इतिहास के आईने में वर्तमान यानी नेहरू और मोदी

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आम चुनाव 2024 के ऐतिहासिक परिणाम से भारत में एक और ऐतिहासिक दिन निकला 9 जून 24। यह दिन कई कारणों से ऐतिहासिक बन गया है। जो दिन ऐतिहासिक बन जाता है, उसे बार-बार याद किया जाता है। भारत की सत्ता की राजनीति में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे ऐसे नेता हैं, जिन्हें लगातार तीसरी बार भारत का निर्वाचित प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला है। इसके पहले केवल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लगातार तीसरी बार निर्वाचित प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला था। इस प्रकार नरेंद्र मोदी को जवाहरलाल नेहरू‎ के समतुल्य और समकक्ष माना जा सकता है।

अपने दस साल के ‎‘शासन काल’ में नरेंद्र मोदी ने जितना इरादतन कुप्रचार ‎जवाहरलाल नेहरू‎ का किया है, उतना किसी अन्य का नहीं। भारत की सत्ता की राजनीति के संदर्भ में निश्चित ही नरेंद्र मोदी को जवाहरलाल नेहरू‎ के समतुल्य माना जाना चाहिए। जहां तक नरेंद्र मोदी और जवाहरलाल नेहरू‎ के समकक्ष होने की बात है तो‎ यह ध्यान में रखना ही होगा कि दोनों के राजनीतिक और ऐतिहासिक पक्ष, अक्ष और कक्ष (Axis and Orbit) में कुछ बुनियादी फर्क है।

जवाहरलाल नेहरू (14 नवम्बर 1889 – 27 मई 1964) भारत के प्रथम ‎प्रधानमंत्री (15 ‎अगस्त 1947 – 27 मई 1964)‎  समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, ‎और लोकतांत्रिक गणतंत्र के वास्तुकार माने जाते हैं। वे राजनेता ‎के साथ-साथ ‎गहरे चिंतक और शानदार लेखक भी थे। जवाहरलाल नेहरू‎ भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, ‎गणराज्य बनाने वाले लोगों में प्रमुख थे। वे भारत के किसी राज्य के मुख्यमंत्री कभी नहीं रहे।

जवाहरलाल नेहरू‎ आजीवन कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे। दो-दो विश्व-युद्धों से तहस-नहस दुनिया में भारत विभाजन की विभीषिका और गांधी हत्या के कलंकित दौर में पंचशील के सूत्रधार प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू‎ को याद किया जाता है। जवाहरलाल नेहरू‎ की पहचान राजनीतिक-मैत्री को बढ़ावा देनेवाले राज-पुरुष की थी। नेहरू राजनीतिक-दुश्मनी बढ़ानेवालों के सख्त खिलाफ थे। नेहरू ‘विकासशील भारत’ के निर्माण की चुनौती के सामने थे, ‘विकसित भारत’ के विपणन के दौर में प्रधानमंत्री नहीं थे। 

नरेंद्र दामोदरदास मोदी (जन्म: 17 सितम्बर 1950) लगातार 4 बार गुजरात के मुख्यमंत्री ‎‎(7 अक्तूबर 2001 – ‎‎22 मई 2014) भी रहे। 26 मई 2014 से अब तक लगातार तीसरी ‎बार भारत के निर्वाचित प्रधानमंत्री बने हैं। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं। नरेंद्र मोदी और जवाहरलाल नेहरू‎ की राजनीतिक विचारधारा में बुनियादी फर्क है। दोनों में भारत की संस्कृति के प्रति रुझान, समझ और सरोकार में भी बहुत फर्क है। दोनों के राजनीतिक अक्ष और कक्ष (Axis and Orbit) अति-महत्वपूर्ण बुनियादी अंतर होने के कारण दोनों भारत की सत्ता की राजनीति के संदर्भ में समतुल्य तो माने जा सकते हैं, लेकिन समकक्ष मानना उचित नहीं है।

कांग्रेसी जवाहरलाल नेहरू‎ और कांग्रेस-विरोधी नरेंद्र मोदी दोनों को भारत के लोकतंत्र में शासन का निर्बाध और लगभग समान समय मिलना भी संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, ‎गणराज्य का गौर करने के लायक शुभ-लक्षण है। एक बात और, जवाहरलाल नेहरू‎ को सत्ता की राजनीति में गठबंधन की राजनीति का कोई अनुभव नहीं था। हां, राजनीतिक मिलान और सह-जीवन का अनुभव जरूर था। 

अब तक नरेंद्र मोदी को भी सत्ता की राजनीति में रणनीतिक गठबंधन की राजनीति का कोई अनुभव नहीं रहा है। हालांकि आम चुनाव 2024 ने अपने परिणाम से लोकतांत्रिक सत्ता की जो पटकथा लिखी है, उसके चलते नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल में आकर सत्ता के लिए गठबंधन की राजनीति का अनुभव होगा। ‎‘कूट-बुद्धि और कटु ‎अभिव्यक्ति’‎ की राजनीति के ‎‘शीर्ष पुरुष’‎ नरेंद्र मोदी के लिए गठबंधन की राजनीति के संचालन का अनुभव कैसा रहेगा, अभी कहना मुश्किल है, कयास बेकार है।

आम चुनाव 2024 ने अपने परिणाम से लोकतांत्रिक सत्ता की जो पटकथा लिखी ‎है,‎ वह गौर करने के लायक है। असल में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों ने अपना समर्थन देकर नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया है। ‘एक अकेला सब पर भारी’ की छाती ठोक घोषणा और अकेले दम पर 370 और गठबंधन के साथ 400 संसदीय क्षेत्र में जीत के लक्ष्य की घोषणा करनेवाले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का ‎2024 के आम चुनाव में ‎272 संसदीय क्षेत्र में सिमट जाना कोई साधारण बात नहीं है, बल्कि इस में राजनीतिक-दुर्घटना के लक्षण छिपे हुए हैं। इन लक्षणों पर भी विचार करना चाहिए।

जाहिर है राजनीतिक परिस्थिति बदल चुकी है। याद किया जा सकता है कि 2014 और 2019 में क्रमशः 288 और 303 संसदीय क्षेत्र में जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी के राजनीतिक दंभ ने भारत की राजनीति को ज्ञात-अज्ञात डर से भर दिया था। विपक्षी दलों और उनकी राज्य सरकारों को रौंदने में कोई कसर नहीं छोड़ा गया। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा विपक्ष मुक्त भारत में बदलता ही चला गया। अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों के भीतर और बाहर से परेशान हो जाने के लिए तमाम राजनीतिक कदम सरकार बेहिचक उठाने लगी। संवैधानिक दायित्वों और लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई लाज-लिहाज नहीं बचा। कई ऐसी छिट-पुट घटनाएं भी हुई जिनमें जान-माल का बहुत नुकसान हुआ। ‎

देश की राजनीति में हिंदू-मुसलमान के चिरकालिक सह-अस्तित्व के बीच में स्थाई राजनीतिक दुश्मनी का वातावरण बनाकर ‘स्थाई बहुमत’‎ का जुगाड़ भिड़ाने के लिए मुसलमानों को राजनीतिक रूप से मसलने की भरपूर कोशिश की गई। बहु-स्तरीय बहु-संख्यकवाद (Majoritarianism) ‎ की राजनीति के तहत मुसलमानों के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने यानी जीवन में जो भी महत्वपूर्ण होता है, सब पर सोद्देश्य भेदभाव के लिए अ-लोकतांत्रिक और अ-नैतिक नज़रदारी (Surveillance) रखी गई। यानी पूरे देश में उत्तेजना और उन्माद का वातावरण बन गया। इस सच का एक और पहलू है, जिस पर सामान्य रूप से ध्यान नहीं जाता है। असहमत और विरोध में खड़े होनेवाले हिंदुओं के लिए भी जीना मुश्किल होता गया। निश्चित रूप से ऐसे माहौल में जीवनयापन के असली मुद्दों पर आम लोगों का ध्यान ही नहीं जा पा रहा था।

दूसरी तरफ, मुख्य-धारा की मीडिया की भूमिका बहुत ही पक्षपातपूर्ण रही। मुख्य-धारा की मीडिया का पक्षपातपूर्ण रवैया लोकतंत्र और संविधान के प्रति बिल्कुल ला-परवाह था। ‘अधिकतम मुनाफा, अधिकतम सत्ता’ कॉरपोरेट और संसदीय राजनीति के गठजोड़ का रणनीतिक सूत्र बन गया। साफ-साफ कहा जाये तो‎ ‎‘अधिकतम मुनाफा, अधिकतम सत्ता’‎ के गठजोड़ के कारण  मुख्य-धारा की मीडिया के संवैधानिक और नैतिक संतुलन में आपराधिक बिगाड़ की स्थिति बन गई। कॉरपोरेट और सरकार में मिलीभगत का दुष्प्रभाव पड़ना तो स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए, भले ही यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक ही क्यों न हो। मुख्य-धारा की मीडिया संसदीय विपक्ष को वैर की नहीं भी तो‎ बिल्कुल गैर की दृष्टि से व्यवहार करता रहा। नई परिस्थिति में कॉरपोरेट हित की नई समायोजित दृष्टि का असर मुख्य-धारा की मीडिया के ‘स्वतंत्र आचरण’ और ‘सार्वजनिक व्यवहार’ पर भी दिख सकता है, दिखना चाहिए।    

इन परिस्थितियों में जब पूरा भारत या तो जय-जयकार के ‘रोजगार’ में लगा रहा या डर के ‘हाहाकार’ में घुटता रहा। ऐसे में राहुल गांधी ने काफी सोच-समझकर भारत जोड़ो यात्रा (7 सितंबर 2022 से 19 जनवरी 2023) का कार्यक्रम बनाया और सफलतापूर्वक पूरा किया। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा में राहुल गांधी ने लाखों लोगों से संवाद किया। इस यात्रा के अनुभव से सीखते हुए राहुल गांधी ने अपने सहयोगियों और समर्थकों की सलाह पर दूसरी यात्रा ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का कार्यक्रम बना लिया। मणिपुर से मुंबई  ‎(14 जनवरी से 20 मार्च 2024) ‎की यात्रा भी उतनी ही सफल रही। हालांकि, भारत जोड़ो न्याय यात्रा पूरी तरह से पद-यात्रा नहीं थी।

महत्वपूर्ण यह है कि  इस यात्रा के भी दौरान प्रभावी जन-संवाद जारी रहा। कहना न होगा कि इन यात्राओं में भारत और भारत के लोकतंत्र को प्यार करनेवाले कई गैर-सरकारी संगठनों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और महत्वपूर्ण लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन मिला। इन यात्राओं का पहला और बड़ा प्रभाव राहुल गांधी की छवि पर पड़ा। कहा जाता है कि राहुल गांधी की ‘पप्पू’ छवि बनाने के लिए प्रचार पर बहुत धन खर्च किया गया था। इन यात्राओं का दूसरा प्रभाव यह पड़ा कि राहुल गांधी का भारत के लोगों के बीच आत्मीयता का बहुत सकारात्मक प्रसार हुआ, जाहिर है कि उनकी स्वीकृति में भी वृद्धि हुई। ध्यान दिया जा सकता है कि जब जनता ही अखबार बनने लगे तो मीडिया का कुप्रचार बे-असर होने लग जाता है। 

न कोई स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण, न कोई आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)‎ का पालन, न निरपेक्ष मीडिया का साथ, न संवैधानिक संस्थाओं का स्वतंत्र रुख, न पर्याप्त धन बल, न समुचित साधन और सामने व्यय-साध्य चुनाव! विपक्षी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और सोरेन जेल के अंदर! हालांकि अरविंद केजरीवाल को चुनाव के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 21 दिन के लिए जमानत दी और 1 जून को चुनाव के पूर्ण होने के अगले दिन 2 जून को वापस जेल! विभिन्न इलाकों के जन-सूत्रों से मिली सूचनाओं की बात को तो‎ रहने ही दिया जाये! ऐसे वातावरण में आम चुनाव 2024 संपन्न हुआ।

आम चुनाव 2024 में चुनाव सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के बीच में लड़ा गया। इस चुनाव में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय प्रसंग है, बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ‎किसी गठबंधन में शामिल नहीं हुई। इस चुनाव में सबसे बड़ा उलटफेर उत्तर प्रदेश में हुआ। भारतीय जनता पार्टी को बड़ी शिकस्त मिली। समाजवादी पार्टी का सबसे अधिक सीटें जीतने से राजनीतिक वातावरण में बड़ा बदलाव हुआ है।

नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक में सात जून 2024 को कांग्रेस के न्यायपत्र पर तंज कसते हुए कहा कि लोग कांग्रेस के दफ्तर में जाकर न्यायपत्र में किये गये वायदे के अनुसार पैसे के लिए कतारबद्ध होकर जमा हैं, उन्हें भगाया जा रहा है। नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि यह अपमान माफी के काबिल नहीं है। मुख्य-धारा की मीडिया में प्रधानमंत्री के इस तंज को दिन भर चलाये रखा। नरेंद्र मोदी के 15 लाख के वायदा का ख्याल मीडिया को बिल्कुल ही नहीं रहा! यह विस्मृति स्वाभाविक है! शरारत है, ‎सत्ता की पक्षधरता है! क्या है? क्या पता!‎ विपक्ष पर तर्क-हीन आक्षेप और आरोप को पत्रकारिता के तर्कशील चयन की कसौटी पर परखे बिना रात-दिन ‎‘शीर्ष पुरुष’‎ के मुंह से निकले अनाप-शनाप को रपेटते रहने का मतलब क्या हो सकता है! इसमें निहित कुत्सित मनोरंजकता के अलावा कुछ नहीं होता है।

विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की ताकत बढ़ी है, तो‎ चुनौती भी बढ़ी है। न्याय योद्धा राहुल गांधी और उनकी टीम के लिए अब गहरी राजनीतिक चुनौती सामने है। क्या अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ सामाजिक संघर्ष के लिए तत्पर रहेंगे? क्या देश के विभिन्न भाग में चल रहे जन-संघर्ष से सामाजिक संघर्ष का कारगर तालमेल बनेगा या बना रहेगा! हां। सवाल यह है कि इस बार के चुनाव में जो गरीब लोग अपने विवेक और साहस के साथ भारत में लोकतंत्र और संविधान के पक्ष में लामबंद हो गये उनके पक्ष में कौन-कौन, किस तरह से, कितने दिन और दम से सक्रिय रहेगा।

असल में, हिंदुत्व की राजनीति करते हुए धार्मिक आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ‎की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग (Political Engineering)‎ के माध्यम से ‎‘स्थाई बहुमत’‎ ‎‎(Permanent Majority) का जुगाड़ होने पर भरोसा करते हुए नरेंद्र ‎मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने बहु-संख्यकवाद ‎‎(Majoritarianism) ‎की राजनीति का दुर्घटना-प्रवण ‎(Accident Prone)‎ रास्ता पकड़ लिया। नतीजतन, भारतीय जनता ‎पार्टी की राजनीति दुर्घटना की चपेट में पड़ने से बच नहीं पाई।

जिन इलाकों में ‎‎‘स्थाई बहुमत’‎ का अधिक भरोसा था उन इलाकों में जबरदस्त राजनीतिक-दुर्घटना हो गई। ‎इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश और खासकर अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में राम ‎लला की प्राण-प्रतिष्ठा के सघन प्रभाव-क्षेत्र के चुनाव परिणाम पर गौर किया जा ‎सकता है। रूपक में कहा जाये तो‎ कहां वह दौर जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने कंधे पर भारतीय जनता पार्टी को उठाये फिरता था, कहां यह दौर जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुद भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक गाड़ी का सुख-सवार बनकर लद गया। ‘सौ साल की तपस्या और साधना’ के बल पर खड़ा हुआ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा बड़ा संगठन ‘सुख-साधन’ के मोह में पड़ कर इस स्थिति में पहुंच गया! राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर इस दुर्घटना का क्या असर हुआ होगा कहना मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। कुछ दिन में जरूर असर दिखेगा।

भारतीय जनता पार्टी की चुनावी हार को आवश्यक बहुमत हासिल करने से चूक जाने की सामान्य चुनावी घटना के ‎रूप में पढ़ने से भूल हो सकती है। भारत के मतदाताओं की सामूहिक बुद्धि ‎‎(Collective Wisdom)‎ पर भरोसा किया जा सकता है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने से एक ‎राजनीतिक संभावना यह उभर सकती है कि पिछले दिनों जिस तरह से झूठ और भ्रम ‎के वातावरण में भावनात्मक हिंसा, शारीरिक हिंसा आदि नकारात्मक-पुंज का ‎राजनीतिक उन्माद का जहरीला धुआं सार्वजनिक जीवन-क्षेत्र (Public Sphere)‎ पर ‎छा गया था, उसके शांतिपूर्ण माहौल में धूम्र-रहित ‎(Desmoked)‎ करने के लिए ‎आवश्यक राजनीतिक सुविधा हो सकती है। स्थिति संभाल का समय (Gestation Period) मिल सकता है। बहुत होशियारी से इस समय का राजनीतिक और नागरिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

सीधे विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) ‎को जनादेश मिलने से यह काम अधिक मुश्किल होता। कितना मुश्किल होता? ‎अयोध्या क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति सोशल मीडिया पर किये जानेवाले ‘संस्कारी ‎व्यवहार’ से इसका अनुमान करना बहुत मुश्किल नहीं है। संक्षेप में राजनीतिक ‎वातावरण का धूम्र-रहित ‎(Desmoked)‎ बहुत आसानी से संभव नहीं हो सकता है। ‎यह कठिन काम है! इस कठिन काम को पूरा करने के लिए विपक्षी गठबंधन (इंडिया ‎अलायंस) को राजनीतिक समझ, लोकतांत्रिक साहस, बौद्धिक धीरज, सांस्कृतिक दक्षता, ‎संसदीय सूझ-बूझ के साथ करना होगा।

विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) को पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से अपनी शक्ति, कमजोरी, अवसर की उपलब्धता और जोखिम ‎(SWOT-Strengths, ‎Weaknesses, Opportunities, and Threats)‎ का विश्लेषण और आकलन करना ‎होगा। राहुल ‎गांधी और अखिलेश यादव की टीम भावना और विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के घटक दल के नेताओं के बीच में पारस्परिक सहमति, स्वीकृति, सहयोग, सहमेल, सम्मान और वैचारिक संबद्धता (Interlinked और Interlaced) ‎से यह कठिन कार्य संभव हो सकता है। वाम दलों को विचारधारा से अ-हितकर समझौता किये बिना हितकर वैचारिक संबद्धता पर विचार करना चाहिए।

याद किया जा सकता है, नोटबंदी (विमुद्रीकरण) का दौर, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ का दौर। वैश्विक महामारी कोविड-19 का दौर जब असहाय लोग पैदल अपने-अपने गांव की ओर बाल-बच्चों के साथ पैदल निकल पड़े थे। अपनी स्थिति से उत्पन्न अहं में कहीं कोई पैदल नहीं चल रहा है कहनेवाली सरकार की याद तो‎ है, न! ‘प्रधानमंत्री नागरिक सहायता और आपातकालीन ‎स्थिति निधि’ (PM_CARES_FUND)‎ में धन बटोरने में लगकर आपदा को अवसर बदलनेवाले‎ ‎‘शीर्ष पुरुष’‎ का दौर की याद है, न! लावारिस लाशों का दौर! जनता के दर्द का सत्ता के दंभ पर बे-असर रह जाने का दौर। कहां तक कहा जाये! ‘ताली-थाली’ बजवानेवालों का बारह बजा देंगे लोग ‎इसकी कोई चिंता ही नहीं थी! चिंता इसलिए नहीं थी क्योंकि लोकतंत्र की ताकत पर भरोसा नहीं था! बहुत भयानक होता है ‘व्यवस्थापक’ का ‘अ-व्यवस्थापक’ बन जाना।  ‎

इतिहास की विडंबना है कि अपने दल साल के ‎‘शासन काल’‎ में जो लोग देश को अ-स्थिर करने में लगे रहे अब वे खुद अ-स्थिरता से जूझ रहे हैं। दुखद यह है कि सरकार के ‘अ-स्थिर’ होने से देश का कष्ट कम होने के बजाये बढ़ता ही जायेगा। शपथग्रहण के पहले के संकेत अच्छे नहीं हैं। हमारे लोकतांत्रिक नेता बहुत ‘पराक्रमी’ हैं शपथ उनके व्यवहार पर संवैधानिक ग्रहण, या अंकुश नहीं बनता है। बल्कि जैसे चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण मे चांद, सूरज की हालत होती है, शपथग्रहण के बाद वही हालत ‘शपथ’ की हो जाती है।

पिछले दस साल से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली रहा है। क्या कहा जाये, विभिन्न दलों के सदस्यों के समर्थन से प्रधानमंत्री तो‎ बना जा सकता है, लेकिन नेता प्रतिपक्ष नहीं बना जा सकता है! यह तकनीकी गूढ़ता से अधिक संसदीय विवेक का मामला है। देश के आम मतदाताओं ने संविधान और लोकतंत्र को बचाने का खंडित-जनादेश दिया है, अब संसदीय कोलाहल के बीच देश बचाने की चुनौती सामने है।

जवाहरलाल नेहरू‎ की याद देश को पिछले दस साल में बार-बार आई तो इसलिए ‎‎नहीं आई कि उन्होंने लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर हासिल किया था। ‎‎जवाहरलाल नेहरू‎ को एक बार भी प्रधानमंत्री बनने का मौका नहीं मिला होता तो‎ ‎‎भी देश की स्मृति में उनकी जगह सुरक्षित रहती। देश और दुनिया जवाहरलाल नेहरू‎ को पद के कारण ‎‎नहीं, कद के कारण बार-बार याद किया करता है। नरेंद्र मोदी को ‎भी ‎इतिहास अवश्य याद रखेगा। कारण! खैर! ‎

एक बार बड़ी विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के नेता न्याय योद्धा राहुल गांधी बेहतर नेता प्रतिपक्ष साबित होंगे। लेकिन, अभी इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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