Thursday, March 28, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: ईंट भट्ठे में अपना वर्तमान और भविष्य झोंक रहे बंधुआ मजदूरों को आजादी का इंतजार

चंदौली, उत्तर प्रदेश। आरती वनवासी (35) का पांच सदस्यीय परिवार है। परिवार में उनके पति, दो मासूम बच्चे और एक पंद्रह साल की ननद है। आरती पांच महीने की गर्भवती हैं, और ईंट बनाने का अधिक श्रम वाला काम नहीं कर पाती हैं। भट्ठा परिसर में उनका कच्चे ईंट और छप्पर का घर है, जो इनकी पूरी गृहस्थी है। छप्पर में चार-छह बर्तन बिखरे हुए थे और महुए के शराब की गंध हवा में तैर रही थी। सोने के लिए जमीन पर प्लास्टिक की बोरी बिछी हुई थी। कड़ी धूप में आरती ईंट पाथने जैसा अधिक श्रम वाला काम नहीं कर सकती तो वे अपने छप्पर के बाहर जलावनी लकड़ी जुटाने में लगी हुई थीं।

वह बताती हैं कि “पांच महीने की गर्भवती हूं। यहां कोई आशा कार्यकर्ता और आंगनबाड़ी नहीं आती हैं। कोटे से राशन भी नहीं मिलता है। बहुत चिंता रहती है कि रात में, कड़ी दुपहरी में, तबियत बिगड़ती है तो हमलोग कहां जाएंगे? पति और बच्चे मिलकर रोजाना तकरीबन 600 से 700 ईंट पाथकर बमुश्किल 400 से 450 रुपये का काम ही कर पाते हैं।”

वो कहती हैं कि “चार लोगों के खटने के बाद महीने के 10,000  से 11,000 रुपये ही मिल पाते हैं। ये पैसे दाल, चावल और रोजाना के खर्चे में ख़त्म हो जाते हैं। कुछ भी बचत नहीं होती है। परिवार का पेट भरने के लिए हम लोगों का रोजाना काम करना पड़ता है। कई बार स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत होने पर दवा के लिए जाने पर भट्ठा मेठ हम लोगों के पैसे काट लेता है।” 

ईंट भट्ठे पर अपनी झोपड़ी के पास बैठी गर्भवती मजदूर आरती वनवासी।

भारत में 230 लाख श्रमिक ईंट भट्ठे पर करते हैं मजदूरी 

रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब एक लाख ईंट भट्ठे हैं, जो लगभग 23 मिलियन (230 लाख) मजदूरों को रोजगार देते हैं। एक भट्ठे पर 150 से 200 की तादात में मजदूर होते हैं। यह देश के कुल कार्यबल का पांच फीसदी है। इस क्षेत्र के मजदूर 11 से 13 घंटे तक काम करते हैं। ईंट भट्ठे पर काम करने वाले श्रमिकों का जीवन स्तर इतना निम्न और चिंताजनक होता है कि यहां विकास व जीवनमूल्य का हर पैमाना फेल हो जाता है।

अधिक जोखिम के साथ बेहिसाब श्रम व न्यूनतम मजदूरी, अधिकार, आवास, पेयजल, शौचालय, अस्पताल, स्कूल, आंगनबाड़ी, समाज, सम्मान और मानवीय मूल्यों आदि के घोर अभाव में खपता लाखों-करोड़ों इंसानों का जीवन, आज भी केंद व राज्य सरकारों के उन तमाम योजनाओं को मुंह चिढ़ा रहा है, जिनका मकसद कई दशकों से गरीबों को मुख्यधारा में लाने का रहा है।

‘मजबूरी हमें यहां खींच लाई’

चंदौली जनपद के नेवादा-काजीपुर (सैयदराजा) के एक ईंट भट्ठे पर काम कर रहीं प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के कपिलधारा निवासी ईंट भट्ठा मजदूर अनीता वनवासी ने जनचौक को बताया कि “हालात के मारे और जिंदा रहने के लिए पेट भरने की मजबूरी हमें यहां खींच लाई है। बचपन में पिता और बीमारी से मां की मौत के बाद परिवार उजड़ गया। कमाने-खाने के लिए हम लोग तितर-बितर हो गए। जिनकी आज तक हाल-खबर नहीं मिली।

ईंट पाथती अनीता वनवासी।

बुआ ने मुझे अपने परिवार में रखकर लाख मुसीबतों के बीच पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन से ही स्कूल जाना और पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन एक के बाद एक साल यूं ही गुजरते चले गए। विवशता बढ़ी तो घर चलाने के लिए बुआ के साथ मैं भी मजदूरी करने लगी। जब मैं 16-17 साल की हुई तभी शादी हो गई। गृहस्थी के नाम पर सड़क किनारे घासफूस की एक झोपड़ी है। अब भी मजदूरी ही पेट भरने का सहारा है। बनारस में हम लोगों को हमेशा काम नहीं मिलता है। आठ-दस दिन काम मिलता है तो कई दिनों तक खोजबीन के बाद भी बेरोजगारी के दिन गुजारने पड़ते हैं।”

अनीता वनवासी आगे कहती हैं कि “हम लोगों (पति-पत्नी) ने तय किया कि ईंट भठ्ठे पर ईंट पाथने का काम करेंगे। कई सालों से चंदौली के ईंट भट्ठों पर काम कर रहे हैं और इस तरह से दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ अपने को जिंदा बचाये हुए हैं।  मेरे पति लगातार मिट्टी को गीला कर पाथने लायक बनाने में जुटे हुए हैं। आज सुबह दस बजे से मैं सांचे से ईंट पाथ रही हूं। दोपहर के तीन बजने वाले हैं और तकरीबन 500 सौ ईंटें ही बन पाई हैं। अभी तीन घंटे और काम करेंगे।”

सिर्फ उधार ही चुकता हो पाता है

कच्ची ईंटों को पकाने के लिए चिमनी के तल में इकठ्ठा किया जाता है। इसके ऊपर ईंट के बुरादे (राबिस) बिखेर दी जाती है। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सुराख़ होता है, जिसमें से फोरमैन (ईंटभट्ठे पर सबसे अधिक जोखिम का काम) कोयला या खर-पतवार भट्ठे में झोंकता है। झारखंड के गुमला जिला निवासी छत्तीस वर्षीय रवि उरांव (आदिवासी) फोरमैन को ईंधन (कोयला और खर-पतवार) देने में जुटे हुए थे।

ईंट भट्ठे पर पेशगी लेकर मजदूरी करने वाले झारखण्ड के गुमला जिले के आदिवासी रवि उरांव।

वह चार-पांच साल से चंदौली जनपद के कई ईंट भट्ठों पर काम करते आ रहे हैं। वह जनचौक को बताते हैं कि “मैं सुबह में चार घंटे काम कर पकी हुई ईंटों को निकालकर 200 रुपये का काम कर लिया हूं। घड़ी में दोपहर के दो बज रहे हैं। अब फोरमैन को खर-पतवार दे रहा हूं। शाम सात-आठ बजे तक इसके भी 200 रुपये बन जाएंगे।”

इस तरह से उरांव ने कुल दस घंटे काम कर 400 सौ रुपये का काम किया, जो मिलेगा नहीं उनके खाते में जुड़ जाएगा। जिसमें से हफ्ते या दस दिन पर सिर्फ खुराकी के लिए पैसे मिलेंगे, शेष पैसे उधार चुकाने में जाएंगे। यह प्रक्रिया लगातार तीन महीने तक चलती है। यही का काम का सीजन होता है। मई-जून में मजदूर अपने घर को लौटते हैं। तब तक सिर्फ उधार ही चुकता हो पाता है।  

 कर्ज का कुचक्र और गुलामी का दलदल

भारत में ईंट भट्ठा व्यावसायिक क्षेत्र जिस तरह से काम कर रहा है, वह बंधुआ मजदूरी, गुलामी, उत्पीड़न और शोषण के कुचक्र व बालश्रम को बढ़ावा देने वाला है। मौसमी रोजगार, कम मजदूरी और गरीबी के कारण ज्यादातर मजदूर भट्ठा मालिकों से कर्ज लेते हैं। इसके बाद वे कर्ज के जाल और गुलामी के दलदल में फंस जाते हैं। लाख छटपटाने के बाद भी मजदूर इस कुचक्र से अपने को मुक्त नहीं कर पाते हैं। अग्रिम भुगतान (एडवांस), पेशगी और कर्ज लेने के बाद वे साल दर साल ईंट भट्टों पर खपते रहते हैं।

ईंट भट्ठे पर खुलेआम चलती है बाल मजदूरी।

तो फिर लेना पड़ेगा एडवांस कर्ज

एक सवाल के जवाब में भूमिहीन और अनपढ़ रवि उरांव बताते हैं कि “इस एरिया के तकरीबन सौ से अधिक भट्ठों पर जितने पर झारखंडी मजदूर आते हैं। वे केवल चार महीने के लिए आते हैं। जून के अंत में बारिश शुरू होते ही सभी मजदूर अपने राज्य लौट जाते हैं। घर लौटने से पहले हिसाब होता है। इसमें पहले कर्ज और इसके ब्याज का भुगतान काट लिया जाता है। बहुत सारा मेहनत का पैसा तो, मूल छोड़िये, ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। फिर खुराकी काटने के बाद न के बराबर पैसे ही हाथ में आ पाते हैं, जो परिवार के जरूरी खर्च के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं।”

रवि उरांव कहते हैं कि “ऐसे में हम लोग भट्ठा मालिकों से एडवांस भुगतान की मांग करते हैं। गुमला में अपने घर का काम करवाने के लिए पिछले साल मैंने 35 हजार रुपये एडवांस में लिया था। इसे चुकाने के लिए यहां तीन महीने से अधिक समय से मजदूरी कर रहा हूं। कर्ज और ब्याज की राशि को चुकता कर दिया हूं। अब जो काम करूंगा, उसकी मजदूरी मालिक हमें देंगे। थोड़ा-बहुत गांव में और काम बचा है। इसके लिए इस बार भी 25-30 हजार रुपये एडवांस में लेने पड़ सकते हैं।”

ईंट-भट्टों पर महिलाओं की स्थिति बेहद ख़राब

ईंट-भट्टों पर काम करने वाली महिलाओं की स्थिति भी बेहद खराब और जोखिमपूर्ण है। यहां ना तो शौचालय की व्यवस्था होती है, न पेयजल के लिए साफ़ पानी की और ना ही नहाने के लिए ठीक-ठाक बाथरूम की। महिलाएं खुले में शौच जाती हैं। तिरपाल या फटी-पुरानी साड़ियों से घेरकर बनी जगह को बाथरूम के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

गर्मी से परेशान मजदूरों के बच्चे पानी आते ही नहाने में जुट गए।

स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिकतर महिलाएं कमजोर होती हैं। भट्ठों पर रहने वाले मजदूरों के परिवारों के छोटे-छोटे बच्चे आंगनबाड़ी की शिक्षा और पोषण से वंचित होने पर कुपोषण से भी पीड़ित हैं। बाल श्रम करते हुए ये बच्चे समय के साथ ईंट भट्ठा मजदूर ही बन जाते हैं।

आबरू भी दांव पर

सदर चंदौली की चालीस वर्षीय सीमा ने बताया, कि “भट्ठों पर किसी तरह की सुविधा नहीं मिलती है। औरतों के लिए तो कुछ भी नहीं है। सभी लोग खुले में शौच जाते हैं। बाथरूम के नाम पर हम लोग पुरानी साड़ी और कपड़े से घेरकर नहाने-धोने के लिए अस्थाई ठिकाना बनाये हैं, कई तो खुले में आसमान के नीचे नहाने और कपड़े बदलने को विवश हैं। रात में गड्ढों और झाड़ियों में चले जाते हैं, लेकिन दिन, बारिश और लहकती दुपहरी में शौच\टॉयलेट आदि के लिए बहुत परेशान होना पड़ता है।”

सीमा कहती हैं कि “रात के समय नशेड़ी प्रवित्ति के लोग जहां-तहां घूमते मिल जाते हैं। रात में शौच आदि के लिए छप्पर से दूर जाने पर छेड़छाड़ का खतरा बना रहता है। अथक परिश्रम करने के बाद भी हम (पति-पत्नी मिलकर) 8,000 से 9,000 रुपये प्रतिमाह कमाने का लक्ष्य नहीं पूरा कर पाते हैं। मालिक रहने के लिए टीन शेड वाला एक छोटा सा कमरा देता है, कई श्रमिक परिवार दिनभर कड़ी मेहनत के बाद अच्छे से पैर फैलाकर आराम भी नहीं कर पाते हैं। जिसमें रात के अंधेरे में सांप-बिच्छू का भय बना रहता है। लगता है हम लोग ईंट भट्ठे में ही मर-खाप जाएंगे।”

खुले में पेयजल और नहाने की व्यवस्थ।

13 से 14 घंटे खटते हैं मजदूर

कई ईंट-भट्टों पर जाकर जमीनी पड़ताल करने व श्रमिकों से बात करने के बाद पता चला कि यहां खटने वाले मजदूर रोजाना 12-14 घंटे तक काम करते हैं। चूंकि उनकी मजदूरी काम पर आधारित है, अधिक काम करेंगे तो अधिक मेहनताना प्राप्त करेंगे। मजदूरी के नाम पर इन्हें एक हजार ईंट के लिए 600-625 रुपये का भुगतान होता है।

मजदूर और परिवार में महिला, लड़के और लड़कियां मिलकर एक दिन में बमुश्किल ही एक हजार\बारह सौ ईंट बना पाते हैं। काम में बच्चों का सहयोग इन श्रमिकों की मजदूरी में 100-150 रुपये की वृद्धि कर देता है। हालांकि ईंट भट्टा मालिक बच्चों से काम करवाने से इनकार करते हैं। उनके मुताबिक वो ठेके पर काम करवाते हैं। जो जितना काम करेगा उतने पैसे मिलेंगे।

नहीं मिलती कोई सरकारी सुविधा 

अनुसूचित जाति के पैंतालीस वर्षीय रामजी कई वर्षों से ईंट भट्ठे पर मजदूर हैं। बारिश की वजह से काम बंद था। मौसम खुलने पर वह काम पर लौटे हैं। वह कहते हैं कि “तीन-चार साल पहले मैंने श्रम विभाग में पंजीकरण कराया था, लेकिन आज तक कोई लाभ नहीं मिला। कोरोनाकाल में कई लोगों को 500-1000 रुपये मिले, लेकिन मुझे कुछ भी अब तक नहीं मिल सका है। गांव में राशन तो मिलता है, लेकिन उससे ही परिवार तो नहीं चल पाएगा ना?”

श्रम योजना से वंचित मजदूर रामजी, साथ में उनकी पत्नी सीमा।

रामजी कहते हैं कि “पहले मैं दिहाड़ी करता था, जिसमें एक दिन का 350 से 400 रुपये मिलता था। लेकिन देहात इलाके में रोजाना दिहाड़ी भी नहीं मिलती है। दो रोज काम मिलेगा तो दस दिन या उससे अधिक बैठना पड़ता है। लिहाजा मैं भट्ठे में ईंट बनाता हूं। यहां मजदूरी अच्छी नहीं है, लेकिन तीन-चार महीने लगातार काम मिलता है। इस वजह से कहीं काम खोजने नहीं जाना पड़ता है। सुबह, दोपहर और शाम को मिलाकर 12 घंटे काम के बाद अधिकतम 250-300 रुपये का ही काम कर पाता हूं।”

हमारी आवाज उठाने वाला संगठन नहीं

रामजी आगे कहते हैं कि “हम लोग तो सीधे यहां मजदूरी करने आये हैं, इससे शोषण कम है, लेकिन जो मजदूर झारखंड और बाहर के जिलों से लाये गए हैं। उनको यहां लाने वाला ठेकेदार\मेठ कमीशन खाता है और पेशगी (एडवांस भुगतान) दिलवाकर मूल और ब्याज चुकाने के एवज में साल दर साल यहीं मजदूरी को बाध्य भी करता है। ईंट भट्ठा मजदूरों की स्थिति कहीं से भी अच्छी नहीं कही जा सकती है। भट्ठे पर काम के दौरान चोट लगने पर पहले रुपये दिलवा देता है, लेकिन हिसाब के समय काट लेता है। यहां कोई राजनीतिक दल और मजदूर संगठन नहीं है जो हमारी बेहतरी के लिए आवाज उठाए।”

जनचौक ने ईंट भट्ठा मजदूरों के लिए किये जाने वाले प्रयास को जानने के लिए चंदौली जिला अधिकारी कार्यालय फोन कर जानकारी लेने का प्रयास किया, लेकिन कार्यालय का फोन नहीं उठा। 

ईंट भट्ठे पर जलपान में जुटे श्रमिक।

मॉडर्न स्लेवरी से कैसे मुक्त हो पाएगा इंडिया

वॉक फ्री (2018) की एक रिपोर्ट बताती है कि देशों में एक नए तरह की मॉडर्न स्लेवरी चलन में है। इसमें ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स में भारत का 167 देशों की सूची में 53 वां स्थान था। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रति हजार में से 06 लोग अलग-अलग तरह की गुलामी में जी रहे हैं। भारत में करीब 80 लाख लोग मॉर्डन स्लेवरी में रहने को मजबूर हैं। सतत विकास लक्ष्यों के बिंदु 8.7 में आधुनिक दासता को 2030 तक दुनिया से खत्म करने की बात कही गई है।

लेकिन ‘वॉक फ्री’ की एक दूसरी रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की अलग-अलग सरकार जिस गति से इस समस्या से लड़ रही हैं। उससे इस लक्ष्य तक पहुंचना नामुमकिन है। वॉक फ्री के संस्थापक ऑस्ट्रेलियन फिलान्थ्रोपिस्ट और बिजनेसमैन एन्ड्रू फॉरेस्ट के मुताबिक 2030 तक इस लक्ष्य को पाने के लिए पूरी दुनिया में हर रोज 10 हजार लोगों को आधुनिक गुलामी से आज़ाद कराना पड़ेगा। जो कि असंभव सा काम है।

बदल रही है व्यवस्था, आवाज उठाने लगे हैं मजदूर

मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक व दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ लेनिन रघुवंशी ने हाल के दस वर्षों में ईंट भट्ठे पर बंधुआ मजदूरी करने वाले तकरीबन 4000 से अधिक बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराने व पुनर्वास की व्यवस्था उपलब्ध कराया हैं। डॉ लेनिन बताते हैं “कर्ज लेने के चलते ही बंधुआ मजदूरी का कुचक्र चलता है। आज भी देश में ईंट भट्ठों पर लगभग 20 से 22 फीसदी मजदूर बंधुआ ही है। भट्ठों पर बहुत ही कठिन परिस्थितियों में ये मजदूर काम करते हैं।”

मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक व दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ.लेनिन रघुवंशी

डॉ. लेनिन कहते हैं कि “चूंकि ईंट-भट्टों में काम करने वाले अधिकतर मजदूर झारखंड, बिहार और पड़ोसी जनपदों के होते हैं। इस वजह से इनका आर्थिक शोषण भी होता है। इन मजदूरों की ताकत दूसरे राज्यों में आकर कम हो जाती है। जागरूकता के अभाव में और कर्ज चुकाने की मजबूरी में यह कहीं शिकायत भी नहीं कर पाते। हालांकि, अब कई मामले देखने को मिल रहे हैं, जिसमें मजदूरी रोकने और बलपूर्वक काम लेने पर मजदूर पुलिस थाने का रुख कर रहे हैं।”

जमीन पर उतरेगा कानून तो मुख्य धारा में आएंगे मजदूर

बतौर डॉ. लेनिन, “आजादी के अमृतकाल में एक बड़ा वर्ग केंद्र और राज्य की दर्जनों कल्याणकारी योजनाओं से वंचित है। यह सभी को शर्मसार करने वाली तस्वीर है। श्रमिकों के बच्चों को स्कूल, आंगनबाड़ी से जोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए। महिला और बच्चियों के स्वस्थ्य के लिए आशा और अन्य प्रकार के स्वास्थ्य कर्मियों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।

भोजन की गारंटी के लिए राशन, आवास, कार्यस्थल पर साफ पेयजल, बाथरूम, शौचालय, रास्ते, काम के घंटों का निर्धारण, मानक के अनुरूप मजदूरी का भुगतान, पेशगी या एडवांस देने वालों पर कानून की नजर, कर्ज के ब्याज के रूप में महीनों काम करने पर रोक आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए। समय-समय पर कई हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में फैसले दिए हैं, लेकिन जमीन पर उनकी पालन नहीं होती। मेरा मानना है कि कानून को जमीन पर प्रभावी बनाने के प्रयास सरकार को करने चाहिए।”

कुपोषण की शिकार बच्ची, साथ में महिला ईंट भट्ठा मजदूर।

मजदूर आखिर कब तक करेंगे आजादी का इंतज़ार

भारत देश में साल 1976 में ही बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम बन तो गया, लेकिन इतने साल बाद भी बंधुआ मजदूरी को जड़ से उखाड़ा नहीं जा सका है। कानून के मुताबिक जिलाधिकारी बंधुआ मजदूरों की पहचान, रेस्क्यू और पुनर्वास के लिए जिम्मेदार हैं। बहरहाल, बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए 2016 में बने नियमों के मुताबिक मजदूर के पुनर्वास के लिए रेस्क्यू के तुरंत बाद आंशिक सहायता के तौर पर 20 हजार रुपये की सहायता दी जाती है।

नवंबर 2021 में लोकसभा में पेश आंकड़े बताते हैं कि देश में 2016-17 से 2021-22 तक सिर्फ 12,760 बंधुआ मजदूरों को ही यह सहायता राशि दी गई है। इसके अलावा बंधुआ मजदूरों का कोर्ट केस लड़ने के लिए केन्द्र सरकार ने राज्यों को 2021-22 में 10 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता जारी की। इसमें से सिर्फ 2.80 करोड़ रुपये ही अब तक खर्च किए गए हैं। मसलन, लाखों ईंट भट्ठा मजदूरों को बतौर नागरिक आज भी अपनी आजीविका, भोजन-पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान और सामाजिक सुरक्षा की आजादी का इंतज़ार है।

(विश्व मजदूर दिवस पर चंदौली से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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