थर्मल कम्फर्ट, एसी का उपयोग और बढ़ता तापमान: पर्यावरणीय बदलाव का बढ़ता दबाव

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने एशिया के मौसमी हालात पर अपने आंकड़ों के आधार पर बताया कि 2024 में एशिया महाद्वीप का औसत तापमान 1991-2000 के औसत से 1.04 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह लगातार दूसरा सबसे गर्म वर्ष रहा। आंकड़ों में यह भी बताया गया कि 1961-1990 के औसत की तुलना में तापमान में दोगुनी वृद्धि हुई है।

एशियाई देशों में अप्रैल से ही गर्म हवाओं का प्रकोप बढ़ने लगा है, जो सामान्यतः 48.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है। इन गर्म हवाओं का असर न केवल मैदानी क्षेत्रों में है, बल्कि यह पहाड़ी और समुद्री तटीय क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है, जिससे विक्षोभ की स्थितियां बन रही हैं।

गर्म हवाएं तेजी से ठंडे पहाड़ों की ओर बढ़ती हैं और ऊपर उठकर निम्न दबाव की स्थिति बनाती हैं, जिससे बड़े पैमाने पर बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही, गर्म हवाओं से समुद्री तटों पर तूफान और चक्रवाती तूफानों के लिए अनुकूल माहौल बन रहा है। सामान्यतः शांत माने जाने वाले अरब सागर में भी विक्षोभ देखा जा सकता है। पिछले वर्ष अरब देशों में हुई असामान्य बारिश ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था।

गर्म हवाओं के संदर्भ में सामान्यतः प्रशांत महासागर की गर्म और ठंडी हवाओं की वर्षों तक चलने वाली क्रमवार श्रृंखला को मुख्य कारण माना जाता रहा है। कई बार विषुवत रेखा के निकट से चलने वाली हवाएं कर्क रेखा की ओर मुड़कर एशियाई मैदानों की ओर बढ़ती हैं, जिसे गर्मी और बारिश का एक कारण माना जाता है।

हालांकि, अल नीनो और ला नीना दुनिया के तापमान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये परिस्थितियां तब होती हैं, जब पृथ्वी का तापमान अपनी सामान्य पर्यावरणीय स्थिति में होता है। लेकिन पूंजीवादी विकास ने कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, और नाइट्रोजन यौगिकों को वायुमंडल में भर दिया है, और यह आने वाले समय में और बढ़ता दिख रहा है।

पृथ्वी का औसत तापमान इस कृत्रिम हस्तक्षेप से 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। पिछले पांच वर्षों में इसमें और वृद्धि देखी गई है। विभिन्न स्थानों पर यह वृद्धि अलग-अलग स्तरों पर दिखाई देती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में गर्मी 50 डिग्री सेल्सियस को पार कर गई थी। पहाड़ों में ग्लेशियरों के पिघलने और समाप्त होने की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है।

इन सबका असर पर्यावरणीय जीवन पर दिखने लगा है। हाल ही में जब किंग कोबरा को बर्फीले पहाड़ों के निकट देखा गया, तब पर्यावरणविदों ने चिंता जताई। मुख्य बात यह नहीं थी कि यह खतरनाक सांप वहां पहुंच गया, बल्कि यह थी कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र का यह प्राणी ठंडी जगहों पर इसलिए पहुंचा, क्योंकि वहां का मौसम अब उसके लिए अनुकूल हो गया है। पहाड़ों का मौसम इतना बदल गया है कि यह सांप वहां जीवित रह सकता है।

इसी तरह, कबूतरों का पहाड़ों की ओर बढ़ना भी ऐसी ही घटना है। उन्हें भी वहां अनुकूल परिस्थितियां मिलने लगी हैं। जानवरों और पक्षियों के व्यवहार में आए बदलाव पृथ्वी के तापमान और पर्यावरणीय बदलावों से जुड़े हैं। इस गर्मी में चंदौली क्षेत्र में पानी की तलाश में हिरनों का झुंड मैदानों में उतर आया था।

दिल्ली और एनसीआर में जंगलों की कटाई और प्राकृतिक जल स्रोतों के समाप्त होने से वन्यजीवों का जीवन पूरी तरह तबाह होने की स्थिति में है। ऊंची अट्टालिकाएं उनके लिए बड़ी बाधा बन रही हैं। बचे हुए प्राकृतिक स्थलों पर मानवीय गतिविधियां उन्हें वहां से खदेड़ने में लगी हैं। यमुना नदी के किनारे कथित विकास का मॉडल न केवल यमुना की प्राकृतिक अवस्थिति को, बल्कि उसके वन्यजीवन को भी प्रभावित करेगा।

पर्यावरण अनुकूलन से जुड़ा एक शब्द है थर्मल कम्फर्ट। यह मुख्यतः मनुष्यों के लिए प्रयुक्त होता है और मौसम के अनुकूलन से भी संबंधित है। यह मानव शरीर के लिए एक तकनीकी शब्द होने के साथ-साथ अनुकूलन से प्राप्त व्यवहार भी है। सामान्यतः मानव शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता है, लेकिन यदि मौसम का तापमान भी यही हो, तो यह आरामदायक नहीं हो सकता।

मानव शरीर एक साथ कई तापमानों पर कार्य करता है। एक निश्चित सीमा से कम या अधिक तापमान होने पर मानव अंग प्रभावित होते हैं। तापमान को कार्य सीमा में रखने के लिए मानव शरीर सामान्यतः पसीने के माध्यम से खुद को ठंडा रखने की कोशिश करता है। ठंडी परिस्थितियों में उसे कपड़ों और आग की आवश्यकता पड़ती है। सोनम वांगचुक अपने एक यूट्यूब वीडियो में बताते हैं कि थर्मल कम्फर्ट मुख्यतः विशिष्ट स्थानों पर रहने वाले लोग वहां के औसत तापमान के अनुकूल ढल जाते हैं और उस तापमान पर बेहतर महसूस करते हैं। उनके अनुसार, पहाड़ों पर रहने वालों के लिए 22 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान सहनीय और अच्छा लगता है।

भारत के मैदानी क्षेत्रों में यह 28 डिग्री सेल्सियस तक अच्छा लगता है। यूरोपीय लोगों के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस थर्मल कम्फर्ट के लिए उपयुक्त माना जाता है, जबकि गर्म क्षेत्रों में यह 30 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है। इस प्रकार, 22 से 30 डिग्री सेल्सियस मानव के लिए थर्मल कम्फर्ट की सीमा में आता है। लेकिन, यदि सालभर के तापमान चार्ट को देखें, तो यह इसके अनुकूल नहीं है।

कार्यस्थलों, विशेषकर खदानों और औद्योगिक उत्पादन स्थलों पर तापमान इससे कम या अधिक रहता है। हालांकि, कॉर्पोरेट कार्यालयों, शेयर बाजारों, और बैंकों जैसे स्थानों पर तापमान को थर्मल कम्फर्ट के स्तर पर, कभी-कभी इससे भी नीचे, रखा जाता है, जो मुख्यतः वहां के ड्रेस कोड को बनाए रखने के लिए किया जाता है।

तापमान वृद्धि, पृथ्वी के ताप में बढ़ोतरी, और पर्यावरणीय बदलावों से समुद्री गर्म हवाओं की प्रवृत्तियों में आए परिवर्तन और विक्षोभों ने थर्मल कम्फर्ट में हस्तक्षेप किया है। इससे उन दिनों की संख्या बढ़ गई है, जब तापमान में मनुष्य आराम से नहीं रह सकता।

इस वर्ष भारत में अप्रैल से ही लू का प्रकोप बढ़ गया, और ताप-मानसून के संयोग ने गर्मी के असर को और बढ़ा दिया। ऐसी परिस्थितियां लगातार बनी हुई हैं। बढ़ते तापमान में अनुकूल स्थिति बनाने का सबसे आसान तरीका कूलर और एयर कंडीशनर (एसी) का उपयोग है। कूलर उमस के समय में बहुत प्रभावी नहीं होता और तापमान को नियंत्रित रूप से कम नहीं कर पाता। दूसरा विकल्प एसी है, जो तापमान को थर्मल कम्फर्ट के अनुकूल ला सकता है।

लेकिन, यह बड़े पैमाने पर बिजली की खपत करता है और पर्यावरण पर प्रभाव डालने वाली गैसों का उत्सर्जन करता है। साथ ही, यह कमरे की गर्मी को बाहर के वातावरण में छोड़ देता है। कूलर ऐसा कोई प्रभाव नहीं डालता और बिजली की खपत भी कम करता है।

हाल के दिनों में एसी की बिजली खपत को लेकर कई बयान आए हैं, जिनमें दावा किया गया कि अब इसे इस तरह बनाया जाएगा कि इसका तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से नीचे न जाए। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि भारत की कुल बिजली खपत का 10 प्रतिशत एसी से संबंधित उपयोगों में खर्च होता है। दिल्ली जैसे महानगरों में गर्मी के दिनों में बिजली की खपत चरम पर पहुंच जाती है।

समस्या यह नहीं है कि एसी को 20 डिग्री या उससे कम/अधिक पर नियंत्रित किया जाए। यह छोटी समस्या है। एसी बाहर के तापमान की तुलना में कमरे का तापमान 10 से 12 डिग्री आसानी से कम कर देता है। लेकिन, यदि बाहर का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस हो और एसी को 18 डिग्री पर नियंत्रित किया जाए, तो मशीन और बिजली की खपत पर काफी प्रभाव पड़ता है। इससे एसी के फटने या आग लगने जैसी घटनाएं हो सकती हैं, जो हम अक्सर समाचारों में देखते हैं। इससे बड़ी समस्या यह समझदारी विकसित करने की है कि मनुष्य को कितने तापमान पर रहना चाहिए।

भारतीय रेल के वातानुकूलित डिब्बों में सालभर कंबल की व्यवस्था की जाती है। इस व्यवस्था का कारण और निरंतरता पर ध्यान नहीं दिया जाता। हाल के दिनों में पूरी तरह वातानुकूलित ट्रेनों की अवधारणा पर काम हो रहा है। इन डिब्बों में तापमान को 25 डिग्री सेल्सियस या उससे नीचे रखने का चलन है। ऐसा लगता है कि यूरोपीय मॉडल को हू-ब-हू कॉपी कर भारत में लागू कर दिया गया है।

इसी तरह, कॉर्पोरेट कार्यालय और मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर भी इसी तापमान पर सालभर चलते हैं। क्या वाकई इस तापमान अनुकूलन की आवश्यकता है? खासकर तब, जब देश की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी बिना तापमान नियंत्रण वाली रेल, बसों, कार्यालयों, और घरों में दिन-रात बिताती है। देश के बड़े हिस्से में बिजली की आपूर्ति औसतन आठ घंटे की है, और वहां पंखा भी उपलब्ध नहीं होता।

हमारा प्राकृतिक इतिहास बताता है कि हिमयुग के अंत और नवपाषाण काल के शुरू होने के साथ ही मानव गतिविधियों ने छलांग लगाई। लगभग 20,000 वर्ष पहले, जब हिमनद पिघलकर नदियों में बदले, तब मनुष्य का जीवन और पृथ्वी का स्वरूप बदल गया। मैदान, घने जंगल, और बर्फ से ढके पहाड़ों का निर्माण हुआ। विशाल समुद्र खारे पानी से भर गए और मैदानों से टकराने लगे। नदियों के रुख बदलने से सुंदर झीलें, ताल, और पोखर बने। मैदानों में नए प्रकार का जीवन शुरू हुआ।

आज जो हम देख रहे हैं, वह करोड़ों वर्ष पुराना भी है और कुछ हज़ार वर्ष पहले का भी। लेकिन, यह भी सच है कि पूंजीवाद ने नदियों, तालों, पोखरों, पहाड़ों, जंगलों, बर्फ, और समुद्रों को तबाह करने का काम किया है। इन पर निर्भर लोगों पर हमले हो रहे हैं, जिससे पर्यावरणीय जीवन नष्ट हो रहा है। केवल थर्मल कम्फर्ट की स्थिति ही समाप्त नहीं हो रही, बल्कि जीवन की पूरी पद्धति ही नष्ट हो रही है।

आज हमारे सामने पर्यावरण के साथ थर्मल कम्फर्ट और जीवन की पद्धति दोनों चुनौतियां बनकर खड़ी हैं, जिनसे हमें चाहे-अनचाहे टकराना पड़ रहा है। आज गांवों में 20 वर्ष पहले का मौसम नहीं बचा। विशाल चौड़ी सड़कों वाले हाइवे पर भागती जिंदगी दिखती है, लेकिन हम जानते हैं कि जिंदगी उतनी तेजी से नहीं भाग रही।

पिछले 15 वर्षों से आय स्थिर है और वास्तविक मूल्य में गिर रही है। नौकरियां मिल नहीं रही हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है। उद्योग चींटी की चाल से भी नहीं चल रहे। केवल मुद्रा का व्यापार चल रहा है-मुद्रा का जुआ, लोन, चोरी, माफी, और लूट। यही खबरें हैं। विज्ञापनों की चमकती दुनिया को बुलडोजरों से रौंदे गए घरों के सामने खड़ा करें, तो इस जिंदगी की सच्चाई स्पष्ट दिखने लगती है।

पूंजीवाद ने मानव जीवन पर जिस तरह चतुर्दिक हमला किया है, वह भयावह है। इससे निजात पाने के लिए उतने ही स्तरों पर अपने अधिकारों की मांग के साथ प्रयास करना जरूरी है। प्रारंभिक कम्फर्ट के लिए इस तरह के प्रयास की सख्त आवश्यकता है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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