जीडीपी-प्रति व्यक्ति आय: मनमोहन सिंह के 10 सालों की तुलना में मोदी के 9 साल 

Estimated read time 1 min read

नई दिल्ली। फरवरी 2023 के आधिकारिक अनुमानों के अनुसार 22-23 वित्तीय वर्ष के अंत तक भारत की जीडीपी 159.7 लाख करोड़ आंकी गई है। यूपीए शासनकाल के मार्च 2014 तक भारत की जीडीपी 98 लाख करोड़ रूपये थी। इसके चंद महीनों बाद मोदी युग की शुरुआत होती है। पिछले 9 वर्षों से भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ दो बार केंद्र की सत्ता पर आसीन रही है। हमारे सामने देश को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जा रही हैं। आइए एक नजर सरकारी आंकड़ों के माध्यम से इस पर डालते हैं: 

98 लाख करोड़ से 159.7 लाख करोड़ रूपये की छलांग 63% विकास को दर्शाती है। 9 वर्षों में 63% विकास वार्षिक विकास दर को 7% की रफ्तार दर्शाती है। जबकि यूपीए काल के यदि 2005-2014 के आंकड़ों पर नजर डालें तो सकल जीडीपी वृद्धि दर 97% थी। 9 वर्षों की वार्षिक औसत वृद्धि इस प्रकार 11% को छूने लगती है। 

7% और 11% की औसत वृद्धि दर में भारी अंतर है। लेकिन आज जिस व्यापक पैमाने पर सरकार की उपलब्धियों का गुणगान किया जा रहा है, उसकी ट्रेजेडी यह है कि हम 10 वर्ष पहले क्या हुआ से भी बेखबर बना दिए जा रहे हैं।

2014 से 2023 की विकास यात्रा को तीन चरणों में विभक्त करते हैं तो हम पाते हैं कि वित्त वर्ष 14-15 से लेकर 17-18 तक तीन वर्षों की औसत वृद्धि दर 8% बनी हुई थी। वहीं अगले 3 वर्ष तेज गिरावट को दर्शाते हैं, जिसमें 1018-19 से लेकर 19-20 में यह वृद्धि दर 4% तक गिर गई थी। अगले तीन वर्ष (2020-21 से लेकर 2022-23) में पहला वर्ष कोविड-19 महामारी के चलते -6%, और अगले वर्ष 21-22 में नकारात्मक स्तर से करीब 9% और 22-23 में 7.2% दर्ज की गई है। 

निचले आधार पर 9 और 7% की विकास दर से एक भ्रम जरुर बन जाता है कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यस्था के तौर पर उभरा है, लेकिन आगे की राह उत्तरोत्तर मुश्किलों भरे दौर से गुजरने जा रही है। 2023-24 के लिए वृद्धि अनुमान दर 5.5% से लेकर 6.5% के बीच रहने का अनुमान लगाया जा रहा है। 

इसी प्रकार प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि (आरबीआई) वित्त वर्ष 2013-14 में प्रति व्यक्ति औसत आय 78,348 रूपये थी। 2022-23 में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 1,15,490 रूपये हो गया। इसका अर्थ हुआ कि पिछले 9 वर्षों में प्रति व्यक्ति आय में 47% की वृद्धि दर्ज की गई है। इस प्रकार भारत में (2014-23) में प्रति व्यक्ति आय में जहां 67% की वृद्धि दर्ज की गई, वहीं इसकी तुलना में 2004 से 2014 के 10 वर्षों में 145% की वृद्धि दर्ज की गई थी। 

ये आंकड़े सार्वजनिक जीवन में उपलब्ध हैं, लेकिन बाजार में यदा-कदा ही किसी आर्थिक विशेषज्ञ के लेख की शोभा बढ़ाते हैं। वास्तविक हकीकत तो यह है कि श्रम आधारित उद्योग धंधों को सरकारी नीतियों में पूरी तरह से उपेक्षित किया जा रहा है। प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) के जरिये हर साल लाखों करोड़ की रेवड़ी बड़े उद्योगों और विदेशी निवेशकों को निवेश के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल में लाई जा रही है। गरीब एवं निम्न आय वर्ग की बहुसंख्यक आबादी अपनी जरूरतों में भरसक कटौती कर किसी तरह जीवन-निर्वाह कर रही है।

पश्चिमी देशों में मंदी की आहट, पीएलआई योजना पर टिकी निर्यात की संभावनाओं को कितना फलीभूत करेगी, इस पर तमाम आर्थिक विशेषज्ञ आशंका जता चुके हैं। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर अरुण कुमार ने हाल ही में जनचौक को दिए अपने साक्षात्कार में कहा है कि भारत को वास्तविक तेज विकास दर हासिल करने के लिए पीएलआई की जगह श्रम बहुल उद्योग धंधों, कृषि आधारित उद्योगों पर पूंजी निवेश को बढ़ाना होगा। व्यापक आबादी के हाथ में यदि पैसे आयेंगे तो वे इसे अपनी जरूरतों पर खर्च करेंगे और इसके जरिये उद्योग धंधों को आवश्यक गति मिलेगी। लेकिन इस बात को कहते करीब 4 साल से ज्यादा गुजर चुके हैं। लगता है सरकार पूरी तरह से बड़े कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी की जरूरतों पर निर्भर हो गई है, और मौजूदा दुश्चक्र से मोदी सरकार खुद को निकाल पाए, के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। 

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author