तारीख में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं जब तवायफें किसी की ऐसी पाबंद हो जाया करती थीं कि किसी और की तरफ कभी मुड़ कर ही न देखती थीं। इसके नतीजे में कोठे की सरदार जिन्हें अकबर के जमाने से कंचनी पुकारा जाने लगा वो चाहे उस तवायफ को अज़ीयत की सूली पर ही क्यों न चढ़ा दे, क्योंकि उन्हें अपने धंधे में क़तर-ब्योंत, प्यार मोहब्बत कतई नहीं चाहिए था, लेकिन पाबंद हो गई, तो बस हो गई। नौबत तो यहां तक भी आ जाती थी कि वो घर भी बसा लेती थीं, और कोठा छोड़ देती थीं।
ऐसा ही कुछ बेगम अख्तर की मां मुश्तरी बाई के साथ भी हुआ था। मुश्तरी ने भी फैजाबद के ही अपने पाबंद एक शादीशुदा वकील असगर हुसैन से आखिर निकाह कर लिया था, और फिर 7 अक्तूबर 1914 को फैजाबाद के भदरसा गांव में उन्हें जुड़वा बेटियां पैदा हुईं। जिंदगी खुशहाल गुजरने लगी। एक रोज उनकी खुशियों को कुछ ऐसी नजर लगी कि नजारा ही बदल गया। दोनों बच्चियों ने कहीं जहरीली मिठाई खा ली, तबियत ऐसी बिगड़ी की बिब्बी को तो किसी तरह बचा लिया गया, लेकिन उनकी जुड़वा बहन ने दम तोड़ दिया।
घर की सारी खुशियां मातम में बदल गईं। उदासी ने घर में ठिकाना बना लिया। चार साल की पली-पलाई बच्ची एक झटके में रुख्सत हो गई। न जाने कुदरत को क्या मंजूर था कि उस हादसे के बाद घर का माहौल रोज-बरोज खराब होने लगा। मुश्तरी और असगर में भी अक्सर लड़ाई-झगड़ा होने लगा। वो गाने बजाने पर पाबंदियां लगाते और मुश्तरी ना मानतीं। एक रोज ऐसा हुआ कि असगर ने बिब्बी और मुश्तरी को अपनी जिंदगी से हमेशा के लिए निकाल दिया। अब तो मुसीबतों को मानों मुश्तरी का पता मिल गया हो, बेटी को लेकर वो दर-दर भटकती रहीं। गरज़ ये कि बहुत तकलीफों में उनकी जिंदगी गुजरने लगी।
उसी भटकाव में बिब्बी बड़ी होती रहीं। मां को बेटी की परवरिश की खासी फिक्र थी। बिब्बी की स्कूली पढ़ाई अच्छी तरह न हो सकी, हां उन्होंने उस दौरान उर्दू शायरी की गहराइयों को जरूर सीखा। मां चाहती थीं कि वो बाकायदा संगीत की तालीम लें, फिर आगे बढें, लेकिन कुछ शौक, कुछ हालात और कुछ उम्र का जुनून ऐसा था कि बिब्बी 7 साल की उम्र से ही गाने बजाने लगी थीं। रियाज़ ने आवाज़ में एक सधापन पैदा कर दिया।
बिब्बी ने उस्ताद इम्दाद खां, अता मोहम्मद खां, अब्दुल वहीद खा से भी बाकायदा संगीत की तालीम ली। एक बार उनके उस्ताद मोहम्मद खां जब उन्हें सिखा रहे थे तो उनसे सुर नहीं लग रहा था, इस पर उन्होने उन्हें खूब डांटा और यह तय हो गया कि अगर इस बार सुर न लगा तो वो संगीत नहीं सीखेंगी। लेकिन फिर ऐसा सुर लगा कि हर किसी के दिलों पर वो राज करने लगीं।
उम्र अभी 11 की थी, मां उन्हें लेकर बरेली के एक पीर के पास गईं, पीर ने उनकी डायरी खोली जिस पन्ने पर उनका हाथ पड़ा उस पर बहज़ाद लखनवी की गजल “दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे” दर्ज थी। कहते हैं पीर ने कहा अगली महफिल में तुम इसी गजल से शुरुआत करना देखना शोहरत तुम्हारी बांदी बन कर तुम्हारे कदमों में नाचेगी। ऐसा ही हुआ कलकत्ता के दुर्गापूजा पंडाल में जब उन्होंने परफॉर्म किया तो महफ़िल को सुरूर आ गया। वो बहुत मशहूर हो गईं और 13 साल की उम्र आते-आते बिब्बी को अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से जाना जाने लगा। उनकी पहचान एक स्थापित गायिका के रूप में होने लगी थी।
1934-35 आते-आते तो उनका दर्जा इस कदर बुलंद हो चुका था कि लखनऊ के हजरतगंज में मौजूद अख्तर मंजिल के नीचे नामी-गिरामी रियासतों के मालिक दरबान के मारफत अपना रुक्का उन तक पहुंचाते और गजल सुनने की फरमाइश करते, हफ्तों बाद तमाम शर्तो और तोहफों की मांग के साथ उन रुक्कों का जवाब दिया जाता। ऐसा रुतबा तो गोया उस वक्त की मकबूल अदाकाराओं और रक्कासाओं का भी न था।
बंबई की एक तवायफों की तंजीम ने तो मुश्तरी के सामने अख़्तरी बाई की बोली एक लाख रुपये में लगा दी थी। लेकिन मां को ये सब मंजूर न था। वो बेटी को तवायफ नहीं गुलूकारा बनाना चाहती थीं। वो उस दलदल में बेटी को नहीं धकेलना चाहती थीं जिससे वो खुद निकल कर आई थीं।
गालिब, मोमिन, फैज अहमद फैज, कैफी आजमी, शकील बदायूनी, जिगर मुरादाबादी जैसे कमाल के शायरों के कलाम को उनकी आवाज ने एक नया मोकाम दिलवाया। लखनऊ घरानों की शान कही जाने वाली ठुमरी को गौहर जान के बाद नई ऊंचाइयों पर अगर कोई ले गया तो वो बेगम अख्तर ही थीं। वाजिद अली शाह की “हमरी अटरिया पे आओ संवरिया” को उनके जैसा शायद की कोई गा पाया हो। उन्होंने फिल्मों में भी हाथ आज़माया लेकिन उन्हें मज़ा न आया।
1943 में जब वो मोकम्मल तौर पर आकर लखनऊ में रहने लगीं। कहते हैं उन्हें यहां उनका सच्चा प्यार मिला। ये सच है कि औरत को हमेशा प्यार की कीमत चुकानी पड़ती है। उस प्यार को पाने की भी एक शर्त थी, कि शादी तभी होगी जब गायकी से नाता तोड़ दो। वैसे ही जैसे मुश्तरी के सामने गाना छोड़ने की शर्त थी, उसी तरह बेटी अख्तरी के सामने भी। दौर बदला था, मर्दानगी थोड़े ही न बदली थी, बीवी के हुनर से डरा शौहर अक्सर उसके हुनर को खत्म कराकर ही तो सुकून पाता है। यहां भी वही हुआ था।
खैर मोहब्बत क्या न करा ले, 1945 में उन्होंने बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कर ली। अब वो बेगम अख़्तर कहलाने लगी थीं। इस शादी से उन्हें कोई बच्चा न हुआ। बिना गीत-संगीत के वो जल्दी ही अवसाद की शिकार हो गईं। उन्हें शराब और सिगरेट की लत ऐसी लगी कि फेफड़े जवाब देने लगे। डाक्टर ने उन्हें फिर से संगीत की तरफ लौटने की सलाह दी। खैर, 1949 में घर से मंजूरी मिली और वो आकाशवाणी लखनऊ जाने लगीं। जब उन्होंने वहां सुदर्शन फाकिर की लिखी ग़ज़ल “आप को प्यार है मुझसे कि नहीं, जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया” गाईं, जो बहुत ही मकबूल हुई।
भारत सरकार ने इस सुर साम्राज्ञी को पद्म श्री और मरणोपरान्त 1975 में पद्म भूषण से नवाज़ा। वो मलिका-ए-ग़ज़ल के खिताब से भी नवाजी गईं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया गया।
कहते हैं मौत आने से पहले अपनी आहट ज़रूर देती है, बेगम को भी अपनी मौत की आहट मिलने लगी थी। एक गाने की रिकार्डिग के वक्त उन्होंने अपने दिल की ये बात कैफी आजमी से कही कि अब मेरे जाने का वक्त आ गया है। शायद ये मेरी जिंदगी की आखरी रिकॉर्डिग हो और इसके चंद दिनों बाद ही बेगम का अहमदाबाद में प्रोग्राम था, वो मंच पर गा रही थीं, तबियत खराब थी, अच्छा नहीं गाया जा रहा था, ज्यादा बेहतर की चाह में उन्होंने खुद पर इतना जोर डाला कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। जहां से वो वापस न लौटीं। हार्ट अटैक से 30 अक्तूबर 1974 को 60 साल की उम्र में ही वो इस दुनिया को अलविदा कह गईं।
आज उनकी यौमे पैदाइश का दिन है उनके चाहने वाले उन्हें अपनी-अपनी तरह से खिराजे अकीदत पेश कर रहे हैं। उन्हें पुराने लखनऊ के पंसद बाग में उनकी अम्मी मुश्तरी बाई की कब्र के बगल में सुपुर्दे खाक किया गया है।
अफसोसनाक ये है कि जब हम उनकी मजार पर उन्हें खिराजे अकीदत पेश करने गए तो वहां के आस-पास के लोगों में ज्यादातर को उस मलिका-ए-गजल की आखिरी आरामगाह का पता ही न था। बड़े नावाकिफ से थे लोग, ये देख कर बेगम का गाया वो शेर बेसाख्ता हमारी ज़बान पर आ गया –
“ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।”
(नाइश हसन का लेख।)
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