”27 मार्च को आए थे नानी के घर मेरा इलाज कराने, एक्सीडेंट के बाद पैरालाइज हो गया था, अम्मी हिन्दुस्तानी है उनको रोक लिया है, मेरे दो भाई-बहन हैं, मुझे अम्मी-अब्बू दोनों संभालते थे, मैं सरकार से यही कहना चाहता हूं कि जो माएं हैं उनको भेज दें, जो शादी-शुदा हैं उनको भेज दें, वहां (पाकिस्तान) से भी और यहां से भी, जिन्होंने ये हमला किया है उनको सज़ा दें, लेकिन हमारी क्या ग़लती है? हम अपनी मां को ले कर जाना चाहते हैं, हमारी मां को भी भेज दें हमारे साथ”
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आंसुओं को रोकने की लाख कोशिश के बावजूद दिल का दर्द आंखों से बह निकला, करीब 14-15 साल का लड़का ग़म में डूबे भारत से लौट रहा था, बेबसी और लाचारी के ये आंसू किसी एक आंख में नहीं बल्कि उन तमाम आंखों से झर रहे थे जो भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से इधर से उधर लौटाए जा रहे थे। किसी बेटे को अपनी मां के बग़ैर लौटना पड़ रहा है तो किसी मां को अपने एक साल के बच्चे से दामन छुड़ाकर जाना पड़ा। तो वहीं हालात के मारे किसी जोड़े को शादी के चंद रोज़ बाद ही अपने हमसफर का साथ और हाथ छोड़ने को मजबूर होना पड़ रहा है।
इंसानी जज्बातों की दर्द में डूबी एक नहीं ना जाने कितनी ही तस्वीरें हैं। विभाजन के वक़्त भारत से पाकिस्तान चले गए तुफ़ैल ख़ान को मुद्दत बाद भारत लौटने का वीज़ा मिला था लेकिन उन्हें भी भारी मन से लौटना पड़ा। ऐसे ना जाने कितने ही लोगों को भारी मन और नम आंखों के साथ भारत छोड़ना पड़ा और कुछ ऐसा ही हाल पाकिस्तान से भारत आने वालों का भी था।
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इन तमाम चेहरों को देखते हुए ज़ेहन में बार-बार उस रोते हुए लड़के की बात ज़ेहन में घूमती है कि ” जिन्होंने हमला किया है उनको सज़ा दें, हमारी क्या ग़लती है” काश कि इस सवाल का जवाब दे पाना आसान होता।
22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों की कायराना हरकत ने देश को ऐसा ग़म दिया जो शायद ही कभी भर पाएगा, इस हमले ने देश ही नहीं पूरी दुनिया को झकझोर दिया। जिसके बाद भारत सरकार ने पाकिस्तानी नागरिकों का वीज़ा रद्द कर दिया। ऐसा ही क़दम पाकिस्तान की तरफ से भी उठाया गया। दहशतगर्दों की हैवानियत ने जो किया वो तो खौफनाक था ही लेकिन उसके बाद दोनों देशों की तरफ से नागरिकों के वीज़ा रद्द करने पर एक ऐसा मानवीय संकट पैदा कर दिया, जिसे भले ही कूटनीतिक तौर पर सही कहा जा सकता है लेकिन दोनों तरफ से बिछड़ते लोगों को देखकर इंसानी जज़्बात बिलख उठते हैं।
भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर ऐसी तस्वीरों ने एक बार फिर 1947 में अपनों से बिछड़ कर जाते लोगों की याद ताज़ा कर दी।विभाजन ने कभी ना ख़त्म होने वाला ऐसा दर्द दिया जिसके क़िस्से आज भी उस दौर के बचे चंद लोगों की रो-रो कर सूनी हो चुकी आंखों में तैरते दिख जाते हैं। इस दर्द से निकला साहित्य आज भी हर पढ़ने वाले को रुला देता है। आज जब भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर वीज़ा की जिन्दगी जीने वालों का दर्द देखा तो 1994 में रिलीज़ हुई श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मम्मो’ की महमूदा बेग़म उर्फ मम्मो का किरदार आंखों के सामने तैर गया। फिल्म को 1995 में नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया था।
फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखने वाले ख़ालिद मोहम्मद ने मम्मो के किरदार के ज़रिए विभाजन के दौरान मिले ज़ख्म और उस पीढ़ी का दर्द बयां करने की कोशिश की थी जिन्होंने वापस लौटने की नाकाम कोशिश के दौरान बहुत कुछ झेला। नागरिकता, वीज़ा और डिपोर्ट ( Deport) होने की वहशत इस फिल्म में रह-रह कर रुला देती है।
फ़िल्म में एक जगह मम्मो ने 1947 में विभाजन के दौरान उस नरक को बयां किया जो उसने ख़ुद देखा और भोगा था, उन दिनों को याद करते हुए वो अपने नवासे रियाज़ को बताती है कि ”जिन्दगी में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके तजुर्बे ना ही हो तो अच्छा है, जैसे जीते जी जहन्नुम देख लेना, ख़ुदा वो वक़्त फिर कभी ना दिखाए, मैं और तुम्हारे नाना, हाथों में, जेबों में जो आ सकता वो लेकर पाकिस्तान जा रहे थे, हमें दूसरे मुहाजिरों के साथ बॉर्डर तक ले जाया गया, वहां से पैदल, क्या ज़माना था, क़यामत थी, आग, ख़ून, लूट-मार, लाशें, चीख़ें, रोंगटें खड़े हो जाते थे, हम चार सौ-पांच सौ जन थे, इधर से उस पार जा रहे थे, उस पार से भी इतने ही आ रहे थे, यहां से जाने वाले मुसलमान थे, वहां से आने वाले हिन्दू और सिख, मगर विपदा सबकी एक थी, अपना वतन, अपनी ज़मीन कर्बला बन गई थी मौला”
विभाजन के दौरान ज़मीन पर खींची लकीर ने सिर्फ साउथ एशिया का भूगोल ही नहीं बदला बल्कि तारीख़ में एक दर्दनाक अध्याय भी जोड़ दिया। और उस दौरान लोगों ने जो भोगा वो इतिहास की किताबों में ही नहीं बल्कि इंसानी दर्द की यादों के साथ किस्सों का भी हिस्सा हो गया जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा।
और महमूदा बेग़म की भी कहानी भी उन्हीं सच्ची कहानी से कहीं ना कहीं प्रभावित थी जिसे ख़ालिद मोहम्मद ने अपनी दादी को याद करते हुए श्याम बेनेगल की फ़िल्म में उतारने की कोशिश की।
महमूदा बेग़म से उनके शौहर ने परिवार से खिलाफ जाकर शादी की, विभाजन हुआ तो पानीपत में पैदा हुई महमूदा बेग़म उर्फ मम्मो अपने परिवार और रिश्तेदारों को छोड़ शौहर का हाथ थामे एक अनजानी जगह लाहौर (पाकिस्तान) के लिए निकल पड़ी, जब तक शौहर ज़िन्दा थे जिन्दगी ख़ूबसूरत थी लेकिन शौहर के दुनिया से जाते ही रिश्तेदारों ने मम्मो के लिए जिन्दगी जहन्नूम बना दी, मम्मो ने कई दफा भारत में अपनी बड़ी बहन को ख़त लिखा लेकिन बहन भी गुरबत में किसी तरह अपने नवासे को बड़ा करने में मसरूफ थी।
एक दिन अचानक ही मम्मो हाथ में वीज़ा लिए अपने पुरखों की ज़मीन पर दोबारा लौट आई। मम्मो का पाकिस्तान में कोई ना बचा था लिहाज़ा वो भारत में ही अपनी बहन और उसके 14 साल के नवासे के साथ आगे की ज़िन्दगी जीने की ख़्वाहिशमंद थी। और इसी उम्मीद में वो आए दिन वीज़ा ऑफिस के चक्कर लगाती है, कभी तीन महीने तो कभी 25 दिन की वीज़ा की बढ़ी मियाद के बीच मम्मो की जिन्दगी खिसक रही थी, इस कोशिश में वो वीज़ा ऑफिस के ‘अंडर द टेबल’ जुगाड़ का भी सहारा लेती है लेकिन नए अफसर की आमद मम्मो, उसकी बहन और मासूम रियाज़ की जिन्दगी में तूफान ले आता है।
रमज़ान की रौनकों और चहल-पहल के बीच मम्मो अपनी बहन और नवासे के लिए तोहफे खरीद रही थी, ईद के तीन रोज़ ही बचे थे कि अचानक दरवाज़े पर दस्तक ने दोनों बूढ़ी बहनों को डरा दिया, दरवाज़े पर खड़े पुलिस ने मम्मो को तुरंत भारत छोड़ने का आदेश दिया, उसे वीज़ा ख़त्म होने पर घुसपैठिया का नाम दे दिया, एक बुजुर्ग जिसके आगे-पीछे कोई ना था वीज़ा ख़त्म होने पर घुसपैठिया करार दे दी गई।
मम्मो को घसीटते हुए मुंबई के उस छोटे से घर से पुलिस डिपोर्ट के लिए ले जा रही थी, बड़ी बहन हाथ में मम्मो का बुर्क़ा, पानदानी और पर्स लिए दौड़ी लेकिन जब तक बूड़े क़दम घर की सीढ़ियों से उतरते पुलिस की गाड़ी फर्राटा भर चुकी थी दोनों बहनें बस हाथ बढ़ाए एक-दूसरे को थाम लेने की कोशिश करती रह गईं।
ईद के लिए मम्मो ने मासूम रियाज़ के लिए बड़े शौक से शेरवानी और अलीगढ़ी पैजामा बनवाया था, जिस वक़्त मम्मो को पुलिस ले जा रही थी रियाज़ अपनी शेरवानी के ट्रायल के लिए ट्रेलर के पास गया हुआ था वो ईद का नया जोड़ा पहने मम्मो नानी को दिखाने घर लौटा तो मम्मो नानी जा चुकी थी, 14 साल का रियाज़ अपनी नानी को एक आख़िरी बार देखने के लिए वीज़ा ऑफिस दौड़ा जहां उसे पता चला कि उसकी मम्मो नानी को पाकिस्तान भेजने के लिए मुंबई सेंट्रल से किसी ट्रेन में बैठाया गया है। बेतहाशा दौड़ता रियाज स्टेशन पहुंचा स्टेशन पर लगी ट्रेन की हर खिड़की में अपनी मम्मो नानी को तलाश रहा था, मम्मो नानी दिखाई दी तो ट्रेन ने सीटी दे दी और गाड़ी चल पड़ी रियाज़ अपनी मम्मो नानी का हाथ एक आख़िरी बार छू लेने के लिए दौड़ता है लेकिन ट्रेन की रफ़्तार नन्हें क़दमों से तेज़ थी रियाज़ स्टेशन पर खड़ा रह गया और मम्मो नानी को ना चाहते हुए भी पाकिस्तान की जानिब चले जाना पड़ा।
मम्मो नानी एक बार फिर अपनों से बिछड़ गई और इस बार तो उनका हाथ थामने वाला भी कोई ना था वो तन्हा थीं, नन्हा रियाज़ पीछे छूट गया और बैकग्राउंड में एक गूंज सुनाई दी…..
ये कैसी सरहदें उलझी हुई हैं पैरों में
हम अपने घर की तरफ़ रुक के बार-बार चले
ना जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी है
नज़र में धुल जिगर में लिए क़रार चले।
(नाज़मा ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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