इमरजेंसी 2018: “मास्टर स्ट्रोक” पर ताला, पुण्य प्रसून वाजपेयी की एबीपी से छुट्टी

Estimated read time 1 min read

जनचौक ब्यूरो

नई दिल्ली। पहले एबीपी के चीफ मिलिंद खांडेकर गए फिर पुण्य प्रसून वाजपेयी। उसके बाद अभिसार शर्मा को ऑफ एयर कर दिया गया। और आखिर में चैनल की कमान एक बीजेपी भक्त को सौंप दी गयी। एबीपी के न्यूज़रूम में मीडियाकर्मियों पर ये गिलोटिन एक ही दिन एक साथ गिरा। वो भी सत्ता की पूरी निगरानी और उसके निर्देशन में।

मिलिंद खांडेकर ने इस्तीफा दिया ही वाजपेयी के मसले पर था। दरअसल सरकार किसी भी रूप में वाजपेयी के “मास्टर स्ट्रोक” के शो को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। पहले उसने रात के समय केबिल और सैटेलाइट के जरिये उसे ब्लैक करवाने की कोशिश की। जब उसका विरोध होना शुरू हुआ और लोगों के सामने सरकार की कलई खुलने लगी तब उसने सीधे एबीपी के मैनेजमेंट पर दबाव डाला।

उसके बाद बताया जा रहा है कि मैनेजमेंट ने खांडेकर को वाजपेयी के शो को बंद करने का निर्देश दिया। लेकिन खांडेकर ने उसको मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि खांडेकर ही वाजपेयी को इस शो के लिए ले आए थे। लिहाजा मैनेजमेंट की बात मानने की बजाय उन्होंने खुद ही अपना इस्तीफा देना उचित समझा। अपने इस्तीफे की जानकारी उन्होंने ट्वीट के जरिये भी दी थी।

मामला यहीं तक नहीं रुका। बताया जा रहा है कि चैनल में एंकर के तौर पर कार्यरत अभिसार शर्मा को भी ऑफ एयर कर दिया गया है। और एबीपी की जिम्मेदारी रजनीश आहूजा को दी गयी है। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की माने तो उन्हें बीजेपी के करीब माना जाता है। और एक दौर में आडवाणी के घरों के चक्कर लगाया करते थे।

इसके पहले भी वाजपेयी को इसी तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ा था। जब उन्होंने आज तक में बाबा रामदेव से कड़े सवाल पूछे थे। बताया जाता है कि उन्हें उसके लिए माफी भी मांगने के लिए कहा गया था लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया था। अंदरूनी सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि इंटरव्यू के दौरान वाजपेयी द्वारा कुछ कड़े सवाल पूछे जाने के बाद उसे कुछ समय के लिए रोक दिया गया। फिर मैनेजमेंट ने वाजपेयी को कड़े सवाल से बचने ताकीद की थी। बावजूद इसके वाजपेयी के तेवर ढीले नहीं पड़े और जिसका खामियाजा उन्हें इस तरह से भुगतना पड़ा। हालांकि उसी समय उन्हें एबीपी की तरफ से “मास्टर स्ट्रोक” के शो का प्रस्ताव मिल गया था।

चैनलों में एनडीटीवी के बाद एबीपी दूसरा चैनल था जिसने इस बीच सरकार से कुछ सवाल पूछने की हिम्मत दिखायी थी। “मास्टर स्ट्रोक” उसी कड़ी का हिस्सा था। लेकिन अभी दो महीने भी नहीं बीते थे कि उसकी मार सत्ता के गलियारों में महसूस की जाने लगी। हालांकि उसको कम करने के लिए सरकार ने जरूर कुछ उपाय किए लेकिन उससे मामला हल होने की जगह बिगड़ने लगा।

जिस तंत्र के भीतर मीडिया स्वतंत्र नहीं हो उसे इमरजेंसी कहते हैं। मौजूदा मोदी सत्ता ने भले ही लोकतंत्र का लबादा ओढ़ा हुआ हो लेकिन मीडिया के साथ ये इमरजेंसी से भी ज्यादा बुरे तरीके से पेश आ रही है। जिस पत्रकारिता का काम सत्ता और सरकार से सवाल पूछना होता है उसे उसका गाना गाने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के इतिहास में आज के दिन को काले दिन के तौर पर याद किया जाएगा।

जब खुलेआम मीडिया और उसमें काम करने वालों की गर्दन पकड़ी जा रही है। सरकार का हंटर न्यूजरूमों में घूम रहा है। और मीडियाकर्मियों को घुटनों के बल नहीं बल्कि सरकार के सामने शाष्टांग दंडवत करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। और जिसने थोड़ी भी रीढ़ दिखाने की कोशिश की उसे संस्थानों से बाहर निकालने की व्यवस्था कर दी जा रही है।

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author