भारतीय जेलों में विचाराधीन कैदियों की दयनीय हालत

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“जेल को एक ऐसी जगह के रूप में जहां मुक़द्दमे के बाद दोषी ठहराए गए व्यक्तियों को सज़ा के तौर पर भेजा जाता है,भारतीय जेलों में इसका अर्थ गायब हो गया है, जिनकी 80 फ़ीसदी आबादी अंडर ट्रायल और नज़रबंदों की है। भारतीय शासन और न्यायपालिका लोगों को बिना मुक़द्दमा या दोषी ठहराए ही जेल भेजती है। हर कैदी प्रचलित जेल मैनुअल द्वारा बंधा हुआ है। महाराष्ट्र जेल मैनुअल कैदियों को गाना गाने या ज़ोर से हंसने की मनाही करता है। (अध्याय 24, जेल अनुशासन – महाराष्ट्र राज्य का जेल मैनुअल, नियम 19(1) में जेल ऐक्ट 1894 के एस 45 के अर्थों के अंदर जेल के अपराध के तौर पर माने जाने वाले कामों की सूची देता है और नियम 19(1) की मनाही करता है–जब किसी अधिकारी द्वारा हुक्म दिया गया हो कि बात करना, गाना, ज़ोर से हंसना और ज़ोर से बोलना।) मुझे हंसने और बात करने वाला नियम अपमानजनक लगा।

अगर कोई हंसने वाली बात हो, तो मैं या कोई और कैदी उसे दबाने और चुप होने को मजबूर क्यों हो? जैसे ‘ऊंची आवाज़ में बोलने’ के लिए यह संदर्भ पर निर्भर करता है। अंडा सेल में बंदी (जब कैदी बंद हो जाते हैं) के बाद, क़ैदियों को एक-दूसरे से कैसे बात करनी चाहिए, जब उनके सेल एक-दूसरे से काफ़ी दूरी पर होते हैं? जब बंदी खुलती है, तो हम आमतौर पर सामान्य ढंग से बोलने लायक होते हैं। पर अगर कोई एक-दूसरे के स्वास्थय या आम तंदरुस्ती जैसी चीज़ों पर दूर से चर्चा करना चाहता है, ऊंची आवाज़ में बोलने के सिवा कोई चार नहीं होता। जहां तक गाने की बात है, मेरे सहमुलजिमों में सांस्कृतिक कलाकार भी थे, जिन्होंने गीत लिखे, संगीत तैयार किया और वे गीत गाए, जिन्होंने हमें भी गाने को प्रेरित किया। यही कारण है कि ये पुराने नियम नियमित रूप से तोड़े गए थे।”

ये शब्द गौतम नवलखा के लेख में से लिए गए हैं, जो उन्होंने जेल में लिखा है। इस लेख के साथ भारत में विचाराधीन कैदियों की गंभीर हालत ने एक बार फिर सारे देश का ध्यान खींचा है। हाल ही में गौतम नवलखा जमानत पर जेल से रिहा हुए हैं। गौतम नवलखा उन 16 कैदियों में से एक हैं, जिन्हें प्रसिद्ध भीमा कोरेगांव मुक़द्दमे के नाम से जाने जाते एलगार परिषद मुक़द्दमे में गिरफ़्तार किया गया था। इन क़ैदियों में मुल्क़ के बड़े बुद्धिजीवी, वकील, लेखक और जनवादी अधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं। जेल में इन पर दबाव था कि पूरी तरह शासकों के सांप्रदायिक फासीवादी एजेंडे के सामने पूर्ण समर्पण कर दें या साजिशी तरीक़े से फंसाए गए मुक़द्दमे में जेलों की बेहद बुरे हालातों में तिल-तिल करके मरने के लिए तैयार रहें।

इनमें से ही एक बुजुर्ग कैदी फ़ादर स्टेन स्वामी; जिन्होंने अपनी ज़िंदगी आदिवासियों के हक़ों के लिए चलने वाले संघर्ष के नाम लगा दी, जेल में ही चल बसे। गौतम नवलखा ने इस लेख में भारत की जेलों की बुरी हालतों को सामने रखा है। पूंजीवादी व्यवस्था की न्याय प्रणाली भी नंगी हो गई है। ख़ासकर अंडर ट्रायल (विचाराधीन) क़ैदियों का मामला भारतीय न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता का मुंह चिढ़ा रहा है।

वर्गीय समाज में न्याय–आज के पूंजीवादी लोकतंत्र में कहने को तो क़ानून की नज़रों में सभी नागरिक बराबर हैं, पर हक़ीक़त यह है कि हर नागरिक की न्याय हासिल करने तक की पहुंच एक जैसी नहीं है। बड़े-बड़े अपराधी जिन्हें शासक वर्ग की सरपरस्ती हासिल होती है,खुले घूम रहे हैं। कई साबित हो चुके गंभीर अपराधों में सज़ा काट रहे दोषी, शासकों की कृपा पर, अपनी क़ैद के दौरान आमतौर पर बाहर घूमते पाए जाते हैं। पेरॉल,फ़रलो कई प्रकार के अन्य क़ानूनी तरीक़ों से उनका जेल से बाहर आना-जाना आम बात है।

जेलों से रिहाई के लिए सरकारी छूट की सुविधा भी शासकों के चहेते अपराधियों के लिए आरक्षित है। बलात्कार जैसे गंभीर अपराधियों की सज़ा माफ़ कर दी जाती है। यहां तक कि कैदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की फि़क्रमंदी के रूप में, इस कार्रवाई को भारत की न्याय व्यवस्था के महिमामंडन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कहा जाता है कि संविधान में हासिल अधिकारों की रक्षा के लिए न्याय प्रणाली हर समय तैयार-बर-तैयार रहती है। ऐसी भी मिसालें हैं, जब हमारी अदालतें,शासक वर्ग के चहेते कुछ विशेष नागरिकों की आज़ादी के हक़ के प्रति इतना संवेदनशील हुई हैं कि आधी रात को भी अदालतें बैठ जाती हैं।

दूसरी ओर यू.ए.पी.ए. जैसे दमनकारी काले क़ानूनों के दुरुपयोग से, हज़ारों लोग बिना किसी न्याय की उम्मीद से जेलों में सड़ रहे हैं। क़ानून में असहमति का हक़ होने के बावजूद बड़ी संख्या में असहमत आवाज़ें जेल में हैं। हमारे मुल्क़ में देश की सुरक्षा के नाम पर,अभिव्यक्ति और असहमति की आज़ादी के अधिकार को बुरी तरह कुचल दिया गया है। भारत की जेलों में बड़ी संख्या में विचाराधीन क़ैदी ऐसे हैं,जिन्हें तथाकथित अपराध के मुताबिक़ होने वाली अधिक से अधिक सज़ा से भी ज़्यादा समय वे जेल में गुज़ार चुके हैं, पर आज तक उनके मुक़द्दमे भी ढंग से शुरू नहीं हुए। पूंजीवादी राज्य, जो पूंजीपतियों की सेवा करता है, का ही अटूट अंग है न्यायपालिका,जो सारे नागरिकों के लिए निष्पक्ष नहीं हो सकती।

दिसंबर 2022 की ‘फ़्रंटलाइन’ पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 47 सालों के जी प्रकाश ने 22 साल जेल में बिना मुक़द्दमा शुरू हुए गुज़ार दिए, क्योंकि उसके लिए 30,000 रुपए का जमानती बांड भरने वाला कोई नहीं था। उत्तर प्रदेश के प्रकाश को रेलवे पुलिस ने जम्मू में अक्टूबर 2000 में गिरफ़्तार किया था। उसके दोष-पत्र में लिखा गया, “दोषी पागल लगता है और उसका मुक़द्दमा शुरू करने के लिए डॉक्टरी जांच की ज़रूरत है।” अधिकारियों को उसका नाम पता नहीं था। उसके केस का नाम रखा गया ‘राज्य बनाम इंसान जिसकी फ़ोटो फ़ाइल में लगा दी गई है’ इस मुक़द्दमे में एक पिटीशन के जवाब में सितंबर 2022 में जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने जवाब दिया, “दोषों को उनके मूल्य पर लाया जाए, तो न्यायिक, पुलिस और जेल अधिकारियों की स्थिति बहुत ख़राब है।”

अदालत को इस नतीजे तक पहुंचने के लिए इतना समय लग गया कि इस दौरान तथाकथित दोषी अपने जीवन के क़ीमती 22 वर्ष जेल में तबाह कर चुका था। आख़िर संविधान दिवस के दिन प्रकाश की रिहाई हुई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने प्रकाश की हालत पर अफ़सोस जताने की रस्म पूरी करते हुए उसे रिहा करने का हुक्म दिया। न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और गुणगान के लिए ऐसी रिहाइयां करना शासकों की ज़रूरत होती हैं। यह कैसा न्याय है? किसी की ज़िंदगी तबाह करके भी तुम उसके मुक्तिदाता बने रह सकते हो। मुल्क़ की जेलों में लाखों की संख्या में इस तरह ज़रूरतमंद विचाराधीन क़ैदी इतने ख़ुशकि़स्मत नहीं हैं कि वे सरकार की इस तरह की कृपा दृष्टि का पात्र बन सकें।

2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की जेलों में चार में से तीन अपने मुक़द्दमे शुरू होने के इंतज़ार में विचाराधीन कैदी हैं। इनमें से आधा जिला जेलों में ही है। पर ख़ास बात यह है कि जेल के क़ैदियों की बहुत बड़ी संख्या मेहनतकश आबादी की है। दलित, अल्पसंख्यक और ग़रीब आदिवासी आबादी सबसे ज़्यादा पीड़ित है। तीन में से दो विचाराधीन कैदी अनुसूचित जातियों,अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी श्रेणी में आते हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इन समुदायों के लोगों को ग़ैर-क़ानूनी नज़रबंदियां, झूठे इक़बालिया बयान और गिरफ़्तारी का मुक़ाबला करने के मामले में कमज़ोर हैं और उनके पास अक्सर जमानत लेने का कोई साधन नहीं होता।

पांच में से दो विचाराधीन कैदी अनपढ़ हैं या 10 से कम कक्षा तक पढ़े हैं। 2020 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि उस वर्ष में ‘अपराध प्रक्रिया संहिता’ के भाग 436-ए के मुताबिक़ आरोप के अनुसार होने वाली सज़ा का आधा समय गुज़रने के बाद, निजी बांड पर रिहाई के हक़दार कैदियों की संख्या 1291 थी। लेकिन 442 ही रिहा हुए। दो प्रतिशत विचाराधीन कैदी 5 साल से ज़्यादा समय जेलों में बिता चुके हैं। महाराष्ट्र में विचाराधीन क़ैदियों का 40 प्रतिशत है और 36 प्रतिशत के साथ गुजरात दूसरे नंबर पर है। विचाराधीन कैदियों में 49 प्रतिशत 18 से 30 साल की आयु वर्ग में हैं, जबकि सज़ायाफ़्ता कैदियों में इस आयु वर्ग के 29 प्रतिशत हैं। अगले 50 प्रतिशत सज़ायाफ़्ता 30 से 50 साल के आयु वर्ग में से हैं।

आर्थिक असमानता मेहनतकश आबादी की न्याय तक पहुंच को असंभव बना देती है। उधर शासक वर्ग न्याय के नाम पर की जाने वाली कार्रवाइयों के दौरान भी, लोगों के विरुद्ध युद्ध छेड़ता है। भारत में मोदी हुकूमत अपनी सांप्रदायिक फासीवादी मुहिम को तेज़ करने के लिए, न्यायपालिका के दबाव के साथ-साथ जल्दी न्याय देने के नाम पर, बुलडोज़र के उपयोग से घरों को ध्वस्त करने, पुलिस मुठभेड़ों में तथाकथित अपराधियों को मारने, हिरासत में मौत, देशद्रोह और यू.ए.पी.ए. जैसे काले क़ानूनों का दुरुपयोग के लिए लोगों की सहमति हासिल करने की कोशिश करती है।

भीड़ की हिंसा और अल्पसंख्यकों पर हमलों के पीड़ितों को आज न्याय की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है,आम लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर बढ़ते हमलों के इस दौर में,मज़दूरों, ग़रीब किसानों, मध्यम वर्ग की आबादी और जनता के साथ खड़े बुद्धिजीवियों के साझा संघर्ष से ही मेहनतकश आबादी की मुक्ति का रास्ता खुलेगा। विचाराधीन कैदियों का मुद्दा भी मेहनतकश जनता की लगातार बढ़ती तकलीफ़ों का एक हिस्सा है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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