स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में लेखकों-कवियों की थी सहभागिता

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आजादी की लड़ाई में गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, राहुल सांकृत्यायन और रामबृक्ष बेनीपुरी और उग्र तथा अज्ञेय ने भाग लिया था पर प्रेमचन्द, प्रसाद और निराला जैसे लेखकों ने भाग नहीं लिया था। उस समय चल रहे किसान आंदोलन में भी कम लेखकों ने भाग लिया था। राहुल सांकृत्यायन और बेनीपुरी ऐसे लेखक थे जिन्होंने दोनों संघर्ष में खुलकर भाग लिया था। स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में राहुल सांकृत्यायन और बेनीपुरी सहजानंद सरस्वती के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे पर अब कुछ ऐसे पत्र सामने आए हैं जिनसे पता चलता है कि शिवपूजन सहाय और बाबा नागार्जुन भी इस आंदोलन से गहरे रूप से जुड़े थे।

सहजानंद सरस्वती ने अपनी आत्मकथा मेरे जीवन संघर्ष जब हजारीबाग जेल में लिख रहे थे तो राहुल सांकृत्यायन भी उसी जेल में बैठकर अपनी जीवन यात्रा लिख रहे थे जो अब ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। आज हिंदी की दुनिया में यह सवाल अक्सर उठता है कि उसके बड़े लेखक सामाजिक आंदोलनों में भाग नहीं लेते। आज के लेखक को किसानों-मजदूरों से कोई मतलब नहीं रह गया है भले ही भी वे प्रतिबद्ध और प्रगतिशील होने का दावा क्यों न करते हों लेकिन एक जमाना था जब हिंदी के कुछ बड़े लेखकों ने किसान आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। उन्होंने उस जमाने के सबसे बड़े किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

प्रसिद्ध आलोचक एवम विद्वान अवधेश प्रधान द्वारा हाल ही में संपादित स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा “मेरा जीवन संघर्ष” आयी है जिसको पढ़ने से यह पता चलता है कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन रामवृक्ष बेनीपुरी, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे लोगों ने स्वामी सहज़ानन्द सरस्वती के किसान आंदोलन का न केवल समर्थन किया बल्कि उसमें भाग भी लिया था और कई लोगों ने उन पर कविताएं भी लिखी थीं। स्वामी जी उस जमाने मे इतने लोकप्रिय हो गए कि उन पर लोकगीत भी लिखे गए।

सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा “मेरा जीवन संघर्ष” के अंग्रेजी अनुवादक एवं भारत में सहजानंद नेतृत्व में हुए किसान आंदोलन के अमरीकी अध्येयता वाल्टर हाउज़र के सहयोगी कैलाश चन्द्र झा ने सहजानंद के कई दुर्लभ पत्रों को पहली बार हिंदी साहित्य के सामने उजागर किया है जिसमें तीन महत्वपूर्ण पत्र आचार्य शिवपूजन सहाय के भी हैं जिससे पता चलता है कि सहजानंद के किसान आंदोलन में शिवपूजन सहाय भी गहरे रूप से जुड़े हुए थे और वह तो जेल जाते-जाते बच गए थे। हालांकि अवधेश प्रधान द्वारा संपादित इस पुस्तक में शिवपूजन सहाय के पत्रों को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि ये पत्र अभी हाल ही में कैलाश चन्द्र झा को मिले हैं जब कैलाश चन्द्र झा ने वाल्टर हाउजर के निधन से दो वर्ष पूर्व उनकी सारी सामग्री को अमेरिका से लाया। शिवपूजन सहाय के इन ऐतिहासिक पत्रों को स्त्री लेखा पत्रिका ने प्रकाशित किया है।

कैलाश चन्द्र झा को जेपी, राहुल सांकृत्यायन और नागार्जुन के स्वामी सहजानंद के नाम लिखे पत्र भी मिले हैं। कैलाश चन्द्र झा का कहना है कि भदंत आनंद कौसल्यान, बाबू गंगा शरण सिंह और बाबा नागार्जुन के 40 पत्र उन्हें मिले हैं जिनसे स्वामी सहजानंद के आंदोलन पर नया प्रकाश पड़ता है। कैलाश चंद्र झा और हाउजर ने मिलकर स्वामी सहजानंद की आत्मकथा का अंग्रेजी में वृहद अनुवाद किया है।

स्वामी सहजानंद सरस्वती केवल राजनीतिक आजादी के समर्थक नहीं थे बल्कि ज़मींदारों से भी देश वासियों को मुक्त कराना चाहते थे। किसानों का शोषण केवल अंग्रेज ही नहीं यहां के जमींदार भी करते थे। इसलिए स्वामी जी ने 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना की। स्वामी सहजानंद की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी जनसभा में महात्मा गांधी से अधिक लोग आते थे और उसे जमाने में पटना में एक-एक लाख की भीड़ स्वामी जी के नाम पर जमा हो जाती थी।

स्वामी सहजानंद का संबंध अपने समय के बड़े नेताओं से तो था ही, उनका घनिष्ठ संबंध हिंदी के कई बड़े लेखकों से भी था और उन लोगों ने उनके किसान आंदोलन में खुलकर भाग लिया था। अब तक हम लोग यही जानते रहे थे कि स्वामी सहज़ानंद सरस्वती के किसान आंदोलन में महा पंडित राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, दिनकर, बाबा नागार्जुन जैसे लेखक शामिल थे लेकिन पिछले दिनों हिंदी साहित्य की दुनिया में एक नए तथ्य का पता चला है कि उस आंदोलन में कुछ और लेखकों ने भाग लिया जिनमें शिवपूजन जी जैसे लेखक भी थे जिनकी छवि एक संत साहित्यकार की रही है जिसने निर्विकार और निस्पृह भाव से साहित्य की सेवा करते हुए अपना जीवन होम कर दिया लेकिन उनके बारे में बहुत सारी बातें लोग आज भी नहीं जानते। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि शिवपूजन सहाय बड़े ही आत्म गोपन व्यक्ति थे और हमेशा पर्दे के पीछे रहे।

शिवपूजन सहाय ने स्वामी सहजानंद को 1939 में ये पत्र लिखे थे। संभव है शिवपूजन सहाय ने स्वामी जी को और भी पत्र लिखे हो क्योंकि इन पत्रों में एक 4 अगस्त 1939 के एक पत्र का भी जिक्र है और इन पत्रों से पता चलता है कि स्वामी जी के साथ शिवपूजन सहाय का संवाद काफी पुराना और लंबा था। ये पत्र शाहाबाद जिला किसान सभा के लेटर पैड पर लिखे गए हैं। जाहिर है कि शिवपूजन सहाय भी इस किसान सभा के कर्ता-धर्ता रहे होंगे तभी उन्होंने इस लेटर हेड पर स्वामी जी को यह पत्र लिखे थे।

अगर इन सारे प्रसंगों को देखा जाए तो पता चलता है कि 1930 के दशक में हिंदी के लेखकों ने स्वामी जी के किसान आंदोलन में न केवल भाग लिया बल्कि उनकी रचनाओं में भी किसान जीवन सामने आया। प्रेमचन्द के किसान संबंधी लेखन के पीछे भी अवध के किसानों के विद्रोह की बात कही जाती रही है पर स्वामी सहजानंद के बिहार में किसान आंदोलन की आंच उत्तरप्रदेश तक पहुंची थी इसलिए लेखकों की किसान चेतना के निर्माण में स्वामी जी का भी हाथ रहा होगा। बेनीपुरी ने विशाल भारत में किसानों की समस्यायों पर लेख भी लिखे थे। राहुल सांकृत्यायन पर जब लाठी से हमला किया गया तो बेनीपुरी ने उसके विरोध में लिखा भी था। राहुल सांकृत्यायन और स्वामी सहजानंद हजारी बाग जेल में साथ-साथ बन्द थे।

अवधेश प्रधान ने स्वामी सहजानंद की आत्मकथा “मेरा जीवन संघर्ष” के साथ-साथ उनकी एक और पुस्तक “महारुद्र का महा तांडव” को भी इसके साथ शामिल किया है क्योंकि “मेरा जीवन संघर्ष” में केवल 1940 तक की घटना का जिक्र है जबकि दूसरी पुस्तक 1948 में लिखी गयी और उसमें उसके बाद की घटनाओं का जिक्र है। स्वामी जी ने मेरा जीवन संघर्ष समेत 8 किताबें हजारीबाग जेल में लिखी थी जब वे 1940 से 42 तक उसमें रहे। लेकिन उनकी आत्मकथा उनके जीते जी नहीं छपी। उसका भी एक दिलचस्प किस्सा है।

कैलाश चन्द्र झा को हाल ही में स्वामी सहजानंद और किताब महल के बीच पत्र-व्यहार में से एक पत्र मिला है जिसमें इस पुस्तक के न छपने की कहानी छिपी है। अब तक लोगों को यह नहीं पता था कि आखिर क्यों उनकी यह आत्मकथा उनके जीवन काल में नहीं प्रकाशित हुई। इस पत्र से पता चलता है कि स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा को प्रकाशित करने के लिए किताब महल को पांडुलिपि भेजी थी लेकिन प्रकाशक ने यह शर्त रखी की इस किताब को थोड़ा रोचक बनाइये और यह काम किसी दूसरे लेखक से करवाया जाए लेकिन स्वामी जी को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया और उन्होंने अपनी पांडुलिपि किताब महल से वापस ले ली थी।

स्वामी सहजानंद प्रकाशकों की शर्त के आगे झुकना नहीं चाहते थे क्योंकि वे बड़े स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उनकी आत्मकथा उनके निधन के बाद सीताराम ट्रस्ट से निकली थी। यह ट्रस्ट भी स्वामी जी ने बनाया था। इस जीवनी के कई संस्करण बाद में निकले पर अवधेश प्रधान द्वारा संपादित पुस्तक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उसमें राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव राजेश्वर राव, स्वतंत्रता सेनानी शीलभद्र याजी, पुराने किसान नेता किशोरी प्रसन्न सिंह, प्रसिद्ध वामपन्थी नेता भोगेन्द्र झा, आचार्य हरि बल्लभ शास्त्री, आचार्य श्रुति देव शास्त्री के संस्मरण भी शामिल हैं। साथ ही जाने माने दिवंगत अंग्रेजी पत्रकार अरविंद नारायण दास और अशोक कुमार का एक मूल्यांकन परक लेख भी है। इसके अलावा दिनकर, लक्ष्मी त्रिपाठी, कन्हैयालाल शर्मा आदि की स्वामी सहजानंद पर लिखी गई कविताएं भी शामिल की गई हैं। इस तरह पहली बार स्वामी जी के व्यक्तित्व एवं उनके अवदान पर एक संपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है। इससे स्वामी जी को नए सिरे से समझा जा सकता है। वैसे ग्रंथ शिल्पी ने 2000 में यह किताब छापी थी। इसमें कुछ नई सामग्री जोड़कर इसे अद्यतन किया गया है।

स्वामी जी विलक्षण संन्यासी थे पर जब जमींदारों के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस ने उनका साथ नहीं दिया तो महात्मा गांधी से भी उनका मोहभंग हो गया और कांग्रेस ने 1939 में उनको पार्टी से निकाल दिया। स्वामी जी का मतभेद गांधी जी के अलावा बेनीपुरी से भी था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है लेकिन उनक़ा नाम नहीं लिया है। दरअसल जब बेनीपुरी ने जमींदारी उन्मूलन का पहली बार नारा दिया तब स्वामी जी ने समर्थन नहीं किया था क्योंकि उन्होंने इसके लिए उपयुक्त समय नहीं माना था लेकिन बाद में वे खुल कर बोलने लगे।

पुस्तक के अनुसार स्वामी जी ने जब कांग्रेस से पूरी तरह इस्तीफा दे दिया तो सीपीआई ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए प्रस्ताव दिया था लेकिन स्वामी जी ने उसमें शामिल होने से मना कर दिया था, हालांकि आजादी के बाद उन्होंने 18वाम संगठनों को मिलकर एक वाम मोर्चा बनाने की कवायद की थी।

दरअसल स्वामी जी का मोहभंग एकल राजनीतिक दलों से हो गया था वे एक व्यापक संयुक्त मोर्चे के पक्षधर हो गए थे लेकिन आज़ादी के बाद 26 जून 1950 को ही उनका निधन हो गया इसलिए उनका सपना पूरा नहीं हो सका। कैलाश चन्द्र झा का कहना है कि नए तथ्यों के आलोक में स्वामी जी पर एक अलग से किताब लिखने की जरूरत है ताकि उनक़ा सम्यक मूल्यांकन हो सके।

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं)

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