सागर। मध्यप्रदेश का सागर जिला एक पिछड़ा इलाका माना जाता है। जिले की मुख्य समस्याएँ पलायन, सूखा और संसाधनों की कमी हैं। यहाँ बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोगों के हालात कई बार सुर्खियों में रहते हैं।
ऐसी ही एक तस्वीर सागर से करीब 50 किलोमीटर दूर बांदरी नगर परिषद के वार्ड 14 में निवास करने वाले आदिवासी लोगों की है। ये लोग पहले क्वायला गाँव के निवासी थे। बाद में, क्वायला (दूरी 5 किमी) और बांदरी (दूरी 2 किमी) के बीच पठार पर इन्हें वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत 2 से 3 एकड़ कृषि भूमि का पट्टा दिया गया। तब इनका रिश्ता क्वायला से टूटकर अपने नए स्थल, पठार, से जुड़ गया। लेकिन कुछ साल पहले इस पठार इलाके को बांदरी नगर परिषद के वार्ड 14 के रूप में शामिल कर लिया गया।
ऐसे में पठार पर करीब 20 आदिवासी परिवारों के 150-200 लोग लगभग 20 सालों से निवास कर रहे हैं। ये लोग विभिन्न चुनौतियों से घिरे हैं, जिससे इनके जीवन की मुश्किलें बढ़ रही हैं।

इन चुनौतियों पर हमने आदिवासी लोगों से चर्चा की। इस चर्चा में सबसे पहले हमारी बात प्रहलाद सौर आदिवासी से होती है। वे कहते हैं, “हम लोगों को पठार पर भूमि पट्टे पर कृषि करने में दूरी एक बाधा थी। साथ ही, जीव-जंतुओं से फसलों की सुरक्षा करना भी एक चुनौती थी। ऐसे में हम जीविका के लिए पठार पर स्थायी रूप से निवास करने लगे। मगर, यहाँ 20 साल निवास करने के बाद भी कई समस्याएँ बनी हुई हैं, जिनका समाधान हम तलाश रहे हैं।”
“पहली और गंभीर समस्या पीने के पानी की है। पानी के लिए अभी एक कुआँ खुदवाया गया है, जो अधूरा है। इस कुएँ से पूरी तरह पानी की पूर्ति नहीं हो पा रही है। तब हमें पानी लेने 1-2 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।”
कृषि की समस्या पर प्रहलाद कहते हैं, “कृषि में समस्या यह है कि पट्टे की भूमि में पानी की कमी के कारण आधी भूमि पर ही कृषि कर पाते हैं, बाकी आधी भूमि सूखी पड़ी रहती है। एक आशा है कि सरकार कभी तो पानी की सुविधा करवाएगी, तब खेतों की प्यास बुझ जाएगी और खेत लहलहा उठेंगे।”
खेती में एक और समस्या बताते हुए वे कहते हैं, “पट्टा होने के बावजूद हमें किसानों को मिलने वाली सम्मान निधि, समर्थन मूल्य, खाद, बीज जैसी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता। इस लाभ के लिए हमने अधिकारियों को कई बार दस्तावेज और पैसे तक दिए, लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ।”

आगे प्रहलाद शिक्षा की समस्या पर कहते हैं, “हमारे 5 से 10 वर्ष के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। वजह यह है कि यहाँ स्कूल नहीं है। यदि बच्चे बांदरी पढ़ने जाएँ, तो कच्चा, घाटी वाला 2 किमी का रास्ता और फोर-लेन रोड को पार करना चुनौतीभरा है। इस रोड पर आए दिन दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, जिससे बच्चों का अकेले जाना मुश्किल हो जाता है। वहीं, क्वायला गाँव, जो जंगली इलाका है, वहाँ भी जाने के लिए कच्चा रास्ता है। ऐसे में पढ़ाई के लिए बच्चे क्वायला भी नहीं जा पाते।”
इसके बाद राधा गोंड समस्याओं पर अपने विचार रखते हुए बताती हैं, “यहाँ बिजली भी बहुत मुश्किल से पहुँची है। बिजली के खंभे कम लगे हैं, इसलिए खंभे से घर तक बिजली ले जाने के लिए करीब 1000 रुपये की तार लगानी पड़ती है। वहीं, घरों पर मीटर भी नहीं लगे हैं।”
एक और समस्या कच्ची सड़क की है। वे कहती हैं, “कच्ची सड़क पर बरसात में चलना भी मुश्किल हो जाता है। सड़क पर फैले कीचड़ और गीलापन से सर्प, बिच्छू जैसे जहरीले जीव-जंतुओं का डर भी सताता है। कच्ची सड़क के चलते स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों में यहाँ एंबुलेंस भी नहीं आ पाती। वहीं, प्राथमिक स्तर पर यहाँ अस्पताल और आंगनवाड़ी की सुविधा भी हमें नहीं मिल पाई है।”
“इस स्थिति में गर्भवती महिलाओं और बीमार व्यक्तियों को हाथों के बल या खाट पर बांदरी तक ले जाना पड़ता है। वे तब कहीं अस्पताल पहुँच पाते हैं। कई बार तो अस्पताल न पहुँच पाने की स्थिति में महिलाओं की डिलीवरी यहीं हो जाती है।”
जीविका को लेकर राधा बयान करती हैं, “यहाँ कृषि के अलावा हम आदिवासी जलावन लकड़ी बेचकर जीविका चलाते हैं। एक दिन हम लकड़ी इकट्ठा करते हैं, दूसरे दिन लकड़ी सिर पर लादकर बांदरी बेचने के लिए जाते हैं, जिससे 100-150 रुपये मिलते हैं।”
राधा के बोल थमते ही कुशमरानी अपने विचार शुरू करते हुए कहती हैं, “हम खुले में शौच से मुक्त भी नहीं हो पाए हैं। वहीं, आवास योजना भी कुछ लोगों को मिली, बाकी लोग वंचित रह गए। हमारे खेतों की रक्षा करना भी एक चुनौती है। हमारे खेत खुले पड़े रहते हैं, जिससे नीलगाय हमारी फसलों को बर्बाद कर देती है। हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम खेतों की बाउंड्री बना सकें, ताकि कोई जीव-जंतु हमारी फसल बर्बाद न कर सके।”
इसके बाद हमारी चर्चा तुलई गोंड से होती है। तुलई सार्वजनिक जीवन की कई चिंताओं से घिरे हैं। वे कहते हैं, “शादी समारोह के अवसर के लिए सामुदायिक भवन से लेकर श्मशान घाट तक की कोई व्यवस्था यहाँ नहीं हो पा रही है। वहीं, उज्ज्वला योजना के सिलेंडर से भी कुछ लोग वंचित रह गए हैं, जिससे उन्हें लकड़ी के सहारे मिट्टी के चूल्हे पर ही खाना बनाना पड़ता है।”

आगे चिंतित स्वर में तुलई कहते हैं, “बुनियादी सुविधाओं की कमी हमारे जीवन का एक बड़ा हिस्सा बन चुकी है। पता नहीं हम कब अपने जीवन की राह को थोड़ा आसान बना पाएँगे।”
एकता परिषद के कार्यकर्ता मनोज कुमार गोंड भी आए दिन पठार के लोगों के हालात देखते रहते हैं। पठारवासियों के हालात पर मनोज का कहना है, “पठार पर रह रहे आदिवासी लोग जब बुनियादी सुविधाओं के लिए ही संघर्ष करते रहेंगे, तो अपने जीवन को वे कैसे बदल पाएँगे? उनके बच्चों का भविष्य कैसा होगा? ऐसे कई सवाल पठारवासियों के गले में अटके हैं। अपनी समस्याओं से बंधे ये लोग समाधान के रास्ते तलाश रहे हैं।”
मनोज आगे कहते हैं, “शासन-प्रशासन को पठार जैसे इलाकों का भ्रमण करते रहना चाहिए, ताकि पठार जैसे क्षेत्रों में रह रहे लोगों के हालात को प्रशासन समझकर हल करने का ठोस प्रयास कर सके। इससे आम जन के जीवन की राह न सिर्फ आसान होगी, बल्कि वे समग्र विकास की ओर मजबूत कदम बढ़ा सकेंगे।”
(सतीश भारतीय मध्यप्रदेश के एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
+ There are no comments
Add yours