटियों को पढ़ाना-लिखाना चाहती हूं। पर वक्त ने हमें लाचार कर रखा है। चिंतित हूं कि मेरी तरह मेरी बच्चियों का भी भविष्य बर्बाद ना हो जाए।”
भानवति और नरेंद्र आदिवासी हमें बिना दरवाजे के कच्चे घर में बैठे दिखाई देते हैं। उनका घर करीब पांच फीट ऊंचा होगा। हमारे साथ हुयी बातचीत में भानवति बताती है कि, “मेरे पति नरेंद्र पैर से विकलांग है। मगर, उन्हें ना तो साइकिल मिली है और ना कोई आर्थिक सहायता। मैं यहां-वहां मजदूरी करती हूं। जिससे हमारा पेट भरता है। हालत बहुत खराब है, फिर भी आवास योजना का लाभ नहीं मिल सका।”
नरेंद्र का कहना है कि, “हम तीन भाई हैं। सब कच्चे घर में रहते हैं। हम में से किसी एक को भी आवास योजना का लाभ नहीं मिला।”
आगे हमें जयंती बाई अपनी टपरी पर कुरकुरे टांगें दिखती है। वह अपना दर्द सुनाते हुए कहतीं हैं कि, “हमारे पास रहने के लिए एक जर्जर झोपड़ी है। आवास योजना के तहत झोपड़ी को पक्का घर बनते देखना चाहती थी। मगर, लगता है उम्र झोपड़ी में ही बीत जायेगी।”
आगे जयंती बोलती हैं कि, “मेरे पति को बिजली का झटका लग गया था। तब से उनका शरीर काम नहीं करता। मेरे पति चल-फिर नहीं पाते। बस एक जगह बैठ सकते हैं। मैं कुरकुरे, माचिस, चाकलेट बेचकर खुद का और पति का पेट भर रही हूं। कोई ढंग का रोजगार भी नहीं है हमारे पास।”
आगे हमें रामरानी आदिवासी मिलती है। वह कहती हैं कि, “हमारा परिवार यहां 40-50 साल से कच्चे घर में निवास करता आ रहा हैं। इतने वर्ष झोपड़ी में रहने के बाद अब हमें आवास योजना का लाभ दिया जा रहा है। मगर, आवास योजना का काम लटका पड़ा है। हम 12 महिलाएं हैं, जिन्हें आवास का लाभ दिया जा रहा है। हम सब के पीएम आवास की दीवारें बस पूरी हुयीं। मगर, कुटी की छत नहीं ढली है। इस स्थिति को महीनों गुजर गये हैं।”
“अब हमें बताया जा रहा है कि, यह 12 आवास गिराए जायेगें क्योंकि, इस आवासों की जगह पर स्कूल बनाया जाना है। अब हमें समझ नहीं आ रहा है कि हम करें तो क्या करें?”
रामरानी की ननद मथुराबाई आदिवासी बताती है कि, “मेरी कुटी आधी ही बन पायी है। जिसे अब स्कूल बनाने के लिए मिटाया जाना है। पहले मैं एक टपरी बनाकर रहती थी। कुछ दिन पहले जब तूफान आया तब मेरी टपरी धराशायी हो गयी। टपरी मिटने के बाद से मैं अपने भाई और भाभी के घर पर रह रही हूं। मेरी उम्र काफी हो चुकी है कभी-कभी लगता है कि, पीएम आवास बनने से पहले ही मैं गुजर ना जाऊं।”
आगे हम देखते हैं कि, रामस्वरूप अपने घर के बर्तन मांझ रहे हैं। जब हम उनके पास पहुंचते हैं तब आवास योजना पर रामस्वरूप कहते हैं कि “आवास योजना के तहत आधी ही कुटी बन पायी। आवास के लिए 2 लाख 50 हजार रुपए मिलना था। मगर, 1 लाख रुपए मिला है। 11 माह से कुटी की किस्त नहीं आयी है। कुटी की दो किस्त और बाकी रह गयी हैं। इस बीच हमें कहा गया है कि, आपकी अधबनी कुटी स्कूल बनाने के लिए कुर्बान की जायेगी।”
रामस्वरूप के पास मौजूद राजेश आदिवासी बयां करते हैं कि “मैं झुग्गी में सालों से रह रहा हूं। मुझे आवास योजना का फार्म भरे 8-9 माह हो चुके। अब तक आवास आया नहीं है। वहीं, पहले से बने आवास को मिटाया जाना है। ऐसे मैं मुझे आवास मिलेगा भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। आवास योजना के नाम पर हम लोग असमंजस में हैं।”
आगे हम सुरखी थाना से निकलकर अपने पैरों का रुख मोकलपुर गांव की तरफ करते हैं। सुरखी से मोकलपुर गांव (आबादी लगभग 4000 से अधिक) करीब 7 किलोमीटर दूरी पर है। मोकलपुर विकास के नजरिए से ठीक-ठाक गांव नजर आता है। मगर, यहां भी कई जरूरतमंदों के कच्चे घरों और झोपड़ियों की तस्वीर नहीं बदली है।
मोकलपुर में कुछ लोगों से जब हमारी आवास योजना पर चर्चा होती है, तब महेश पटेल अपना दुख सुनाते हुए कहते हैं कि, “मैं 20 साल से यहां कच्चे घर में रह रहा हूं। मेरे 6 भाई हैं। उनके घरों की स्थिति भी खस्ता है। पर हम में से किसी को भी आवास योजना का अब तक लाभ नहीं मिला। हमारे घर की स्थिति सरपंच-सचिव सबके सामने है। मगर, सरपंच-सचिव की तरफ से बस आश्वासन मिलता है कि, आपको आवास योजना का लाभ दिया जाएगा। पर आवास का लाभ दिया नहीं गया।”
आगे मायाबाई बताती है कि, “सरपंच-सचिव से हम आवास योजना की गुहार लगाते रहे हैं। हमने आवास योजना का फॉर्म भी भरा है। मगर अब तक आवास मिला नहीं है। हमें गैस सिलेंडर, शौचालय योजना तक का भी लाभ नहीं मिला।”
हम आगे कदम बढ़ाते हैं तब हमें यशोदा आदिवासी का कच्चा घर मिलता है। उनके घर पर सोने के लिए लकड़ी और घास-फूस का एक तंबू भी बना है। यशोदा हमें बताती है कि, “हम 30 से 35 साल से कच्चे घर में रह रहे हैं। लड़का-लड़की की भी शादी कर चुके है। मगर अब तक हम आवास योजना से लाभान्वित नहीं हुए। बरसात के दिनों में घर के अंदर की जमीन गीली हो जाती है। जमीन से पानी रिसने लगता है। ऐसे में हमें उठने-बैठने और सोने में बहुत परेशानी होती है।”
इसके बाद हम मोकलपुर गांव की मुख्य सड़क की ओर जाते हैं तब हमें आनंद रानी कुल्हाड़ी से लकड़ी फाड़ते हुए दिखती हैं। आनन्द रानी के कच्चे घर की हालत यह है कि, घर पर पोता गया कलर उड़ चुका है। दीवारों से निकलती मिट्टी दिखाई दे रही है। आनंद रानी अपने हालात बयां करते हुए कहतीं हैं कि, “हमारे परिवार में हम पति- पत्नी और हमारे 07 बच्चे हैं। जिनमें चार लड़की और तीन लड़के हैं। हमारे पास रहने के लिए एक कच्चा कमरा और लकड़ी से बनी दहलान है। बरसात के दिनों में हमें यहां सिकुड़-सिकुड़ कर रहना पड़ता है। एक उम्मीद थी की आवास का लाभ मिल जाएगा, तब थोडा़ सुकून मिलेगा। मगर, आवास योजना की हमें आवाज ही सुनाई दी। आवास योजना हम गरीबों तक नहीं पहुंची।”
आगे सड़क पर मिलते हैं हमें महिंद्र। वह बताते हैं कि, “मैं एक मजदूर हूं। मैंने कच्चे घर में रहते हुए, पक्का घर पाने लिए आवास योजना का कई बार फॉर्म भरा है। मगर, यह सुनते-सुनते मेरे कान पक गये कि, आपकी कुटी बन जाएगी। पर अब तक बनी नहीं।”
महेंद्र आगे कहते हैं कि, “हमारे कच्चे घर की खराब हालत देखकर कोई अच्छा व्यक्ति हमारी बेटी के साथ विवाह करने को राजी नहीं होता था। तब हमने 200000 रुपए का कर्ज लेकर पक्का घर बनवाया। इसके बाद मेरी बेटी की शादी हुई। अब इस चिंता में डूबा हूं कि, मजदूरी के बलबूते 200000 रुपए का कर्ज कैसे चुकाऊ?”
आगे वे कहते हैं कि, “हम पांच भाई है। जिनमें सभी के कच्चे मकान बने हैं। पांच भाई में से केवल एक को आवास योजना का लाभ मिला है। बाकी चार आवास योजना से वंचित हैं।”
मोकलपुर गांव में कच्चे घरों और आवास योजना की स्थिति देखकर हम हफसिली गांव की ओर निकल पड़ते हैं। मोकलपुर और हफसिली की दूरी करीब 3 किमी है। हफसिली गांव पहुंचने पर हमें गांव की पहली झुग्गी मिलती है। इस झुग्गी में कृष्णा विश्वकर्मा रहती हैं। जो पैर से विकलांग हैं। आवास योजना पर बात करते हुए वह कहती हैं कि, “मेरी राशन पर्ची तक नहीं बनी है। आवास तो छोड़िये। कई साल से लकड़ी की झोपड़ी बनाकर निवास कर रही हूं। रोटी और कपड़ा तो हम हासिल कर पा रहे हैं। मगर्, घर बनवाना हमारे लिए एक सपना बनकर रह गया है। यदि हमें आवास मिल जाता है तो हम सरकार के शुक्रगुजार रहेंगे।”
आगे रास्ते में हमें गणेश लोहार मिलते हैं। उनसे जब हम आवास योजना का जिक्र करते हैं तब वह हमें अपने घर ले जाते हैं। जहां उनका एक कच्चा कमरा और एक अध बना पक्का कमरा हमें मिलता है।
गणेश लोहार बताते हैं कि, “कुटी के लिए दो साल से कागज जमा है। मगर, पता नहीं कागजों की स्थिति क्या है? ऐसे में जब मुझे आवास योजना पर विश्वास नहीं रहा, तब मैंने अपनी मेहनत से जैसे-तैसे कमरे की आधी दीवार उठवाई है।
मेरे पास अभी इतना पैसा नहीं कि, कमरे की पूरी दीवार उठा सकूं और छत डलवा सकूं। कम से कम दो साल काम करूंगा। तब मुझे पक्का कमरा नसीब होगा।”
आगे गणेश बताते हैं कि, “गांव में मुझ जैसे बहुत से लोगों के कच्चे घर बने हैं। वहीं, कुछ लोगों को आवास योजना का लाभ मिल भी गया है।”
गणेश के पास में निवास करते अमर सिंह के कच्चे घर की हालत किरकिरा हो गयी है। दीवारों में लंबी-लंबी दरारें पड़ी हैं। अमर सिंह बताते हैं कि, “वर्ष 2011 की आवास योजना लिस्ट में मेरा भी नाम था। तब से अब तक केवल आवास के लिए इंतजार करता आ रहा हूं।”
अमर सिंह के घर से कुछ दूर बना है माखन का घर। माखन हमें आवास योजना के तहत बने पक्के घर की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि, “हमको पीएम आवास तो मिला, पर आवास पूरा नहीं बनवाया गया। दीवारों का पलस्तर रह गया था। छत का लेंटर रह गया था। यह सब कर्ज लेकर करवाया है।”
गांव की एक संकरी कच्ची गली से हमें आगे बढ़ते हैं, तब हमें गरीबदास मिलते हैं। गरीबदास का नाम उनकी स्थिति पर ठीक बैठता है।
गरीबदास बोलते हैं कि, “सरकारी कुटी बन जाये तो जिंदगी के मुश्किलात थोड़े आसान हो जायेंगे। हम लोग मजदूरी के दम पर अच्छा खाना और अच्छा स्वास्थ्य भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में घर कैसे बनवा सकते हैं? यदि घर बनवाने के लिए पैसा होता तब झोपड़ी में क्यों रहते? और क्यों सरकारी आवास के इंतजार में रहते?”
हफसिली गांव से निकलकर हम बरखुआ तिवारी गांव (आबादी करीब 800) की तरफ जाते हैं। गांव की दूरी 2 किमी है। पठार पर बसे इस गांव में ज्यातर कच्चे मिट्टी और लकड़ी के घर बने हुए हैं।
आवास योजना के बारें में गांव के लोगों का क्या विचार है? यह जानने जब हम गांव के अंदर घूमे तब एक चबूतरे के पास हमें नंदू पटेल मिलते हैं। आवास योजना पर अपने विचार रखते हुए नंदू बताते हैं कि, “मेरा कच्चा घर दूसरे की जगह पर बना है। घर की हालत यह है कि दीवारें गिरती जा रही हैं। आवास का लाभ पाने के लिए दस्तावेज तैयार करते-करते थक गया हूं। पहले हमें बताया गया था कि आपका आवास आ गया है। लेकिन उस आवास का आज तक पता नहीं क्या हुआ। मैंने यह भी कहा कि, आवास पाने के लिए मैं कुछ पैसे भी दे सकता हूं। मगर, फिर भी मुझे आवास नहीं मिला।”
नंदू आगे फ़रमाते हैं कि, “गांव में मेरे जैसे बहुत लोग हैं, जिन्हें आवास योजना के तहत घर की तुरंत आवश्यकता है। वहीं, जिनको आवास योजना का लाभ मिला, उनमें कई के आवासों में कमियां रह गयीं।”
गांव में हम अंदर की ओर जाते हैं तब दीपक हमें बैल और लकड़ी का बखर लिये मिलते हैं। आवास योजना पर चर्चा के दौरान दीपक कहते हैं कि, “कुछ दिन पहले मेरा कच्चा घर धराशायी हो गया था। कई दिन मेरा अनाज, कपड़े अन्य घर का सामान बाहर पड़ा रहा। मगर, घर के लिए मुझे एक रूपए की आर्थिक सहायता नहीं मिल पायी। जैसे-तैसे मैंने धराशायी कच्चे घर को संभाला है। मुझे अब तक यह समझ नहीं आया कि आवास योजना हम जैसे लोगों के लिए नहीं लायी गयी, तब किसके लिए लायी गयी?”
दीपक के मित्र हैं रेवाराम। वह हमें अपने कच्चे घर के दर्शन करवाते हैं। रेवाराम का कहना है कि, “कहने को तो हम जैसे गरीब लोगों के पास कच्चा घर है। लेकिन, घर की हालत यह है कि बरसात के दिनों में घर गीला होता रहता है। घर की दीवारों में पानी भरता है। इस वक्त मेरे कच्चे घर की एक दीवार गिर चुकी है। घर में जगह की कमी होती है। जिससे हमें जलाऊ लकड़ी, गोबर के कंडे, अन्य घरेलू सामान बाहर रखना पड़ता है। वहीं, हमें अपने मवेशी के निवास हेतु टपरी भी बनानी पड़ती है।”
रेवाराम आगे बोलते हैं कि, “कच्चे मकान में सर्प, कीड़ा-मकौड़ा, छिपकली, चूहा अन्य जहरीले जीव-जंतु आते रहते हैं। जिससे कई बार जान पर आफत आ जाती है। ऐसे में हमें सरकार की तरफ से पक्का मकान मिलना एक सुरक्षा कवज मिलने जैसा है। लेकिन, आज पक्के आवास से वंचित स्थिति में हम असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।”
“हमारे गांव बरखुआ तिवारी में करीबन 50-60 घर बने हुए हैं। जिनमें कुछ को आवास योजना का लाभ मिला है। बाकी बहुत से लोग कच्चे घरों में रहने को विवश है।”
रेवाराम के विचार सुनकर कुसमरानी भी हमारे पास आ जाती हैं। आवास को लेकर अपनी परेशानी बताते हुए कुसमरानी कहतीं हैं कि, “हम पति-पत्नी और हमारे दो बेटे हैं। बेटों की शादी हो चुकी है। कभी-कभी मिलने वाली मजदूरी ही हमारा पेट भरती है। हमारा घर कच्चा है। जो खिसकता जा रहा है। फिर भी हमें आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। सरकार हमें घर नहीं दे पा रही तो कम से कम अच्छा रोजगार ही दिला दे, जिससे हम खुद आत्मनिर्भर बन जायें और अपना घर भी बनवा सकें।”
गांव में आगे हम तरूण पटेल से मुलाकात करते हैं। तरुण 12 वीं पास युवा हैं। वह अभी कम्प्यूटर कोर्स कर रहे हैं। वह कहते हैं “गांव में ज्यादातर चढ़ार, पटेल और ठाकुर समाज निवास करता है। अभी गांव में आवास योजना ज्यादातर ऐसे लोगों के पास नहीं पहुंच पायी, जिनके घर घास-फूस के या मिट्टी के बने हैं। गांव सड़क, स्थाई आंगनबाड़ी जैसी कई बुनियादी सुविधाओं से वंचित है।”
आगे हमें कच्चे घर में लेटे दिखते हैं सीताराम। वह बताते हैं कि, “मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब तक आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। कई साल पहले सुना था कि कच्चे घर में रह रहे गरीबों को आवास योजना का लाभ मिलेगा। लेकिन, सुनते- सुनते बहुत साल बीत गये। कोई हमारे कच्चे घर की दुर्दशा देखने तक नहीं आता। आवास मिलना तो दूर की बात है।”
बरखुआ तिवारी गांव की आशा कार्यकर्ता नीलम पटेल से भी हम रूबरू होते हैं। वह कहतीं हैं कि, “गर्भवती महिलाओं के टीकाकरण, जांच और जागरूकता के लिए मुझे अपने कच्चे घर में बुलाना पड़ता है। अपने कच्चे घर में हमें कई तरह की परेशानियां भोगनी पड़ रही है। मैंने कई बार सरपंच सचिव से कहा है कि, मुझे आवास योजना का लाभ दिलवाइये। लेकिन, आज तक मुझे आवास योजना का लाभ नहीं मिला।”
हमने जब पूछा कि, क्या गांव में स्थाई आंगनबाड़ी नहीं है? तब आशा कार्यकर्ता नीलम बताती है कि, “गांव में अस्थाई आंगनबाड़ी है। आंगनबाड़ी को साल में कई बार एक कच्चे घर से दूसरे कच्चे में ट्रांसफर किया जाता है। आंगनबाड़ी के लिए बड़ी मुश्किल से एक ही कच्चा कमरा मिलता है। वहीं, मैं गांव में पक्की और स्थाई आंगनबाड़ी के लिए भी आवाज उठाती आ रही हूं। मगर, आज तक पक्की आंगनबाड़ी नहीं बन सकी।”
आवास योजना से संबंधित जब हम सरकारी डेटा देखते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि, देश में 29465356 प्रधानमंत्री आवास स्वीकृत किए गए हैं। राज्यों में ज्यादातर आवास पश्चिम बंगाल में 4569375, उत्तर प्रदेश में 3613299 वहीं, बिहार में 3701046 जबकि, मध्य प्रदेश में 3798998 पीएम आवास स्वीकृत किए गए।
वहीं, शहरी पीएम आवास के लिए 118.64 लाख मकान स्वीकृत किये गये। 84.65 लाख पीएम आवास पूर्ण हो चुके हैं। वहीं, इस योजना के तहत 8.07 लाख करोड़ रूपए का निवेश किया गया।
ध्यान देने योग्य है कि, प्रधानमंत्री आवास योजना होने के बावजूद कच्चे घर और झोपड़ी में रहने वाले लोग पक्के आवास से वंचित रह गये हैं।
(सतीश भारतीय स्वतंत्र पत्रकार हैं और मध्यप्रदेश में रहते हैं)