अभी कुछ नहीं हुआ है, बस ‘स्थाई बहुमत’ का भ्रम टूटा है, नया भ्रम बनाया जा रहा है

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इस बात से इनकार नहीं किया सकता है कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार गई। हां, सरकार बनाने में सफल हो गई है। लेकिन चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ बहुमत का समर्थन ही नहीं हारी है, ‘स्थाई बहुमत’ का भरोसा भी हार गई है। सरकार बनने से ‘स्थाई बहुमत’ के खो चुके भरोसे को फिर से हासिल कर पाना मुश्किल ही है। भारतीय जनता पार्टी सरकार की ओट में हार की पीड़ा को छिपा सकती है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जो ‘स्थाई अनुयायियों’ और ‘समर्पित स्वयंसेवकों’ के भरोसे के हिलने का क्या करे!

जीत और हार महत्त्वपूर्ण होता है, लेकिन कभी-कभी इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं, जब जीत और हार अर्थहीन हो जाता है। अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि जीतनेवाला कौन है और हारनेवाला कौन है! कलिंग युद्ध (262-261 बीसी) के संदर्भ में इतिहास सम्राट अशोक की जीत को महत्त्वपूर्ण मानता है तो वाटरलू की लड़ाई (18 जून 1815) वाटरलू में नेपोलियन की हार को याद रखता है। अशोक को इसलिए महान माना जाता है कि वह जीत के बाद युद्ध से विरत हो गया था।

जो बात राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख, मोहन भागवत ने 2024 में ‘अपनी’ भारतीय जनता पार्टी की हार (बहुमत खोने) के बाद कही है, वही बात उन्होंने 2014 या कम-से-कम 2019 की जीत के बाद दृढ़ता से कही होती तो बड़ी बात होती। अब तो विचारधारात्मक-दुर्घटना हो चुकी है। मीडिया के सहयोग और समर्थन से छवि-निर्माण की प्रक्रिया जारी है। शासन प्रमुख के रूप में नरेंद्र मोदी के तेवर और रुख में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के उपदेश से किसी बदलाव की उम्मीद करना, अपने को धोखे में रखने अलावा कुछ नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने आखिरकार अपना मुंह खोला। पहली श्रुति में यह हार के हाहाकार के अलावा कुछ नहीं है। चुनाव परिणाम आने के बाद से राजनीतिक चीख और ठहाके एक साथ दक्षिणपंथी राजनीति में गूंजने लगी है। चीख का संबंध उस राजनीतिक दुर्घटना से है जिसकी चपेट में दक्षिणपंथी विचारधारा अंततः पड़ ही गई। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की राजनीतिक विचारधारा दक्षिणपंथी तो है, लेकिन उस हिसाब से अति-दक्षिणपंथी नहीं रही है। विश्व हिंदु परिषद और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में फर्क है। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल जैसी सभी संगठनों को एक साथ रखकर विचार तो किया जा सकता है, लेकिन इन्हें एक ही मानकर चलना भूल है।

“धर्मो रक्षति रक्षितः” यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है, जैसे ध्येय-सूत्र के साथ विश्व हिंदू परिषद का गठन हुआ था। सिद्धांततः यह कहा और माना जाता रहा कि यहां धर्म का अर्थ कर्तव्य है, कोई विशिष्ट धर्म नहीं। धर्म का अर्थ कर्तव्य ही होना चाहिए, मगर व्यवहार में धर्म के इस सैद्धांतिक अर्थ को जरा-सा भी नहीं अपनाया गया। सिद्धांत और व्यवहार का फर्क होता है, लेकिन इतना फर्क होना ठीक नहीं हो सकता है कि कोई संगठन अपने ध्येय-सूत्र से बिल्कुल भिन्न और उलट दिशा ही पकड़ ले। भारतीय संस्कृति के संदर्भ के अधिकतर सामाजिक मामले में सिद्धांत और व्यवहार की यही त्रासद कथा और पुरानी व्यथा है। ‘कथनी करनी’ में फर्क का सवाल कम-से-कम भक्ति-काल में कबीर और आधुनिक काल में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने पुरजोर तरीके से उठाया है।

“सेवा, सुरक्षा और संस्कृति” का ध्येय-सूत्र पकड़कर 1984 में बजरंग दल का गठन हुआ। बजरंग दल ने राम मंदिर निर्माण आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया। ‘भारतीय संस्कृति’ अनेक सांस्कृतिक धाराओं से बनी है। ‘हिंदू संस्कृति’ इन अनेक धाराओं में से एक धारा है, एक भिन्न धारा सिद्ध-नाथ परंपरा से निकली धारा है। यह एक अर्थ में ‘हिंदू’ में निहित ‘वर्ण-वर्चस्व’ के विरुद्ध बनी धारा है। आज इस का सब से जीवंत केंद्र गोरखपुर में स्थित गुरु गोरखनाथ मंदिर है। कहना न होगा कि वर्चस्व की राजनीति और वर्चस्व-विरोध की राजनीति के टकराव के सामाजिक प्रतिफलन से संस्कृति का गहरा संबंध होता है। वैसे, संस्कृति में धर्म के कुछ तत्व होते तो हैं, लेकिन वे धार्मिक तत्व वस्तुतः संस्कृति की बुनियाद में होकर भी बुनियाद नहीं रचते हैं।

संस्कृति हमेशा गंगा-जमुनी ही होती है, और ‘भारतीय संस्कृति’ भी गंगा-जमुनी ही है। इसलिए भारतीय संस्कृति और हिंदू संस्कृति को एक मानना और ‘हिंदुत्ववादी संगठन’ को भारतीय संस्कृति के पहरेदारों के रूप में देखना, इतिहास की व्याख्या से निकली मूल-दृष्टि नहीं, बल्कि ‘भूल-दृष्टि’ है, गलत व्याख्या है। यह अलग बात है कि आज-कल यह गलत व्याख्या और ‘भूल-दृष्टि’ ही अधिक फूल-फल रही है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने इस ‘भूल-दृष्टि’ को इतनी जोर से पकड़ा कि वह ‘अपनी दृष्टि’ ही गंवा बैठी। ‘भूल-दृष्टि’ जब-जब ‘मूल-दृष्टि’ को प्रति-स्थापित कर देती है, तब-तब ‘वैचारिक-दुर्घटना’ अनिवार्य हो जाती है।

यह तो स्पष्ट रहना चाहिए कि विश्व हिंदू परिषद की रुचि राम मंदिर में थी और भारतीय जनता पार्टी की रुचि सत्ता में थी। रुचि की इसी मिलन-रेखा पर दोनों के बीच रणनीतिक समझौता हुआ। विश्व हिंदू परिषद के युवा संगठन के रूप में बजरंग दल का गठन हुआ। विनय कटियार इस के बड़े नेता बने। प्रसंगवश, विश्व हिंदू परिषद राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से पुराना संगठन है। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिली। राम मंदिर का बनना अभी बाकी था। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिलने में विश्व हिंदू परिषद की भूमिका को भारतीय जनता पार्टी ने सार्वजनिक चर्चा से बाहर कर दिया।

तर्क-वितर्क में कहा जाने लग कि राम मंदिर आस्था और विश्वास का विषय है। यह सब कहते हुए भी चूंकि अभी राम मंदिर का बनना बाकी था, भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर पर राजनीति करती रही। सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में आया। पर्दा के ओट से भारतीय जनता पार्टी इस का सारा श्रेय (Dividend) खुद बटोरती रही। विश्व हिंदू परिषद के बड़े समझे जानेवाले नेता धीरे-धीरे किनारे होते चले गये या कर दिये गये। आज अशोक सिंहल, प्रवीण तोगड़िया जैसे नामधारी किसी आदमी का कहीं कोई उल्लेख नहीं होता है। अब राम मंदिर बन गया है। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, असली और वास्तविक साधु-समाज, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ भारतीय जनता पार्टी कहीं कोई नहीं! बस एक अकेला सब पर भारी पड़ता चला गया।

असल में, इस बीच नरेंद्र मोदी की राजनीति और कॉरपोरेट की अर्थ-नीति में बहुत अ-पवित्र और घातक सांठ-गांठ भी हो गई। कॉरपोरेट की रुचि और दखल राजनीति में बढ़ती चली गई और राजनीति की रुचि सत्ता-हवस के साथ-साथ धन-हवस की हद तक बढ़ गई। राजनीतिक जरूरत की हद से बाहर निकलकर शरारत तरह-तरह का गुल खिलाने लगी, जन-विद्वेषी बयानों का ज्वार उठाया जाने लगा। कब जरूरत विलास में बदल जाती है, कहना मुश्किल है। सांठ-गांठ की व्यवस्था ने राजनीति और अर्थ-नीति दोनों को ना-जायज और दैत्याकार विस्तार देना शुरू कर दिया। सोद्देश्य भेदभाव की कु-मति ने भारत के लोगों के जीवनयापन की परिस्थिति की स्वाभाविकता को हिलकोरना शुरू कर दिया। आम लोगों के पेट का पानी डोल गया। रूपक में कहा जाये तो, देश तालाब बन गया और जनता मछलियां बन गई।

कॉरपोरेट और सरकार का आचरण महाजाल में बदल गया। बड़ी मछली का छोटी मछली के खा जाने को स्वाभाविक बताया जाने लगा। ‘मत्स्य-न्याय’ की वैधता बहाल करने की चतुर्दिक ही नहीं, सार्वदैशिक कोशिशें शुरू हो गई। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द जैसे स्वाभाविक न्याय के प्रमाण चतुष्टय पर ‘मत्स्य-न्याय’ की बुद्धि का वर्चस्व बढ़ने लगा। फॉरेंसिक फाइनेंशियल कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और उस के बाद की प्रशासनिक और शासकीय रवैया से कॉरपोरेट का बिगड़ा चरित्र ही नहीं आम लोगों के सामने आया, बल्कि आर्थिक क्षति भी खूब हुई।

राजनीतिक वातावरण में बदलाव दिखने लगा। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की सक्रियता बढ़ी और हिंदुत्व की राजनीति करनेवालों में ‘स्थाई बहुमत’ का भरोसा टूटने लगा और अंततः टूट ही गया। देश की जनता राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत की बात को कितना अपने पल्ले बांधती है, वह तो बाद की बात है। पहले तो यह कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ‘श्रेष्ठ प्रचारक’ उन बातों को कितना महत्व देते हैं, यह देखने की बात जरूर है।

प्रमुख जी! मणिपुर पर आप अब इतनी कातरता से बोल रहे हैं! अब बंदूक की त्रासद कथा पढ़ रहे हैं। कारण ‘मणिपुर’ ही है, या कुछ अन्य कारण भी दिख रहे हैं! आप को हक है, आप की मर्जी है, जब मन करे तब बोलें, जो मर्जी सो बोलें! डाल का चूका ‘हनुमान’ और समय का चुका ‘महान’ कहीं का नहीं रह जाता है। समय बहुत बलवान होता है! याद है न, “मनुज बली नहिं होत है समय होत बलवान, भीलन लूटी गोपिका वहि अर्जुन वहि बान!” आप के वफादारों वफादारियां बिक चुकी है, श्रीमान! गजब कि खबर आप को ही नहीं!

आम चुनाव 2024 की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। सरकार बन चुकी है। मंत्रालय बांटे जा चुके हैं। पक्ष-प्रतिपक्ष की विचार-दृष्टि से जनादेश की व्याख्या और घात-प्रतिघात जारी है। यह लोकतंत्र की खासियत ही है कि इस में चलनेवाले विमर्श में आत्म-संतोष का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र सभी के पास होता है। क्या है वह सूत्र है!

लोकतांत्रिक लहजे में ध्वनि-सूत्र दुहराया जाता है, ‘चित तो तुम्हारे, पट तो हम जीते’, और सिक्का उछाल दिया जाता है। सिक्का उछल जाये तो नतीजा आता ही है। नतीजा आने के बाद ताकतवर कहता है, हम ध्वनि-सूत्र के मुताबिक हम जीत गये। कैसे? कमजोर की समझ में कुछ नहीं अता है! ध्वनि-सूत्र का लिखित पाठ निकाला जाता है, ‘चित तो तुम हारे, पट तो हम जीते’! ध्वनि-सूत्र में ध्वनित ‘तुम्हारे’ लिखित में ‘तुम हारे’ दिखा दिया जाता है। ध्वनि-सूत्र की वैधता पर शुरू हो जाता है, बकझोंझों! ध्वनि-सूत्र की वैधता पर चलनेवाले बकझोंझों को लोकतांत्रिक सम्मान के साथ संवाद कहा और माना जाता है।

रोजी-रोटी के संघर्ष में लगे बहुत सारे आम आदमी की समझ में पांच साल तक बकझोंझों में अपना पक्ष कहीं नहीं दिखता है। चुनाव के समय तो जनता को ‘सब कुछ’ समझना होता है। समझ में न आये तो भी ‘सब कुछ’ उस का समझा हुआ मान लिया जाता है! इस तरह से ‘सब कुछ’ समझकर आम मतदाता लोकतंत्र के पर्व में शामिल होकर दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र की मतदान प्रक्रिया में शरीक होता है। बड़े लोगों को देश-विदेश में बखान करने के लिए इस शिरकत पर बहुत गर्व होता है! मतदान प्रतिशत में गिरावट का लक्षण दिखते ही सभी वर्ग के लोग चिंतित हो जाते हैं।

चुनाव परिणाम में जनता के सामूहिक विवेक का क्या संदेश है! सभी के पास संदेश का अपना-अपना पाठ है, कथा है, कथांतर है, अपना-अपना अर्थ है। तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने जनादेश को जैसे और जो पढ़ा वह अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। इन दोनों नेताओं के समर्थन के बिना सरकार का बन पाना संभव ही नहीं था।

‘कुछ लोग’ भारतीय जनता पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी), जनता दल यूनाइटेड कहें तो असल में नरेंद्र मोदी, चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार से भिन्न तरीके से जनादेश के विवेक को मन लगाकर पढ़ रहे हैं। ऐसे लोग अपने अंतर्विरोधों और विचारधारा के राजनीतिक मूल्यों के दबाव से सरकार के निष्फल होने की उम्मीद लगाये बैठे हैं। उन्हें ध्यान होना ही चाहिए कि चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार दोनों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पुराने सहयोगी हैं। बद-से-बदतर परिस्थितियों में भी उन्होंने हाथ पीछे नहीं खींचा, न ‘राज धर्म’ निभाने के अटल संदेश पर कान दिया! अब तो अटल विहारी बाजपेयी के दौर की एनडीए से यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) भिन्न किस्म की है।

2024 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार बनाने में सहयोग की क्या कीमत ये वसूलेंगे और क्या कीमत अदा करेंगे यह तो भविष्य में पता चलेगा। कहना जरूरी है, ‘बदलाव के जनादेश’ के विपरीत की पक्षधरता से भारत के लोकतंत्र और संविधान के प्रति सम्मानजनक सलूक नहीं हुआ है। लोकतंत्र और संविधान के प्रति सम्मानजनक सलूक कोई अमूर्त बात नहीं है।

जनता के जीवनयापन के अवसरों और बहुआयामी न्याय की परिस्थितियों में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं होता है तो फिर जनता में इनकी राजनीति की जो भी बची-खुची साख है, उसके समाप्त होते देर नहीं लगेगी। एक बात यह भी कि जिस प्रकार हिंडनबर्ग का घात कॉरपोरेट झेल ले गया, उसी प्रकार नरेंद्र मोदी की राजनीति बड़ी इस झटके को झेल लेगी।

कहना न होगा कि मौसम वफादारियों के बिकने और खरीददार के चहकने का है। रात-दिन बिकने-खरीदने का कारोबार चलता रहता है! कब किस की बोली लग जाये, क्या पता! बस शर्त एक ही है धंधा चोखा होना चाहिए। प्रसंगवश, आंख में चढ़ने लायक, चक्षु से विकसित शब्द है, ‘चोखा’! तो असल बात है कि कौन क्या कीमत अदा करता है; कौन क्या वसूलता है।

राजनीतिक गुलाटियों के बीच भी यह नहीं भूलना चाहिए कि अंततः सताई जा रही जनता ही इस देश की असली हित-धारक है। इस सताई हुई जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता (Collective Wisdom) से इनकार नहीं किया सकता है। चहकते हुए बबुआनों के हक का आधार भी उन के जनता होने में ही है, ‘अवतारी’ के भक्त होने में नहीं! ’अवतारी आभा’ की चमक क्रुद्ध पसीने की दो-चार बूंद पड़ते ही अपने-आप बूझने लग जाती है!

अभी लोक सभा अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया होनी है। संसद सत्र होना है। सालाना बजट पेश होना है। जो होना है, सो होना है! लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि पेपरलीक के आघात से युवाओं को कैसे बचायेगी सरकार? खैर, अभी बहुत कुछ होना है। अभी कुछ नहीं हुआ है, बस ‘स्थाई बहुमत’ का भ्रम टूटा है, नया भ्रम बनाया जा रहा है। राजनीतिक दलों के लिए चुनाव परिणाम तो आ गया जनता के लिए कम-से-कम अगले छः महीने तक इंतजार। छः महीना बहुत लंबा वक्त तो नहीं होता है न!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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