
खाली जगह
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किसी आदमी के जाने के बाद
कोई दूसरा भला कैसे भर सकता है
खाली जगह
खाली जगह में
अब उसकी तस्वीरें हैं
एक मेज है उसकी
उसकी एक कलम है
है उसकी डायरी
जिसके पन्ने हैं
खाली खाली
खाली-खाली पन्नों में
अब कहता है
वह आदमी
कभी न ख़त्म होने वाली
अपनी कहानी
विमल कुमार
हिन्दी के अप्रतिम कवि विष्णु खरे के जाने के बाद उनकी खाली जगह को भरना मुश्किल होगा। वैसे आम तौर पर किसी के निधन के बाद इस तरह की पंक्तियां लिखी जाती हैं और इसे एक रस्म अदायगी मान ली जाती है लेकिन खरे साहब के बारे में मैं इसलिए यह बात नहीं लिख रहा हूं कि उनसे व्यक्तिगत तौर पर मेरा कोई गहरा राग था लेकिन पिछले 36 सालों से उनके कृतित्व और व्यक्तित्व का मूक पर्यवेक्षक जरूर रहा हूं। मुझे याद है कि जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो कनाट प्लेस के पश्चिम बंगाल सूचना केंद्र में उन दिनों नियमित गोष्ठियां होती थीं। उनमें एक गोष्ठी खरे साहब की आलोचना की किताब पर थी। उस किताब का नाम ही “आलोचना की पहली किताब” थी। उसके शीर्षक पर ही कई लोगों की आपत्ति थी। पहली किताब का क्या मतलब?
क्या राम चन्द्र शुक्ल से लेकर नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद दिवेदी, राम विलास शर्मा और नामवर सिंह ने आलोचना की कोई पुस्तक नहीं लिखी थी?दरअसल खरे साहब रचनात्मक विध्वंस करने के आदी थे। उन्हें इस तरह तोड़-फोड़ करने में आनंद आता था और इस तोड़-फोड़ में ही कोई सृजन भी करते थे। मेरे ख्याल से उनका पहला कविता संग्रह जय श्री प्रकाशन से आ गया था पर वे तब आज की तरह प्रमुख कवि नही बने थे। वह ज़माना अज्ञेय का था। सप्तक के कई कवि जीवित थे और श्रीकांत वर्मा रघुवीर सहाय तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चर्चा अधिक थी। आलोचना की पहली किताब उनकी विधिवत आलोचना नहीं थी। अगर मैं भूल नही रहा हूं तो उसमें आलोचना पत्रिका में उनके लिखी गयी समीक्षाएं अधिक थीं।
नामवर जी के संपादन में आलोचना में उनकी ये समीक्षाएं काफी चर्चित हुईं थीं और कई कवि उससे आहत भी हुए थे। लोगों का कहना था कि ये साहित्य में मारधाड़ करने वाली आलोचना है लेकिन कुछ साल बाद जैनेन्द्र पर लिखी उनकी आलोचना पढ़ी तो मैं उनके आलोचक रूप का मुरीद हो गया। मुझे विष्णु नागर ने वह लेख पढ़ने का सुझाव दिया था। नागर उनके पड़ोसी थे और नवभारत टाइम्स में उनके सहयोगी भी थे। दिल्ली के साहित्य जगत में दोनों के रिश्तों के बारे में सबको पता था। युवा कवि-कहानीकार प्रियदर्शन ने दोनों के इन रिश्तों पर बहुत शानदार कविता लिखी है।
शायद ही किसी भाषा में दो पड़ोसी कवियों पर कोई कविता लिखी गयी हो। यह कविता खरे साहब की मानसिक गुत्थियों को जानने में सहायक सिद्ध होती है। लेकिन मेरा सम्बन्ध उनके रचनाकार व्यक्तिव से अधिक है। उनके निधन के बाद अनेक लोगों ने इसकी ओर इशारा भी किया है अपने संस्मरणों में और टिप्पणियों में। खरे साहब से बहुत अधिक तो मेरा जुड़ाव नहीं था लेकिन एक बार वे अपने पुराने स्कूटर को चलाते हुए मेरे घर आये और साहित्य तथा पत्रकारिता के कई रोचक किस्से भी सुनाये। मैंने उनके बारे में यह सुन रखा था कि वे अतिरेक एवं अतिरंजना में भी बातें करते हैं। तथा सामने वाले पर क्रोध भी करते हैं लेकिन मेरा कोई ऐसा अनुभव नहीं हुआ। यद्यपि जब उनके एक लेख के विरोध में मैंने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार लौटा दिया और उनके उस करारा जवाबी लेख लिखा तो मुझसे उन्होंने संवाद थोड़े दिन के लिए बंद जरुर किया पर बाद में वे सामान्य भी हो गए थे।
हिन्दी अकैडमी के उपाध्यक्ष होने पर उन्होंने मुझसे पूछा भी कि क्या आप केदारनाथ सिंह पर कोई लेख लिखना पसंद करेंगे इंद्र प्रस्थ भारती के लिए। उनसे महापंडित राहुल संकृत्यायन और हिन्दी भूषण शिव पूजन सहाय की 125 वीं जयन्ती पर हिन्दी अकैडमी से एक समारोह करने की भी बात हुई। वे हिन्दी अकैडमी के ढांचे से भी संतुष्ट नहीं थे।
इसी पत्रिका में विजय मोहन सिंह ने उनकी लालटेन जलना कविता प्रकाशित की थी। जब वह हिन्दी अकैडमी के सचिव थे। इस एक कविता ने साहित्य जगत को स्तब्ध कर दिया था और तब सबने उनका लोहा मान लिया था। जिस तरह केदार जी “जमीन पाक रही है” से चर्चा में आये थे, उसी तरह “सबकी आवाज़ के परदे में” संग्रह से खरे साहब चर्चा में आये। उस पर उन्हें साहित्य अकैडमी का पुरस्कार मिलना चाहिए था।
खरे साहब इससे वंचित रहे। उनके स्वाभाव या मन में जो कड़वाहट थी उसका एक कारण तो साहित्य अकैडमी से उनका तबादला था। दूसरा अकैडमी पुरस्कार का न मिलना। वे प्रतिभा के विस्फोट थे और उन्हें लगता था कि उन्हें वह पद प्रतिष्ठा नहीं मिली जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। अशोक वाजपेयी से उनका राग द्वेष चलता था। अज्ञेय के वे कटु आलोचक थे लेकिन रघुवीर सहाय के प्रशंसक थे। उन्हें युवा कविता में बहुत दिलचस्पी थी। एक बार उन्होंने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह में 65 युवा कवियों का जिक्र किया था। देवी प्रसाद मिश्र, कुमार अम्बुज उनको विशेष पसंद थे और ये दोनों भी खरे साहब के प्रशंसक थे।
खरे साहब किसी लेखक संगठन में नही थे पर वे प्रगतिशीलों और कलावादियों के बीच सेतु का कम करते थे। वे विचारों से कांग्रेसी प्रतीत होते थे। राजीव गांधी से मुलाकात को लेकर नेहरु गांधी परिवार से रिश्ते नामक पर एक कविता भी उनकी पहल में आयी थी, तब वे फिर चर्चा में आये। मैंने एक बार फोन कर उनकी आलोचना भी की लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना।
वे अपनी वैचारिकी पर अड़े रहे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की कविता के वे कटु आलोचक थे। वे साहसी कवि थे। हिन्दी में प्रतिभाशाली और गंभीर कवि तो बहुत हुए पर साहसी और बेबाक कवि कम हुए। उन्होंने हिंदी में गद्य कविता को नया मुकाम दिया। उनके बाद कई कवियों ने गद्य काव्य लिखने की कोशिश की पर वे उनकी तरह सफल नहीं हुए। उन्होंने केदार नाथ सिंह और रघुवीर सहाय से अलग अपनी काव्य शैली विकसित की और हिन्दी कविता के ढांचे को भी बदलने का काम किया। यद्यपि बाद में उनके बोझिल गद्य काव्य से पाठक थोड़ा ऊबे भी लेकिन उनकी कविताओं का विषय और कथ्य हर बार नया होता था। इतनी नवीनता बहुत कम समकालीन कवियों में थी।
(विमल कुमार वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं। और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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