Thursday, April 25, 2024

आदिवासियों के नायक गुंडाधुर

बस्तर। छत्तीसगढ़ के बस्तर में 110वां बुमकाल स्मृति दिवस मनाया जा रहा है। 1910 का महान बुमकाल आंदोलन बस्तर के इतिहास में सबसे प्रभावशाली आंदोलन था। इस विद्रोह ने बस्तर में अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी थी। पूर्ववती राजाओं की नीतियों और सामंतवादी व्यवस्था के कारण बस्तर अंग्रेजों का औपनिवेशिक राज्य बन गया था। बस्तर की भोली भाली जनता पर अंग्रेजों का दमनकारी शासन चरम पर था। दो सौ साल से विद्रोह की चिंगारी भूमकाल के रूप में विस्फोटित हो गई थी। 

बस्तर में गुंडाधुर का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। गुंडाधुर आज भी यहां अमर हैं। गुंडाधुर दमनकारी अंग्रेजी हुकूमत से बस्तर को आजादी दिलाने वाले नायकों की अग्रिम पंक्ति में शामिल हैं। इस महान भूमकालेया आटविक योद्धा गुंडाधुर की शौर्य गीत आज भी बस्तर में गाए जाते हैं। प्रति वर्ष 10 फरवरी को भूमकाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

आज भी बस्तर के आदिवासी अपने जल, जंगल और जमीन के लिए लगातार बस्तर में लड़ते आ रहे हैं चाहे वो बस्तर के दन्तेवाड़ा जिले में हजारों की संख्या में एक पहाड़ को खनन से बचाने के लिए महीने भर चले आंदोलन का रूप हो या अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वन अधिकार कानून, पेसा एक्ट जैसे कानूनों की लड़ाई हो। बस्तर की मूलनिवासी जनता ब्राम्हणवादी संस्कृति को चुनौती देने आज भी अपनी मूल संस्कृति को बचाने के लिए संघर्षरत है।

बस्तर के कोन-कोने में नक्सल उन्मूलन के नाम पर सुरक्षा बलों के कैंपों को तान दिया गया है। यहां नित-प्रतिदिन फर्जी गिरफ्तारी, फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला जारी है। अमूल्य खनिज संपदाओं खनन के लिए आदिवासियों का लगातार विस्थापन जारी है जो बचे हैं वो लाल पानी नामक जहर से मर रहे हैं। अभी ताजा घटना है बस्तर के नारायणपुर बारसूर मार्ग में महीने भर से आदिवासी एक पहाड़ अमादाई को फिर बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। रावघाट नामक पहाड़ में लोहा निकालने के लिए सरकारों ने पूरा गांव वीरान बना दिया है, लेकिन हमारी सरकारें और सभ्य समाज बड़ी चालाकी से आदिवासियों के शांतिपूर्ण आंदोलन को नक्सल आंदोलन प्रस्तुत कर देती है। 

आज 10 फरवरी को भूमकाल दिवस के दिन क्षेत्र के सभी ग्रामवासी इस साल का भूमकाल दिवस को डिपॉजिट 13 पिटोडमेटा में मनाया गया। ज्ञात हो कि इस पहाड़ से ग्रामवासियों की आस्था जुड़ी हुई है। सन 1910 में वीर गुण्डाधुर और वीर गेंद सिंह ने जल, जंगल और जमीन व अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए भूमकाल विद्रोह किया था।

अब एनएमडीसी के डिपाजिट 13 इस लौह अयस्क खदान को निजी हाथों में सौपने की तैयारी थी, जहां नंदराज पर्वत विराजमान है। आदिवासी समाज के देव के देव पिटोड मेटा देव। इस पहाड़ी और देव को बचाने के लिए आदिवासी समाज आंदोलन भी कर चुका है, इसलिए आदिवासी समाज अब जल, जंगल और जमीन को बचाने भूमकाल दिवस इसी पहाड़ी में मनाया गया। 

छत्तीसगढ़ में 15 सालों के बाद कांग्रेस की सरकार आई है। तमाम लुभावने वादों के बीच सरकार ने इस आंदोलन को खत्म कर हप्ते भर में जांच की बात कही थी, लेकिन आज तक सरकार की जांच रिपोर्ट का अता-पता नहीं है। फर्जी मामलों में आदिवासियों की रिहाई की बात कही गई थी, लेकिन आबकारी एक्ट में फंसाए आदिवासी की रिहाई बस हो रही है। वन अधिकार कानून के पालन की बात कही गई थी। उसका भी अता-पता नहीं है। पेसा क्रियान्वयन के बड़े-बड़े वादे किए गए थे, आज तक क्रियान्वयन नियम बनाना तो दूर पालन तक नहीं कर पाई है। इन्ही कारणों से फिर से आदिवासियों के बीच मे बुमकाल विद्रोह पैदा कर रहा है। 

बस्तर के इस कोइतूर वीर नायक पर नंदिनी सुंदर ने ”गुंडा धुर की तलाश में” एक सुंदर शोधपूर्ण किताब पेंग्विन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित की है। इसमें वे बताती हैं कि जब वे गुंडा धुर के बारे में पूछते पूछते गांव घूम रही थीं, तब उन्हें उनके सवालों के बहुत कम जवाब मिले। वे आगे कहती हैं कि लगता है सरकार के जनजातीय विभाग ने इस महान नायक के बारे में अपने नागरिकों को कोई जानकारी नहीं दी है।

वे गुंडा शब्द पर भी अपनी राय देते हुए लिखती हैं कि भारत के कोशकारों ने भी अंग्रेजों की तरह ही गुंडा का अर्थ बदमाश के रूप में प्रयोग किया है। अब भारतीय कोशकारों की जिम्मेदारी है कि अंग्रेजों द्वारा प्रयुक्त बदमाश के अर्थ में गुंडा शब्द को डिक्शनरी से बाहर करके, वीर स्वतंत्रता सेनानी के अर्थ में उसे प्रचलित करें। बदमाश के अर्थ में गुंडा शब्द एक कोइतूर स्वतंत्रता सेनानी का अपमान है। (नंदनी सुंदर, 2009)।

गुण्डाधुर को आज भारत के ज्ञात आदिवासी नायकों के बीच जो स्थान मिलना चाहिए था, वह अभी तक अप्राप्य है। भारत के आदिवासी आंदोलनों के इतिहास में वर्ष 1910 जैसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। जहां एक पूरी रियासत के आदिवासी जन अपनी जातिगत विभिन्नताओं से ऊपर उठकर, अपने बोलीगत विभेदों से आगे बढ़ कर जिस एकता के सूत्र में बंध गए थे, उसका नाम था गुण्डाधुर।

एक ओर सामंतवादी सोच के साथ लाल कालिन्द्रसिंह सत्ता को अपने पक्ष में झुकाना चाहते थे तो दूसरी ओर आदिवासी जन अपने शोषण से त्रस्त एक ऐसा बदलाव चाहते थे जहां उनकी मर्जी के शासक हों और उनकी चाही हुई व्यवस्था। गुण्डाधुर नेतानार गांव के रहने वाले थे, तथा उत्साही धुरवा जनजाति के युवक थे। 

(रायपुर से जनचौक संवाददाता तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट।)

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