नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने एक ओर तबाही और बर्बादी मचाई, वहीं दूसरी ओर मुट्ठीभर अमीरों के पास सारी संपदा जमा होने लगी। समाज में असंतोष बढ़ा, लेकिन इसके साथ ही एक खुशहाल मध्यवर्ग भी उभरा। स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के अध्यापकों के बच्चों से लेकर बैंकों के क्लर्कों तक के बच्चे विदेशों में पढ़ने और नौकरी करने जाने लगे। महानगरों में संपत्ति के दाम बढ़ने लगे। कार खरीदना मध्यवर्ग की समृद्धि का प्रतीक बन गया। परंतु, आज भूमंडलीकरण की नीतियों की असफलता और बढ़ते संरक्षणवाद के कारण क्या मध्यवर्ग की समृद्धि का गुब्बारा फूट रहा है?
देश के प्रमुख अखबारों जैसे इकॉनॉमिक टाइम्स और फाइनेंशियल टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के मध्यवर्ग की आर्थिक स्थिति काफी चिंताजनक है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि “पिछले एक दशक में इस वर्ग की आर्थिक आय आधी रह गई है और इसकी वित्तीय स्थिरता काफी कमजोर हुई है।” रिपोर्ट में जीडीपी वृद्धि पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों पर भी गहरी चिंता जताई गई है, जो वर्तमान में एक बड़ा संकट झेल रही है।
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दशक में मध्यवर्ग की वित्तीय स्थिरता में कमजोरी के तीन प्रमुख कारण हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण है-आय का ठहराव और उसमें आई गिरावट। इसमें कहा गया है कि मध्यवर्ग की औसत वार्षिक आय पिछले दस सालों में लगभग 10.5 लाख रुपये पर स्थिर रही। महंगाई के साथ समायोजित करने पर, यानी वास्तविक रूप में, यह आय प्रभावी रूप से आधी रह गई है। इसका अर्थ है कि मध्यवर्ग की क्रयशक्ति में भारी कमी आई है। उदाहरण के लिए, 2015 में दस लाख की आय से एक परिवार सालभर आराम से जीवन चला सकता था, लेकिन 2025 में महंगाई के कारण यह राशि अपर्याप्त हो गई है, और 2015 जैसा जीवन चलाना मुश्किल हो गया है।
दरअसल, स्वचालन (Automation) से नौकरियों की संख्या में कमी और आय में गिरावट तो यह वर्ग पहले से ही झेल रहा था। अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence या AI) ने बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग की पारंपरिक नौकरियों-जैसे बैंक टेलर, ट्यूटर, शिक्षक, ऑफिस क्लर्क, और आईटी प्रोफेशनल-को खत्म करना शुरू कर दिया है। हालांकि, इससे नई तरह की नौकरियां और प्रशिक्षक आदि के अवसर खुलते हैं, लेकिन होने वाले भारी नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती। अगले दशक में ये चीजें मध्यवर्ग को और भी बुरी तरह प्रभावित करेंगी।
पूंजीवाद जैसे-जैसे विकसित होता जाएगा, वैसे-वैसे स्वचालन बढ़ता जाएगा। जैसे-जैसे पूंजी की जैविक संरचना (Organic Composition of Capital) ऊंची होती जाएगी, वैसे-वैसे उत्पादों और सेवाओं में जीवित मानव श्रम की आवश्यकता घटती जाएगी, और नौकरियों का नुकसान होगा। बावजूद इसके कि तकनीकी प्रगति नई तरह के कुशल श्रम की मांग बढ़ाती है, समय के साथ जीवित मानव श्रम की मांग अंततः कम होती जाएगी। उदाहरण के लिए, पहले आईटी सेक्टर और बैंकों में बड़े पैमाने पर भर्तियां होती थीं, लेकिन पहले स्वचालन और अब AI टूल्स ने आईटी प्रोफेशनल्स और बैंक कर्मचारियों को हटाना शुरू कर दिया है। यह केवल एक उदाहरण है; समाज के हर क्षेत्र में ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं, जहां इसका असर पड़ रहा है। यह परिघटना समय के साथ और तेज होने वाली है।
पूंजीपति वर्ग के लिए समस्या यह है कि एक ओर इससे मुनाफे की दर में गिरावट आती है (नौकरियों के कम होने से वेतन पर खर्च कम होने के बावजूद, क्योंकि मुनाफा उत्पादों और सेवाओं में निहित जीवित मानव श्रम पर निर्भर करता है, न कि मशीनी श्रम पर)। परिणामस्वरूप, पूंजीगत निवेश में कमी आती है, और आर्थिक विकास पर संकट व मंदी का खतरा बढ़ता है। दूसरी ओर, यह उपभोग से जुड़ी मांग को कम करता है, साथ ही मध्यवर्ग में कर्ज लेकर जीवन स्तर बनाए रखने या उसे नीचे न गिरने देने की प्रवृत्ति और बाध्यता दोनों को बढ़ाता है। उदाहरण के लिए, यदि मध्यवर्ग 2015 के जीवन स्तर को बनाए रखना चाहता है, तो उसे 2025 में अपनी खोई वास्तविक आय के बराबर या उससे अधिक कर्ज लेना पड़ेगा।
लेकिन बात शायद इससे भी आगे निकल चुकी है। फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित अपने लेख में सौरभ मुखर्जी कहते हैं कि “मध्यवर्ग अब जीवित रहने के लिए कर्ज ले रहा है, यानी वह कर्ज घर, शिक्षा, या गाड़ी जैसे निवेश के लिए नहीं, बल्कि रोजमर्रा के खर्चों के लिए ले रहा है।” RBI के डेटा के हवाले से मुखर्जी बताते हैं कि “क्रेडिट कार्ड और रिटेल लोन का हिस्सा बैंकिंग सिस्टम में 4% से बढ़कर 11% हो गया है। गोल्ड लोन भी काफी बढ़ा है। लोग सोना गिरवी रखकर जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं।” यह चक्रीय मंदी (Cyclical Slowdown) के साथ मिलकर मध्यवर्ग को वित्तीय संकट में डाल रहा है।
रिपोर्ट का सारांश यह है कि आर्थिक मंदी भले ही अस्थायी हो, लेकिन आय का ठहराव और स्वचालन से नौकरियों का नुकसान संरचनात्मक समस्याएं हैं। ये समस्याएं अगले दशक में भी मध्यवर्ग पर ‘भारी हानिकारक’ प्रभाव डालेंगी। मुखर्जी ने चेतावनी दी है कि यदि इनका सक्रिय रूप से समाधान नहीं किया गया, तो मध्यवर्ग की स्थिति और खराब होगी, जो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय है। किसी भी पूंजीवादी विशेषज्ञ का मानना है कि मध्यवर्ग ही उपभोग और वृद्धि का मुख्य चालक वर्ग है।
मुखर्जी ने आयकर डेटा और RBI की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट का उपयोग करते हुए दिखाया है कि घरेलू बचत 2022-23 में जीडीपी का मात्र 5.1% थी, जो 47 साल का सबसे निचला स्तर है। इसका अर्थ है कि मध्यवर्ग के लोग कम खर्च करेंगे या केवल जीवन के लिए आवश्यक चीजों पर ही खर्च करेंगे, और बचत के लिए वे न्यूनतम खरीदारी करेंगे।
हालांकि, मध्यवर्ग अभी भी काफी खर्च कर रहा है, यहां तक कि विलासितापूर्ण जीवन के लिए भी। यह खर्च वह कर्ज लेकर कर रहा है। यह पूंजीवादी सरकारों की व्यवस्था पर उसके भरोसे को दर्शाता है, जिसके अनुसार वह मानता है कि सरकार उसे अंततः उबार लेगी। देखना है कि यह स्थिति कब तक चलती है? यह भी दिलचस्प होगा कि मध्यवर्ग कब तक मौजूदा व्यवस्था पर अपना भरोसा बनाए रखता है, क्योंकि आने वाला समय और भी भयावह होने वाला है।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और टिप्पणीकार हैं)