प्रतिबद्धता और न्याय के द्वंद्व में फंसी न्यायपालिका, जरा-सा न्याय के पक्ष में झुकी तो बौखला गए

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पिछले पखवाड़े में सुप्रीम कोर्ट के दो महत्वपूर्ण फैसलों-पहले राज्यपालों पर संवैधानिक अंकुश और फिर 16 अप्रैल को वक्फ (संशोधन) अधिनियम पर अंतरिम आदेश-ने केंद्र सरकार को हिलाकर रख दिया है। इन फैसलों के बाद देशभर में सोशल मीडिया पर सक्रिय समूह न्याय10 में न्यायपालिका के अधिकारों पर सवाल उठाने में जुट गए हैं। इसे संसद की सर्वोच्चता से जोड़ा जा रहा है और राष्ट्रपति को न्यायपालिका से ऊपर बताया जा रहा है। इस विवाद में उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ भी शामिल हो गए हैं और अपनी संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए दोनों फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं।

सबसे पहले मैं राष्ट्रपति द्वारा पदभार ग्रहण करते समय ली जाने वाली शपथ की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ:

“मैं, [नाम], ईश्वर की शपथ लेता हूँ कि मैं भारत के राष्ट्रपति के पद का निष्ठापूर्वक पालन करूँगा, अपनी पूरी क्षमता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा, तथा भारत की जनता की सेवा और कल्याण के लिए स्वयं को समर्पित करूँगा।”

‘अपनी पूरी क्षमता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा’-इस वाक्य के प्रत्येक शब्द पर ध्यान दें।

संविधान के अनुच्छेद 13(2) और अनुच्छेद 26 पर विचार करें। अनुच्छेद 13(2) कहता है कि राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता जो संविधान के अनुरूप न हो। यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो वह उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा। यह न्यायिक समीक्षा का स्पष्ट आधार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 26 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य की शर्तों के अधीन है। इसके तहत प्रत्येक धार्मिक समुदाय को धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करने, उनके प्रबंधन, संपत्ति अर्जन और कानून के अनुसार उसका प्रशासन करने का अधिकार है। संक्षेप में, धार्मिक कार्यों की स्वतंत्रता है, लेकिन यह कुछ नियमों के साथ आती है।

राष्ट्रपति केवल नाममात्र के प्रमुख होते हैं और कैबिनेट की सलाह पर कार्य करते हैं। उनके पास कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं होता। यह कहना है राज्यसभा सांसद एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल का। उन्होंने उपराष्ट्रपति धनखड़ के हालिया बयानों पर कहा कि उन्हें यह समझना चाहिए कि जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले सरकार के पक्ष में नहीं होते, तो कुछ लोग न्यायपालिका पर अपनी सीमा लाँघने का आरोप लगाते हैं। सिब्बल ने अनुच्छेद 142 का उल्लेख करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने का अधिकार है, जिसे सभी को स्वीकार करना चाहिए।

धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की आलोचना पर सिब्बल ने कहा कि उन्होंने कभी किसी राज्यसभा सभापति को इस तरह का राजनीतिक बयान देते नहीं देखा। यह ऐसा प्रतीत होता है जैसे न्यायपालिका को सबक सिखाया जा रहा हो। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए सिब्बल ने कहा, “लोगों को याद होगा कि उस समय केवल एक न्यायाधीश, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने फैसला दिया था। यह धनखड़ जी को स्वीकार्य था, लेकिन अब दो न्यायाधीशों की पीठ का फैसला इसलिए गलत है, क्योंकि यह सरकार के पक्ष में नहीं है।”

सिब्बल ने कहा कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति को सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों से समान दूरी बनाए रखनी चाहिए।

गुरुवार को धनखड़ ने कहा कि अनुच्छेद 142, जो सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक आदेश पारित करने की शक्ति देता है, “लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध है।” उन्होंने कहा, “इसलिए, हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाते हैं, कार्यकारी कार्य करते हैं, और सुपर संसद की तरह व्यवहार करते हैं, जिनकी कोई जवाबदेही नहीं है, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता।”

सिब्बल ने कहा कि जब अनुच्छेद 370 या राम जन्मभूमि मामले में सवाल उठाए जाते हैं, तो सरकार कहती है कि यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। धनखड़ की उस टिप्पणी पर कि राष्ट्रपति की शक्तियों में कटौती हो रही है, सिब्बल ने पूछा, “इसे कौन कम कर रहा है? क्या राज्यपाल दो साल तक ऐसे विधेयक पर बैठे रह सकते हैं जो जनता के लिए महत्वपूर्ण है?” उन्होंने इसे विधायिका की सर्वोच्चता में हस्तक्षेप बताया। सिब्बल ने सुझाव दिया, “यदि किसी फैसले से समस्या है, तो समीक्षा के लिए आवेदन करें। यदि फिर भी समस्या हो, तो सुप्रीम कोर्ट से सलाह लें।” उन्होंने कहा, “धनखड़ ने 1984 की बात की, लेकिन 2002 की नहीं। उन्होंने आपातकाल का उल्लेख किया, लेकिन वर्तमान अघोषित आपातकाल की बात नहीं की।”

उपराष्ट्रपति धनखड़ की टिप्पणियों ने भारत की संवैधानिक व्यवस्था पर नई बहस छेड़ दी है। उनके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट अब केवल न्याय तक सीमित नहीं है, बल्कि उसने स्वयं को ‘सुपर संसद’ की भूमिका में स्थापित करने का प्रयास किया है। ये बातें उन्होंने राज्यसभा इंटर्नशिप कार्यक्रम के समापन समारोह में कही। धनखड़ ने अनुच्छेद 142 को “न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध परमाणु मिसाइल” बताया, जो एक तीखा और प्रतीकात्मक बयान है।

यह विवाद सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से शुरू हुआ, जिसमें राष्ट्रपति को समय-सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया। वक्फ कानून में न्यायिक हस्तक्षेप ने इस विवाद को और बढ़ाया। धनखड़ ने सवाल उठाया, “राष्ट्रपति, जो देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है, उन्हें आदेश देना कि वे कब और कैसे फैसला लें, क्या यह लोकतंत्र के संतुलन को बिगाड़ने वाला नहीं है?” उन्होंने पूछा, “यदि राष्ट्रपति समय पर निर्णय नहीं लेते, तो क्या यह स्वतः कानून बन जाता है? यह कैसी व्यवस्था है?”

वर्तमान शासन में ‘राज्यपाल राज’ की एक खतरनाक प्रवृत्ति उभरी है, जो संविधान को कमजोर कर रही है। यह इतने सूक्ष्म तरीके से हो रहा है कि इसे आसानी से नहीं देखा जा सकता। संवैधानिक रूप से नाममात्र के व्यक्ति होने के बावजूद, राज्यपाल राज्य सरकारों के प्रशासन में हस्तक्षेप कर रहे हैं और अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। बार-बार देखा गया है कि राज्यपाल विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखते हैं, न तो उन्हें स्वीकृति देते हैं और न ही कारण बताकर वापस करते हैं, जिससे विधायी प्रक्रिया बाधित होती है।

तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में विधेयक तीन से चार वर्ष तक लंबित रहे। आश्चर्यजनक रूप से, ऐसी देरी केवल उन राज्यों में हुई, जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल से भिन्न दल सत्ता में हैं। इससे यह चिंता बढ़ी है कि केंद्र सरकार राज्यपालों को राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप के लिए एक एजेंट के रूप में उपयोग कर रही है। इससे दो मूलभूत संवैधानिक सिद्धांत-लोगों की इच्छा के रूप में विधायिका की सर्वोच्चता और शासन का संघीय ढांचा-खतरे में हैं।

वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह के अनुसार, तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कानून निर्माण प्रक्रिया में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित की है। यह कार्रवाई संविधान की व्याख्या के संदर्भ में उचित है, क्योंकि इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम होता है।

न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं ने अक्सर राज्य के कार्यों की संवैधानिकता पर सवाल उठाए हैं। इसका एक उदाहरण वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 के खिलाफ याचिकाएँ हैं, जिन्हें अधिनियम के अधिसूचित होने से पहले ही चुनौती दी गई। इसकी तुलना तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा 2020 में भेजे गए विधेयकों को स्वीकृति देने में निष्क्रियता से करें, जिसका समाधान सुप्रीम कोर्ट ने 2025 में किया।

जयसिंह ने कहा कि एक निर्वाचित सरकार का कार्यकाल केवल पाँच वर्ष का होता है। सहमति के अभाव में विधानसभा भंग होने पर विधेयक समाप्त हो जाते हैं। निष्क्रियता से न केवल लोगों की इच्छा विफल होती है, बल्कि यह संघीय ढांचे को भी नष्ट कर सकती है, खासकर जब केंद्र और राज्य में भिन्न दल सत्तारूढ़ हों। राज्यपाल और राष्ट्रपति अपनी आधिकारिक क्षमता में किए गए कार्यों के लिए कानूनी कार्यवाही से मुक्त हैं, जिससे नागरिक और निर्वाचित सरकारें असहाय हो जाती हैं। निष्क्रियता का कोई कागजी निशान नहीं बचता, इसलिए इसे अदालत में चुनौती देना कठिन है।

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अनुच्छेद 200 और 201 ‘पॉकेट वीटो’ को सक्षम नहीं करते। इस स्थिति को सुधारने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग किया और घोषणा की कि लंबे समय से लंबित विधेयकों को स्वीकृत माना जाएगा।

जयसिंह ने कहा कि तमिलनाडु सरकार ने इस निर्णय पर त्वरित कार्रवाई करते हुए अधिनियमों को अधिसूचित किया। आलोचकों ने इसे अतिशयोक्ति बताया, लेकिन यह उचित है। अनुच्छेद 142 का उपयोग केवल वैधानिक या संवैधानिक चुप्पी की स्थिति में हो सकता है, न कि किसी वैधानिक प्रावधान के विरुद्ध। संविधान की व्याख्या पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम है। इसकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन कानून के शासन द्वारा शासित समाज में इसका सम्मान करना चाहिए या संवैधानिक माध्यमों से इसे चुनौती देनी चाहिए।

तमिलनाडु बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन बहाल हुआ है, लेकिन सवाल यह है कि राज्यपाल स्वयं क्या करेंगे? क्या उन्हें निष्क्रियता के लिए कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा? न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल का आचरण, जैसा कि इस मामले में स्पष्ट है, नेकनीयती की कमी को दर्शाता है। कई उदाहरण हैं जहाँ राज्यपाल ने न्यायालय के निर्णयों और निर्देशों का उचित सम्मान नहीं दिखाया। ऐसी स्थिति में, उन्हें विधेयकों के निपटान का दायित्व सौंपना कठिन है।

तार्किक सवाल यह है कि क्या दुर्भावनापूर्ण इरादे के बावजूद राज्यपाल को पद पर बने रहने का अधिकार है? उनके इस्तीफे की मांग की जा चुकी है, जो राजनीतिक जवाबदेही होगी, लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। क्या कोई कानूनी उपाय है? इसका उत्तर ‘क्वो वारंटो’ की रिट हो सकती है, जिसमें पूछा जा सकता है कि राज्यपाल किस कानूनी अधिकार से पद पर बने हुए हैं। यह वास्तव में “पूर्ण न्याय” होगा।

जयसिंह ने कहा कि आधुनिक समय में संविधान को अनदेखा करने की रणनीति अपनाई जा रही है, न कि संशोधन द्वारा बदलाव लाने की। संशोधनों को संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। निष्क्रियता अक्सर अदृश्य होती है और शायद ही कभी अदालत में चुनौती दी जाती है। यही कारण है कि असंवैधानिक प्रथाएँ नया सामान्य बन रही हैं। इसकी तुलना अमेरिका से की जा सकती है, जहाँ राष्ट्रपति के प्रत्येक कार्यकारी आदेश को तुरंत चुनौती दी जाती है। इसके विपरीत, भारत में ऐसी चुनौतियाँ कम हैं, क्योंकि अदृश्य को चुनौती देना कठिन है।

मूल ढांचे के सिद्धांत और कॉलेजियम प्रणाली को त्यागने की माँगें तेज हो रही हैं, जिससे “लोगों की इच्छा” की सर्वोच्चता का हवाला देते हुए राजनीतिक गैर-जवाबदेही का माहौल बन रहा है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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