यूजीसी ने फिर बदला शिक्षण संस्थाओं में योजना का नाम, अकादमिक जगत के लोगों ने की आलोचना

Estimated read time 1 min read

नई दिल्ली। वंचित तबकों के खिलाफ एक एजेंडा संचालित करने का आरोप लगाते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ‘सोशल बहिष्करण’ को ‘सोशल समावेश’ के जरिये एक ऐसी योजना में प्रतिस्थापित कर दिया है जो जातिगत भेदभाव और बीआर आंबेडकर के दर्शन पर शोध को बढ़ावा देने का काम करती है।

दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों के दो अधिकारियों ने बताया कि जून में हुई एक बैठक में उच्च शिक्षा को संचालित करने वाली इस संस्था ने अपनी नयी योजना के तहत सेंटर्स फॉर द स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूजन एंड इंक्लूसिव पॉलिसी को नये नाम स्टैब्लिशमेंट ऑफ सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल इंक्लूजन के नाम से प्रतिस्थापित कर दिया। 

सोशल जस्टिस के मुद्दों पर काम करने वाले अकादमिक जगत के लोगों ने इस पहल की आलोचना की है। इसके साथ ही उन्होंने आयोग पर संस्थानों में और खासकर समाज में सामान्य तौर पर होने वाले सामाजिक बहिष्करण की सच्चाई को छुपाने की कोशिश करने का आरोप लगाया है।

उन्होंने कहा कि सरकार और यूजीसी सामाजिक बहिष्करण पर होने वाले शोध से बेहद परेशानी महसूस करते थे। इसकी बजाय वो वेदिक स्टडीज और मनुस्मृति के पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने पर जोर देते थे।

विश्वविद्यालय के एक अधिकारी ने नये नामकरण की पुष्टि करते हुए कहा कि जून की बैठक में आयोग ने यह तर्क दिया था कि सामाजिक समावेश का अध्ययन समझने पर जोर देता है और सामाजिक बहिष्करण को हल करता है।

अधिकारी ने कहा कि यूजीसी का कहना था कि नाम बदलने से एक प्रगतिशील नजरिया दिखेगा और यह मानवाधिकार और सतत विकास के लक्ष्य के वैश्विक एजेंडे से भी मेल खाता है। और यह सामाजिक असमानता को हल करने की प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है।

यह योजना 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के तहत तकरीबन 35 केंद्र और राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों में शुरू हुआ था। इन सालों में इनमें से 11 सेंटरों ने काम करना बंद कर दिया है।

इन केंद्रों को सामाजिक बहिष्करण पर शोध करने और शोध के पाठ्यक्रमों को पढ़ाने का अधिकार है। एक योजना से दूसरी योजना के दौरान उन्हें फंडिंग करने के फैसले का बार-बार नवीनीकरण हुआ है। 2017 से यूजीसी वार्षिक आधार पर इन्हें फंड मुहैया कराता है।

यूजीसी के पूर्व सचिव आरके चौहान ने बताया कि एक योजना का फिर से नामकरण मौजूदा सरकार की विचारधारा और इसे नयी योजना के तौर पर पेश करने के उसके दोहरे उद्देश्य को पूरा करता है।

चौहान ने कहा कि सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों के लिए जमीनी हालात बेहद बुरे हैं। छात्र सभी संस्थाओं में भेदभाव का सामना कर रहे हैं।

उन्होंने आगे कहा कि संस्थाओं में विभिन्न पदों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी योग्य नहीं पाए गए घोषित किए जा रहे हैं। लेकिन  ऐसा लगता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और सरकार एक गुलाबी तस्वीर पेश करना चाहते हैं। यानि सब कुछ ठीक चल रहा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर एन सुकुमार ने कहा कि नाम बदलने के पीछे कोई तर्क नहीं है। उन्होंने कहा कि लगता है सरकार सेंटर फॉर हिंदू स्टडीज और वेदिक स्टडीज की स्थापना के जरिये बरिष्करण की परंपरा को बनाए रखना चाहती है।

पिछले चार साल में दर्जनों विश्वविद्यालयों ने हिंदू स्टडीज में एमए के पाठ्यक्रम शुरू किए हैं। कुछ विश्वविद्यालयों ने विभिन्न पाठ्यक्रमों में मनुस्मृति को भी शामिल किया है।

टेलीग्राफ की तरफ से यूजीसी के चेयरमैन एम जगदेश कुमार को एक मेल भेजा गया था जिसमें उनसे योजना का नाम बदलने के पीछे के कारणों के बारे में पूछा गया था। उसके जवाब का अभी इंतजार है।   

(ज्यादातर इनपुट टेलीग्राफ से लिए गए हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author