पहले कहा था पूर्ण राज्य का दर्जा देंगे, अब न्यूनतम संवैधानिक अधिकार भी देने को तैयार नहीं

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अब यह लगभग स्पष्ट होता जा रहा है कि दिल्ली सरकार पर, केंद्र सरकार येन केन प्रकारेण अपना नियंत्रण रखना चाहती है। लगभग हफ्ता दस दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार और उप राज्यपाल के बीच एक स्पष्ट कार्य विभाजन कर दिया था। संविधान पीठ के फैसले के अनुसार पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि संबंधी दायित्व उप राज्यपाल के पास और अन्य सब, दिल्ली की निर्वाचित सरकार के पास रहेगा। लेकिन अचानक एक बड़े नाटकीय घटनाक्रम में, केंद्र ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश को अवक्रमित करते हुए, एक अध्यादेश, दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश, 2023 जारी किया जिसमें अधिकारियों की सेवा शर्तों, स्थानांतरण और पोस्टिंग से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण के गठन का प्रावधान है।

हालांकि इस प्राधिकरण के अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे। इसमें मुख्य सचिव और दिल्ली के गृह सचिव भी पदेन सदस्यों के रूप में समान अधिकार के साथ सदस्य रहेंगे। यदि कोई सदस्य, किसी बिंदु पर भिन्न विचार रखता है तो विचारों में भिन्नता का उल्लेख (डिसेंट नोट) प्रस्तुत करना जरूरी होगा। विचारों की भिन्नता की स्थिति में उप राज्यपाल (एलजी) का निर्णय अंतिम होगा। अध्यादेश के अनुसार उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से फैसले किये जायेंगे। जारी अध्यादेश कहता है कि, “यदि प्राधिकरण किसी अधिकारी के स्थानांतरण या पोस्टिंग की सिफारिश करता है और इस विषय पर मतभेद उठते हैं तो, मतभेद के मामले में उप राज्यपाल का निर्णय अंतिम होगा।”

अध्यादेश के अनुसार, “प्राधिकरण की जिम्मेदारी होगी कि वह दिल्ली में सेवा करने वाले दानिक्स के ग्रुप ए के सभी अधिकारियों के स्थानांतरण और पोस्टिंग की सिफारिश करे, लेकिन सातवीं सूची II की प्रविष्टि 1,2, 18 के संबंध में सेवा करने वाले अधिकारियों की नहीं।” यदि एलजी, प्राधिकरण द्वारा की गई सिफारिश से असहमत हैं, तो एलजी लिखित रूप में कारणों के साथ फाइल वापस कर सकते हैं। किसी भी मतभेद की स्थिति में एलजी का फैसला अंतिम होगा।”

अब जरा दिल्ली के राज्य पुनर्गठन का इतिहास पढ़ लें। दिल्ली के राज्य पुनर्गठन पर, बालकृष्णन समिति का गठन वर्ष 1987 में किया गया था। समिति दिल्ली को राज्य का दर्जा देने के पक्ष में थी। राजधानी में जनसंख्या की बढ़ती आमद के साथ यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया था कि बढ़ती आबादी के, लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक प्रभावी प्रतिनिधि लोकतांत्रिक प्रणाली को लागू किया जाए। राजधानी में पूर्ण अधिकार प्राप्त एक विधान सभा का अभाव जनता को सरकार के जवाबदेह स्वरूप से वंचित रखता था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला कि मेट्रोपॉलिटन काउंसिल, दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर समिति जैसे कई प्राधिकरणों की अलग-अलग भूमिका के साथ वर्तमान सेटअप के परिणाम स्वरूप दिल्ली के प्रशासनिक कामकाज में अनेक अक्षमताएं हैं, जिनके समाधान के लिये, एक राज्य विधानसभा का गठन किया जाना चाहिए।

लेकिन इस समिति की रिपोर्ट की आलोचना भी हुई। आलोचना का मुख्य बिंदु यह था कि, दिल्ली को राज्य का दर्जा देना देश की राजधानी के कामकाज के लिए हानिकारक हो सकता है और इसके परिणाम स्वरूप केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संघर्ष हो सकता है। लेकिन, इन आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए, समिति ने राष्ट्रीय राजधानी को विशेष दर्जा देने की सिफारिश की। समिति की यह भी सिफारिश थी कि, दिल्ली में एक विधान सभा और मंत्रिपरिषद होनी चाहिए जिसके पास, विभिन्न शक्तियां हों, जो विधानसभा के प्रति उत्तरदायी हों। दिल्ली की विधान सभा को भूमि, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था से संबंधित मामलों को छोड़कर, राज्य विहीन मामलों पर संपूर्ण या तत्कालीन राष्ट्रीय राजधानी के एक हिस्से के लिए कानून बनाने का अधिकार होना चाहिए।

दिल्ली को विशेष दर्जा 1991 के 69वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा प्रदान किया गया था। इसने दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के रूप में फिर से नामित किया और दिल्ली के प्रशासक को इसके उप राज्यपाल के रूप में नोटिफाई किया गया। इस संवैधानिक संशोधन अधिनियम के द्वारा दिल्ली के लिए एक विधान सभा और मंत्रिपरिषद का गठन किया गया। विधानसभा को सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची (सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित मामलों को छोड़कर) और समवर्ती सूची के तहत के मामलों पर कानून बनाने का अधिकार था। हालांकि, संसद द्वारा बनाए गए कानून दिल्ली विधान सभा द्वारा बनाए गए कानूनों पर प्रबल होंगे, यह भी प्रावधान रखा गया।

दिल्ली के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद, उप राज्यपाल  को अपने कार्यों के निष्पादन में सहायता और सलाह देगी, सिवाय उन परिस्थितियों में जहां उप राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करना पड़ता है। उप राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के बीच मतभेद की स्थिति में उप राज्यपाल मामले को निर्णय के लिए राष्ट्रपति के पास भेजेंगे और दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेंगे। उप राज्यपाल को विधानसभा के सत्रावकाश के दौरान अध्यादेश जारी करने का अधिकार है। इस अध्यादेश में विधानसभा के अधिनियम के समान ही बल होगा। अध्यादेश को फिर से 6 महीने के भीतर विधानसभा द्वारा अनुमोदित कराने की आवश्यकता होती है। अध्यादेश को उप राज्यपाल कभी भी वापस ले सकते हैं। हालांकि, उप राज्यपाल विधानसभा भंग या निलंबित होने पर अध्यादेश जारी नहीं कर सकते। साथ ही, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी अध्यादेश प्रख्यापित या वापस नहीं लिया जा सकता है।

हालांकि दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है, यह राष्ट्रपति द्वारा लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से नहीं बल्कि संविधान के अनुच्छेद 239 एए (Article 239AA) के तहत शासित होता है जिसे 1992 में 69 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा शामिल किया गया था। संविधान के अनुच्छेद 239AA ने दिल्ली को कुछ विशेष दर्जा प्रदान किया है। जो इस प्रकार है:

० दिल्ली में कानून बनाने की शक्तियों के साथ एक निर्वाचित विधानसभा होगी। इसमें मंत्रिपरिषद होगी जो विधानसभा के लिए जिम्मेदार होगी।

० विधानसभा राज्य सूची और समवर्ती सूची के तहत सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे अपवादों के साथ मामलों पर कानून बना सकती है।

विशेष दर्जे ने मुख्य रूप से केंद्र और दिल्ली में एक ही पार्टी का शासनकाल होने के कारण लंबे समय तक सुचारू रूप से काम किया। हालांकि, दिल्ली और केंद्र में अलग-अलग सरकारें सत्ता में आने पर चीजों ने, अप्रिय और अलग मोड़ लेना शुरू कर दिया। यह मुद्दा तब और जटिल हो गया जब दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले ने घोषणा की कि दिल्ली में निर्णय लेने का एकमात्र अधिकार उपराज्यपाल का होगा। इसने दिल्ली सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील दायर करने और पूर्ण राज्य की मांग करने के लिए प्रेरित किया।

यह भी प्रावधान रखा गया है कि उप राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच विवाद की स्थिति में उप राज्यपाल को, उक्त मामले को तुरंत राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए। उप राज्यपाल को कोई स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं सौंपी जाती है, लेकिन उसे मंत्रियों की सहायता और सलाह से शक्ति का प्रयोग करना होता है या राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णयों को लागू करना होता है। मामलों को राष्ट्रपति के पास ले जाने के संबंध में उप राज्यपाल की शक्तियां सीमित हैं क्योंकि वह केवल महत्वपूर्ण विवादों को राष्ट्रपति के पास ले जा सकता है। इसमें वित्त और नीति से संबंधित मामले शामिल हो सकते हैं और राष्ट्रीय राजधानी की स्थिति या केंद्र के हित पर इसका प्रभाव होना चाहिए।

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक पुनरीक्षण याचिका दायर करके, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले की समीक्षा की मांग करते हुए कहा कि, “संविधान पीठ का फैसला, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (जीएनसीटीडी) के पास सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित मामलों को छोड़कर राष्ट्रीय राजधानी में प्रशासनिक सेवाओं पर दिल्ली की चुनी हुई सरकार का नियंत्रण रहेगा”, विभिन्न त्रुटियों से ग्रस्त है। केंद्र ने समीक्षा याचिका के साथ मामले में खुली/मौखिक सुनवाई के लिए एक आवेदन भी दायर किया है।

समीक्षा याचिका में निम्न बिंदु दिए गए हैं-

० दिल्ली एक “केंद्र शासित प्रदेश” है, वह “राज्य” नहीं है।

० संविधान में अनुच्छेद 239AA को सम्मिलित करने के बावजूद, दिल्ली के एनसीटी को राज्य का दर्जा नहीं दिया गया है और यह केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है। 

० तदनुसार, यह बताता है कि संविधान के भाग XI के अध्याय I के अनुसार, जहां तक केंद्र शासित प्रदेशों का संबंध है, सूची I, सूची II या सूची III जैसी कोई चीज़ नहीं है। 

० इसमें अंकित है, “एकमात्र विधायी निकाय संसद है- या उसके द्वारा बनाई गई एक विधायी संस्था। उक्त निष्कर्षों को रिकॉर्ड करते समय यह तथ्य से स्पष्ट है, न्यायालय ने स्वयं यह माना है कि संसद के पास सूची II और सूची III के संबंध में सभी मामलों पर विधायी क्षमता है। एनसीटीडी को, उन प्रविष्टियों सहित जिन्हें अनुच्छेद 239एए(3)(ए) के आधार पर एनसीटीडी के विधायी डोमेन से बाहर रखा गया है।

० केंद्र ने तर्क दिया है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने विषय वस्तु पर संसद की शक्ति के स्पष्ट आधार की उपेक्षा की है।  इसके अलावा, यह बताता है कि संवैधानिक योजना केवल संसद और राज्यों की विधानसभाओं के संबंध में विधायी शक्तियों के वितरण की परिकल्पना करती है। 

० केंद्र के अनुसार, केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के संबंध में विधायी शक्ति के वितरण की कोई श्रेणी नहीं है।

समीक्षा याचिका के माध्यम से तर्क दिया है कि,

० सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने प्रभावी ढंग से दिल्ली की स्थिति को एक पूर्ण राज्य के रूप में, उच्चीकृत कर दिया है, जिससे इसकी विधानसभा को सूची II और सूची III में सभी प्रविष्टियों पर विधायी क्षमता मिलती है (प्रविष्टियों 1, 2 को छोड़कर) और राज्य सूची के 18 और उस सूची की प्रविष्टियां 64, 65 और 66 जहां तक ​​वे उक्त प्रविष्टियों 1,2 और 18 से संबंधित हैं)। 

० केंद्र के अनुसार, यह स्थिति एक “एक विसंगति” को जन्म देती है क्योंकि अनुच्छेद 239एए के आधार पर संसद के पास, अभी भी विधायी वर्चस्व है, फिर भी जीएनसीटीडी के मंत्रियों की परिषद अब कार्यकारी सर्वोच्चता के रूप में स्थापित हो जायेगी। जिसका अर्थ है कि कार्यकारी शक्तियों के संबंध में, दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद, राज्य का दर्जा दिया गया है। 

० इस संदर्भ में, याचिका में एनडीएमसी बनाम पंजाब राज्य (1997) 7 एससीसी 339 में 9 न्यायाधीशों की पीठ के फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि दिल्ली एनसीटी केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है।

केंद्र का तर्क है कि संविधान पीठ का यह निर्णय एक ऐसी स्थिति पैदा करता है जहां, “एक सरकार के पास स्वत: सह-विस्तृत कार्यकारी प्राधिकरण होगा, जबकि एक सरकार, बेहतर विधायी प्राधिकरण होने के बावजूद, केवल कार्यकारी प्राधिकरण होगा, यदि वह कानून के माध्यम से इसकी व्याख्या करती है तो। उपरोक्त स्थिति एक त्रुटि है जो साफ-साफ स्पष्ट है।  

० केंद्र सरकार के कार्यकारी प्राधिकरण के लिए भी यही सच होना चाहिए। एक बार यह तय हो जाने के बाद कि सूची II भी दिल्ली के एनसीटी के लिए एक समवर्ती सूची है।”

० केंद्र द्वारा यह तर्क दिया गया है कि, निर्णय इस तथ्य की अनदेखी करता है कि राजधानी की सरकार का कामकाज पूरे देश को प्रभावित करता है। इस प्रकार, केंद्र सरकार का दिल्ली के एनसीटी में नियुक्त सेवाओं पर नियंत्रण होना चाहिए। 

० आगे तर्क दिया गया है कि यह निर्णय (संविधान पीठ का) इस आधार पर काम करता है कि, संदर्भ के तहत मुद्दा केवल इस बात पर विचार करने के लिए था कि, सूची II की प्रविष्टि 41 जीएनसीटीडी के लिए उपलब्ध है या नहीं।  यह जोड़ता है, “हालांकि, इस मुद्दे की संपूर्णता, जब किसी भी पक्ष के सबमिशन के परिप्रेक्ष्य से देखा जाता है, न केवल जीएनसीटीडी को सूची II की प्रविष्टि 41 की उपलब्धता है, बल्कि यह भी है कि क्या केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते दिल्ली के एनसीटी में सेवाएं,  संघ लोक सेवाएं होंगी और इस प्रकार सूची I की प्रविष्टि 70 द्वारा शासित होंगी।”

समीक्षा याचिका में आगे यह तर्क दिया गया है कि, सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत है क्योंकि यह पूरी तरह से, इस तथ्य की अनदेखी करता है कि, राष्ट्रपति, उपराज्यपाल या केंद्र सरकार के नामांकित व्यक्ति, दोनों भी लोकतंत्र की अभिव्यक्ति हैं, “पूरे देश के लोकतांत्रिक विवेक का प्रदर्शन करते हुए”  दिल्ली की चुनी हुई सरकार की तुलना में।” 

उसी की अनदेखी में, यह तर्क दिया जाता है कि, “सर्वोच्च न्यायालय इस बात की उपेक्षा करता है कि, राजधानी की सरकार के कामकाज और कार्यप्रणाली का प्रभाव, पूरे देश पर पड़ता है।”

क्योंकि उक्त निर्णय, रिकॉर्ड के अनुसार, स्पष्ट रूप से, त्रुटिग्रस्त है, क्योंकि यह, इस बात की, पूरी तरह से अनदेखी करता है, क्योंकि संविधान में यह स्पष्ट है कि, विधायी क्षेत्राधिकार केवल उन मामलों का विस्तार करेगा जो केंद्र शासित प्रदेशों के लिए “लागू” हैं।  अभिव्यक्ति “लागू” का प्रयोग फिर से राज्य सूची या समवर्ती सूची में विशेष प्रविष्टियों का चयन करते समय एक उच्च सीमा लगाने के संविधान के इरादे को दर्शाता है और इसे विधानमंडल के साथ केंद्र शासित प्रदेश के लिए उपलब्ध कराता है। संविधान “केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित” शब्द का उपयोग नहीं करता है। अभिव्यक्ति “लागू” का अनिवार्य रूप से मतलब होगा कि यह स्पष्ट रूप से केंद्र शासित प्रदेशों पर लागू होना चाहिए।

संघ का तर्क है कि “संविधान ने संघ शासित प्रदेशों के एक अलग सेवा संवर्ग पर कभी विचार नहीं किया है क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश भारत संघ का एक मात्र विस्तार है और केंद्र शासित प्रदेशों में काम करने वाले व्यक्ति “सेवाओं और संघ के मामलों के संबंध में पदों” पर काम कर रहे हैं।”

आगे कहा गया है कि, “लोक सेवा आयोग एक संवैधानिक रूप से स्थापित संस्था है और इसके कार्य अनुच्छेद 323 में निर्धारित किए गए हैं जो राजनीतिक कार्यपालिका से सिविल सेवाओं की नियुक्ति को अलग करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं।  लोक सेवा आयोग के सदस्य का कार्यालय एक संरक्षित कार्यालय है और ऐसे व्यक्ति को हटाना अनुच्छेद 317 द्वारा संरक्षित है। इस प्रकार, लोक सेवा आयोग के बिना, कोई सिविल सेवा नहीं हो सकती है।”

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में ग्रीष्मावकाश चल रहा है और जुलाई में जब अदालत खुलेगी तब इस पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई होगी। यह भी एक विडंबना है कि, केंद्र का सत्तारूढ़ दल, बीजेपी, दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने के लिए शुरू से ही मुखर रही है। लेकिन आज वही बीजेपी, दिल्ली की एक निर्वाचित सरकार को, उसके उन अधिकारों को भी नहीं देना चाहती, जो संविधान के अनुसार, दिल्ली की निर्वाचित सरकार के पास होने चाहिए।

(विजय शंकर सिंह आईपीएस अधिकारी रहे हैं)

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