केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू बोले-‘सुप्रीम कोर्ट वक्फ कानून पर विधायिका के मामलों में दखल नहीं देगा’

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वक्फ संशोधन कानून पर केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा है कि उन्हें पूरा विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट विधायिका के मामलों में दखल नहीं देगा। उनके इस बयान को कुछ लोग न्यायपालिका पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाने के प्रयास के रूप में देख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट बुधवार को इस मामले पर सुनवाई करेगा। कई संगठनों और व्यक्तियों ने इस कानून को चुनौती दी है। कोर्ट ने पहले कहा था कि वह विधायिका के क्षेत्र में दखल नहीं देगा, लेकिन संवैधानिक मुद्दों पर याचिकाओं को सुनने के लिए तैयार है।

रिजिजू ने मीडिया से बातचीत में कहा कि मुझे विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामलों में दखल नहीं देगा। उन्होंने कहा कि हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। अगर सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है, तो यह उचित नहीं होगा। रिजिजू ने दावा किया कि इस कानून को बनाने से पहले व्यापक स्तर पर लोगों से राय ली गई और इसमें गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों का भी समर्थन प्राप्त है। संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) ने भी इसकी गहन जाँच की और कई सुझावों को शामिल किया गया। उनका कहना है कि पहले वक्फ संपत्तियों में बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ थीं, जिसके कारण गरीब मुस्लिम समुदाय को लाभ नहीं मिल पा रहा था। यह नया कानून इन कमियों को दूर करेगा।

संशोधित वक्फ कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाखिल की गई हैं, जिनमें दावा किया गया है कि यह असंवैधानिक है। याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि नया वक्फ कानून धार्मिक और संपत्ति अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिससे मुस्लिम समुदाय की सदियों पुरानी जमीनें खतरे में पड़ सकती हैं।

याचिकाओं में मुख्य रूप से कहा गया है कि वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025, सुप्रीम कोर्ट की स्वयं की घोषणा “एक बार वक्फ, हमेशा वक्फ” का उल्लंघन करता है, जो मुस्लिम समुदाय को वक्फ भूमि के सदियों पुराने भूखंडों से वंचित करता है और उन्हें निजी या सरकारी संपत्ति में परिवर्तित करने की सुविधा प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम कानून द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित चल या अचल संपत्ति, यानी वक्फ, की प्रकृति “स्थायी” होती है।

1998 में सैय्यद अली बनाम आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड, हैदराबाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ‘वक्फ’ को इस्लाम के तहत दान का एक रूप घोषित किया था, जिसकी जड़ें कुरान में हैं। याचिकाकर्ता अंजुम कादरी, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता संजीव मल्होत्रा ने किया, ने कहा कि “वक्फ अल्लाह को हस्तांतरित एक संपत्ति है।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम कानून द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित चल या अचल संपत्ति, यानी वक्फ, की प्रकृति “स्थायी” होती है। इसलिए, न्यायालय ने ‘एक बार वक्फ, हमेशा वक्फ’ वाक्यांश गढ़ा था।

यह कानून, वक्फ संपत्तियों पर राज्य के नियंत्रण का विस्तार करके और व्यक्तियों की क्षमता को सीमित करके तथा वक्फ संपत्तियों को गहन जाँच के अधीन करके, रतिलाल पानाचंद गांधी बनाम बॉम्बे राज्य (1954) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया था कि “धार्मिक संपत्ति का नियंत्रण धर्मनिरपेक्ष अधिकारियों को सौंपना धार्मिक और संपत्ति अधिकारों का उल्लंघन है।”

1985 में के. नागराज बनाम आंध्र प्रदेश मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि जो संशोधन मूल अधिनियम या कानून के उद्देश्यों को निष्प्रभावी बनाते हैं, उन्हें “असंवैधानिक” बताकर रद्द किया जा सकता है।

2019 के रामजन्मभूमि मामले के फैसले में संविधान पीठ ने “उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ” को मान्यता दी थी। इसमें कहा गया था कि जब किसी भूमि या संपत्ति का उपयोग मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा लंबे समय तक सार्वजनिक धार्मिक या पवित्र उद्देश्यों के लिए किया जाता है, तो वह भूमि “उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ” बन जाती है। हालांकि, 2025 के कानून ने इस अवधारणा को समाप्त कर दिया है और समर्पण के कार्यों को अनिवार्य बना दिया है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट वक्फ कानून को रद्द कर सकता है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के पास यह अधिकार है। लेकिन ऐसी स्थिति तब बनेगी, जब यह साबित हो जाए कि नए संशोधन में संविधान को चुनौती दी गई है या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा है। यदि कोर्ट में यह साबित हो जाता है कि इस कानून के कारण संविधान के मूल ढाँचे को चुनौती दी जा रही है, तो सर्वोच्च अदालत हस्तक्षेप कर सकती है और कानून को रद्द भी कर सकती है। अनुच्छेद 32 सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति देता है कि वह किसी के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए आदेश जारी करे या निर्देश दे।

ऐसा माना जा रहा है कि यह कानून अनुच्छेद 26, 25, 21 और 14 के तहत दी गई गारंटी तथा पाँचवीं अनुसूची द्वारा प्रदत्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा को संभावित रूप से खतरे में डालता है। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में इस बात पर जोर दिया गया है कि संसद में केवल बड़ा बहुमत होने से राज्य को संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को समाप्त करने का अधिकार नहीं मिल जाता।

भारत का संविधान एक जीवंत और विकसित दस्तावेज है, जो व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ धार्मिक और भाषाई समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी धार्मिक पहचान के लिए महत्वपूर्ण संस्थानों को स्थापित करने, बनाए रखने और उनकी देखरेख करने में सक्षम बनाता है। इस ढाँचे का एक प्रमुख पहलू धार्मिक ट्रस्टों के प्रबंधन का अधिकार है, जिसमें मुसलमानों के लिए विशेष रूप से आवंटित वक्फ संपत्तियाँ शामिल हैं।

संविधान का अनुच्छेद 26 इस अधिकार को मजबूत करता है, साथ ही अनुच्छेद 25, 21 और 14 द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा भी इसे बल देती है। यद्यपि राज्य के पास सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और सामाजिक कल्याण जैसे आधारों पर इन संस्थानों पर नियम लागू करने की शक्ति है, यह आवश्यक है कि ऐसे नियम सावधानीपूर्वक विचार के साथ बनाए जाएँ। राज्य को यह गारंटी देनी चाहिए कि कोई भी हस्तक्षेप आवश्यक धार्मिक प्रथाओं का उल्लंघन नहीं करता या उन मूल उद्देश्यों को खतरे में नहीं डालता, जिनके लिए इन ट्रस्टों को बनाया गया था।

वक्फ संपत्तियों के प्रशासन में मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधान स्पष्ट हैं, जो उन सीमाओं को रेखांकित करते हैं, जिनके भीतर राज्य का हस्तक्षेप अनुमेय है। सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न महत्वपूर्ण फैसलों ने धार्मिक समुदायों की अपने ट्रस्टों के प्रबंधन में स्वायत्तता की पुष्टि की है।

यह कहना गलत होगा कि वक्फ को धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं से अलग रखा गया है। बल्कि, वक्फ इन प्रथाओं का अभिन्न अंग है और इस्लामी धार्मिक प्रथाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखता है-पाँच आवश्यक घटकों में से एक। वक्फ का प्रबंधन और प्रशासन धार्मिक ट्रस्टों की देखरेख करने की स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है। इसलिए, अनुच्छेद 25 और 26 के संदर्भ के बाहर वक्फ की जाँच करना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों और अल्पसंख्यक अधिकारों के साथ गंभीर अन्याय होगा।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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