आम चुनाव 2024 का चार चरण पार हो चुका है। चार जून को नतीजा आ जायेगा। जीत-हार का फैसला हो चुका होगा। मीडिया में विभिन्न राजनीतिक दल के प्रवक्ता तू-तू-मैं-मैं के बीच जीत-हार के सायंकालीन कयासों में लगे हैं। बीच-बीच में लाइव प्रसारण में हांफते-फुंकारते संवादी पत्रकार प्रकट होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों को अपनी-अपनी राय रखते हुए देखा जा सकता है। चार दिन इन प्रवक्ताओं को कोई अनमने ढंग से भी सुन ले तो पांचवें दिन अवसर मिले तो मीडिया पर राजनीतिक विश्लेषण में अपनी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता का परिचय देने लायक हो सकते हैं। तू-तू-मैं-मैं की संस्कृति के बीच सत्ताधारी दल के प्रवक्ता की तरफ से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सनातन की रक्षा की चिंता के शब्द सामनेवाले को शब्दहीन कर देने के लिए काफी साबित होते हैं।
क्या है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद? संस्कृति की अवधारणा पर बात करें तो मानव की संस्कृति एक है। यदि आर्थिक राष्ट्रवाद की जाये तो इस में सारी आर्थिकी राष्ट्र के होने की बात माननी पड़ेगी। भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले बहुलात्मक देश में यह मानना होगा कि भारत में जितनी सांस्कृतिक धाराएं हैं, उतने ही राष्ट्र के होने को भी स्वीकार करना होगा। वस्तुतः भारत में सभी सांस्कृतिक धाराएं अपने-अपने राष्ट्र और अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं की बात करती रही हैं।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में कोई एक सांस्कृतिक धारा की समझ और स्वीकृति काम करे तो निश्चित रूप से यह भारत के राष्ट्रवाद के लिए विघटनकारी हो सकता है। आर्थिक राष्ट्रवाद में कमजोर लोगों पर वर्चस्वशाली लोगों की जोर-जबरदस्ती का खतरा था। भारत राष्ट्र के संघटकों के सामने आर्थिक राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में छिपे विघटनकारी तत्व की चिंता स्पष्ट थी। इसलिए उन्होंने संवैधानिक राष्ट्रवाद का रास्ता अख्तियार किया।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करनेवालों को गंभीरता से यह स्पष्ट करना चाहिए कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उनका आशय क्या है और यह भी कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वस्तुतः संवैधानिक राष्ट्रवाद से कहां-कहां और किन-किन अर्थों में भिन्न है। इन भिन्नताओं के कारण होनेवाले सामाजिक टकराव की आशंकाओं, यदि कोई हो तो, के शांतिपूर्ण और संविधान-सम्मत समाधान के लिए उन के पास क्या उपाय है। सिर्फ भावनात्मक अपील या भावनात्मक लपेटे पर जरूरत से अधिक विश्वास भारत राष्ट्र के लिए खतरनाक हो सकता है।
इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए कि भारत जैसे वैविध्य संपन्न राष्ट्र और लोकतंत्र की अखंडता का आधार व्यापक मानवता और सामाजिक भाईचारा है। भारत राष्ट्र और लोकतंत्र के लिए इसके अलावा अधिक गुणकारी कुछ हो नहीं सकता है। राष्ट्रवाद के किसी भी प्रारूप पर जरूरत से अधिक केंद्रित होने पर व्यापक मानवता खंडित होती है। समाज में किसी एक पूजा पद्धति या एक सांस्कृतिक धारा को माननेवालों की जन-शक्ति समेत शक्ति के किसी आधार पर राष्ट्र-बोध को केंद्रित करना राष्ट्र-विखंडन का कारण बन जाता है। युरोप में घटित लोकविग्रह (Balkanization) पर ध्यान देने से यह बात आसानी से समझी जा सकती है।
चुनावी फायदे या राज-सत्ता की लगाम हाथ में लेने के लिए ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राग अलापना, मत और हिम्मत देनेवाली लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति विश्वासघात की कोशिश के अलावा दूसरा क्या हो सकता है! भारत की राष्ट्र-शक्ति का सार और भारत के नायकत्व का आधार समन्वय की प्रवृत्ति में है। विग्रह-बुद्धि राष्ट्र-शक्ति को कमजोर और इसके नायकत्व को खंडित करती है। कुछ सालों-सदियों के जनादेश और शासन-शक्ति के बल पर भारत को सांस्कृतिक-बंधक बना लेने का भ्रम और घमंड अंततः खंडित होता आया है, भले ही भारत राष्ट्र को इसकी बड़ी-से-बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़ी हो।
ऐसा लगता है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करनेवालों की सांस्कृतिक समझ और संवैधानिक समझ में बहुत फर्क है। इसलिए संविधान के प्रति सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करनेवाले का रवैया संदेहास्पद हो जाता है। इसी तरह से जब सनातन धर्म की बात को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तहत आगे बढ़ाने की बात की जाती है, तो उसका आशय भी स्पष्टता की मांग करता है।
एक बात साफ-साफ समझ में आनी चाहिए कि भारत में जो भी राजनीतिक दल सत्ता की राजनीति में सक्रिय हैं उनकी कोई भी राजनीतिक गतिविधि संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही संचलित हो सकती है। संवैधानिक प्रावधानों के इतर बात करनेवालों को स्वतंत्र रूप से अपने विचार के प्रचार का हक है, लेकिन संवैधानिक प्रावधानों के तहत राज-सत्ता के लिए होने वाले चुनाव में इसे मुद्दा नहीं बनाया जा सकता है। समय आ गया है कि इन मामलों पर गंभीरता से सोचना चाहिए और इसके पहले कि कोई अशुभ हो जाये, इस प्रवृत्ति को रोकना चाहिए। यह सोचना और रोकना सिर्फ ‘हम भारत के लोगों’ के द्वारा ही संभव है। संविधान को ‘सकते’ में देखकर, बहुसंख्यक नागरिकों के मन में संवैधानिक मूल्यों और संविधान के प्रति सचेतनता बढ़ी है, यही भरोसे की बात है।
‘हम भारत के लोगों’ के पास जो राजनीतिक ताकत है वह मताधिकार में निहित है। आम नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग चुनाव में करता है। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक चुनाव पांच साल में एक बार होते हैं। राजनीतिक दलों के द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों में से किसी एक के पक्ष या किसी के भी पक्ष में नहीं यानी ‘नोटा’ (NOTA) का विकल्प रहता है। निर्दलीय उम्मीदवारों में से भी किसी एक को मतदाता चुन सकता है। ‘नोटा’ का प्रावधान ‘निष्फल विकल्प’ देता है, अर्थात उसे मिलनेवाले मत का कोई असर ‘चुनाव फल’ पर नहीं पड़ता है।
प्रसंगवश, चुनाव में ऐसे कई ‘निष्फल विकल्प’ होते हैं, नहीं क्या! स्वास्थ्य व्यवस्था हो, शिक्षा व्यवस्था हो, या कुछ अन्य मामला हो इसकी व्यय-साध्यता हितधारकों को इनसे दूर कर देती है। चुनाव की व्यय-साध्यता से आर्थिक रूप से कमजोर नागरिकों के लिए चुनाव में भागीदारी मतदाता होने तक सीमित रह जाती है। लोकतांत्रिक अधिकार भी इसी तरह से सीमित अर्थ में उपलब्ध होता है। सकारात्मक राजनीतिक दल सामान्य रूप से कमजोर नागरिकों के लोकतांत्रिक आयतन की सीमाओं को अधिकतम विस्तार की संभावना की ओर ले जाता है। लेकिन ऐसे राजनीतिक दल और राष्ट्र नायक बहुत मुश्किल से कमजोर नागरिकों को मिलते हैं। सकारात्मक राजनीतिक दल की आकांक्षा आम नागरिकों को तात्कालिक रूप से वास्तविक राहत और रियायत उपलब्ध करवाकर वोट बटोरने तक सीमित नहीं रहती है, बल्कि दीर्घकालिक रूप से नागरिकों को हर तरह से स्वयं-सक्षम बनाने में होती है।
ध्यान देने की बात है कि जानवरों की अपनी कोई विकसित भाषा नहीं होती है, जाहिर है मुहावरा भी नहीं होता है। लेकिन जानवरों को संदर्भित करते हुए मनुष्य ने कई मुहावरे बनाये हैं। इनमें से कुछ लोकप्रिय मुहावरे घोड़ों से जुड़े हैं। जैसे, गोली मारने के पहले घोड़े पागल या लंगड़ा घोषित कर देना, लंबी रेस का घोड़ा, जीतनेवाला घोड़ा आदि। घोड़े गये जमाने में युद्ध में जीत हासिल करने में बड़े सहायक रहे हैं। युद्ध में ही क्यों रईसों के खेल घुड़दौड़ में पैसे बनाने की भी बड़ी उम्मीद का आधार बनते रहे हैं। हर कोई जीतने वाले घोड़े पर दांव लगाना चाहता है।
मुद्दा यह है कि मनुष्य के मामले में जानवरों से संदर्भित मुहावरों के उपयोग के पीछे क्या मानसिकता काम करती है। माना कि मनुष्य भी मूलतः जानवर ही है। लेकिन क्या आज के दौर में भी मनुष्य के अंदर इतना जानवर बचा हुआ है! बिल्कुल शुरुआती दिन कहां गये, जब सरकार के मन में योग्य और जरूरी लोगों की राजनीतिक संबद्धता की भिन्नता के बावजूद आत्मीयता का अंश और सम्मान का कुछ-न-कुछ भाव बचा हुआ था। अनुरोध और अपील की गुंजाइश बची हुई थी। हां, तब हमारे नेतृत्व को ‘अवतारी आभा’ ने दबोच नहीं लिया था।
चुनाव के समय उम्मीदवारों के चयन में जीतने की क्षमता, को राजनीतिक दल एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाते हैं। जीतक्ष (जीतने योग्य, Winnable के लिए गढ़ा हुआ शब्द) व्यक्ति को राजनीतिक दल अपना उम्मीदवार बनाना चाहते हैं। इसे अ-स्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन मुद्दा यह है कि स्वाभाविक और अ-स्वाभाविक का निर्णय औचित्य या अन-औचित्य के विचार से नहीं, प्रयोग-बहुलता से तय होता है। भारत के लोकतंत्र में चुनाव परिणाम को देखने से यह समझने में देर नहीं लगती है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति ही अधिक जीतक्ष साबित होते हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के निष्कर्षों से भयावह परिदृश्य उभरता है।
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे बहुत गंभीर मामला मानते हुए फरवरी 2013 में अपना फैसला सुनाया था, कुछ महत्वपूर्ण दिशा निर्देश भी जारी किया था। राजनीति के अपराधीकरण या अपराधियों के राजनीतिकरण की भयावह स्थिति पर सभी राजनीतिक दलों में मिलीभगत दिखती है। लगभग सभी दल प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के बारे में बहुत सारी बातें करते हैं, लेकिन प्रतिपक्षी दल पर अपराधियों को राजनीतिक प्रश्रय देने पर कभी बात नहीं करते हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रतिपक्षी उम्मीदवार के आपराधिक चरित्र की कभी भूलकर चर्चा नहीं करते हैं। स्पष्ट कारणों से मीडिया में व्यस्त राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक भी कभी इस मुद्दा पर कोई टिकाऊ चर्चा नहीं कर पाते हैं।
अपराध और अपराधियों की बढ़ती हुई राजनीतिक अपराजेयता को लेकर हमारा नागरिक जमात और मतदाता समाज का रवैया भी आपराधिक सन्नाटे में रहता है। संविधान प्रदत्त अधिकार की बात करनेवाला ही कमजोर होने के कारण अपराधी मनवा लिया जाता है। ऐसे लोगों को जंगल या जेल की मजबूरी में डाल दिया जाता है। आपराधिक प्रवृत्ति को ‘कल्याणकारी राजनीति’ का प्रश्रय मिलते ही आपराधिक पृष्ठभूमिवाले राजनीतिक व्यक्तित्व की छवि ‘न्याय पुरुष’ की बन जाती है। न पुलिस, न अदालत ‘न्याय पुरुष’ के दरबार का फैसला सबके लिए अंतिम रूप से मान्य हो जाता है।
मनुष्य विचित्र प्राणी है। मनुष्य के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातों को याद कर लेना चाहिए। बुरे-से-बुरे लोगों के मन में कुछ-न-कुछ अच्छी प्रवृत्तियां होती है। अच्छे-से-अच्छे लोगों के मन में कुछ-न-कुछ प्रवृत्तियां होती है। सम्मान रखते हुए भी कहा जा सकता है कि ऐसा ‘देव-पुरुष’ मिलना कठिन है, जिसने कभी कोई अपराध न किया हो! ऐसा कोई ‘क्रूर’ मिलना भी उतना ही कठिन है, जिसने जीवन में कभी कोई परोपकारी काम किया ही न हो! कहा जाता है कि हर ‘साधु’ का एक अतीत होता है। हर ‘गुनहगार’ का एक भविष्य होता है। तो फिर यह समस्या गंभीर लगती है। फिर इसका निदान क्या है? निदान यह है कि हर ‘साधु’ पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए। हर ‘गुनहगार’ के अंततः साधु होने, अर्थात सुधरने का इंतजार किया जाना चाहिए। कहने का आशय यह है कि सर्वथा ‘अपराध मुक्त व्यक्ति और समाज’ के होने के भ्रम से बाहर निकलने की कोशिश के साथ ‘अपराध’ को प्रश्रय देने या ‘अपराध’ के शरणागत होने से बचने की कोशिश करनी चाहिए। दुखद है कि आज-कल यह कोशिश बहुत कमजोर हो गई है।
राजनीति मनुष्य का संगठित प्रयास होने के कारण महत्वपूर्ण होती है। राजनीति में अपराध को प्रश्रय देने का मतलब है, अपराध के संगठित होने का रास्ता तैयार करना। आज-कल राजनीति अपराध के संगठित होने का रास्ता तैयार करती है, कम-से-कम इस रास्ता के तैयार होने को रोकने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाती है। इसका संकट पूरे समाज पर पड़ता है। अपराध की राजनीतिक स्वीकृति अपराध की सामाजिक वैधता बनाती है। इस तरह से कहने कि कोशिश बिल्कुल गलत है कि अपराध की सामाजिक स्वीकृति, अपराध की राजनीतिक वैधता का आधार बनाती है।
जीत-हार मनुष्य की मौलिक भावना है। हर कोई जीतना चाहता है। किसी के जीतने के लिए किसी-न-किसी को हारना पड़ता है। जीत-हार के फैसला के लिए युद्ध होता रहा है। जीत के साथ उन्माद और हार के साथ हताशा स्वाभाविक रूप से जुड़ी होती है। हालांकि न कोई जीत अंतिम होती है, न कोई हार अंतिम होती है। लेकिन ‘शांति काल’ में भी युद्ध की प्रक्रिया जारी रहती है। युयुत्सा की तरह खेलना भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। जीत उन्माद में न बदले और हार हताशा में न बदले इसलिए सभ्यता से युद्ध का विस्थापित होना जरूरी था।
सभ्यता से युद्ध के विस्थापन के लिए खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन की युक्ति काम में लाई गई। खेल भावना जीत के उन्माद और हार की हताशा को कम करने में बहुत कारगर थी। खेल में कोई जीते कोई हारे, खेल भावना की जीत हर हाल में सुनिश्चित रहनी चाहिए। मुसीबत यह है कि आज-कल खेल में पैसा का मामला घुस जाने के कारण धीरे-धीरे ‘युद्ध की दुर्भावना’ को समाप्त करने में सहायक हो सकने के कारण महत्वपूर्ण खुद खेल में भी ‘युद्ध-भावना’ का प्रवेश होता जा रहा है। जीवनयापन का प्रसंग एक तरह से ‘नागरिक युद्ध’ में बदल रहा है, बल्कि बदल गया है। समझना बहुत मुश्किल तो नहीं है कि राजनीति में अपराध के प्रवेश कर संगठित हो जाने की प्रक्रिया कितनी गहरी है और इसका दुष्प्रभाव कितना घातक है।
सच-झूठ की बात अपनी जगह। यहां एक बात ध्यान में रखना जरूरी है कि बड़े-बड़े लोगों के बड़े-बड़े झूठ का मन पर पड़ने वाला असर भीतरी होता है। झूठ के भीतरी असर को जांचने, परखने के लिए विस्तार में जाकर अलग से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक प्रसंग, प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी पर बिल्कुल झूठा आरोप लगाया कि ‘अंबानी और अडानी’ पर राहुल गांधी चुनाव घोषित होने के बाद से चुप हैं।
नरेंद्र मोदी का मानना था कि राहुल गांधी की चुप्पी के पीछे ‘दाल में काला’ है। उन्होंने चुनौती दी कि इसके पीछे हुई डील को राहुल गांधी घोषित करें। सच तो यह है कि राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान यथा-प्रसंग ‘अंबानी और अडानी’ का नाम लेना कभी बंद नहीं किया। समझने के लिए नरेंद्र मोदी के आरोप को सही मान लिये जाने पर पलटकर यह पूछा जा सकता है कि इतने सालों तक नरेंद्र मोदी ने कभी ‘अंबानी और अडानी’ का नाम क्यों नहीं लिया! बल्कि ‘अंबानी और अडानी’ का नाम लेनेवाले और लेनेवाली की दुर्गत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी तो क्या इस के पीछे भी ‘अंबानी और अडानी’ के साथ नरेंद्र मोदी की कोई डील रही है!
रही राहुल गांधी को ‘अंबानी और अडानी’ के दिए हुए काला धन की बात! काला धन समाप्त करने के लिए इतनी बड़ी नोटबंदी (विमुद्रीकरण) की गई! क्या नोटबंदी फेल कर गई! क्या अभी भी काला धन जमा हो रहा है! वह भी देश के सबसे बड़े और प्रधानमंत्री के प्रिय उद्योगपतियों के यहां! ऐसा है तो सरकार क्या कर रही है? नरेंद्र मोदी तो प्रधानमंत्री हैं, दायित्व उनका है। लेकिन नरेंद्र मोदी से पूछे कौन? उनसे पूछने की हिम्मत इस वक्त इस देश में कोई नहीं कर सकता है! लेकिन उनके दल के राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मतदाता तो पूछ ही सकता है न!
मतदाता के सवाल का जवाब तो साधारण कार्यकर्ताओं को देना पड़ता है! ऐसे में स्वाभाविक है कि कार्यकर्ता मतदाताओं से मुंह चुराने लगता है। मतदान प्रतिशत की पतली हालत का एक कारण सत्ताधारी दल के मुंह चुराते कार्यकर्ताओं के गिरे हुए मनोबल को भी माना जा सकता है। इसलिए यह अनुमान करना सहज है कि मतदान का कम प्रतिशत भारतीय जनता पार्टी की हार का लक्षण है।
काला धन हो राजनीति के अपराधीकरण का मामला हो इसे रोकने में व्यवस्था निष्फल रही है, बल्कि कहना चाहिए कि इसे रोकने में व्यवस्था की कोई वास्तविक दिलचस्पी ही नहीं रही है। संविधान और लोकतंत्र के साये तले यह सब हो रहा है! समाज पर जोरावरों और मुंहजोरों का वर्चस्व जारी है! असल में व्यवस्था को संचलित करनेवाले लोगों के मन में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति रत्ती भर भी आस्था नहीं है।
उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के शुरू होते ही इस के लक्षण दिखने लगे थे। शुरू में तो पीवी नरसिंह राव की सरकार में वित्तीय मामलों के मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बने डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) की कारगर सलाह से स्थिति संभली रही। प्रसंगवश, 2013 में राहुल गांधी के भरे प्रेस कांफ्रेंस में विधेयक फाड़ने की घटना को याद किया जा सकता है।
यह महसूस किया जा सकता है कि लोकतंत्र के पोशाक के नीचे अ-लोकतांत्रिक प्रवृत्तियां कहीं अधिक सक्रिय है। जैसे औपचारिक अर्थ-व्यवस्था की सतह में चल रहा काला धन का कारोबार सतह से उठने की कोशिश करते आदमी को नीचे दबाता चलता है। पोशाकी लोकतंत्र से इससे अधिक की उम्मीद ही क्या की जा सकती है? लोकतंत्र का पोशाक फटता जा रहा है, आम नागरिकों के काम आ सकनेवाली औपचारिक अर्थ-व्यवस्था की हालत कमजोर होती गई है। इसका भी असर है कि चारो तरफ आपराधिक माहौल बन रहा है जन-अधिकार का मामला लगातार अनसुना बना हुआ है।
न कोई आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) का लिहाज, न चुनाव खर्चे में किसी सीमा की परवाह, न नैतिकता का कोई सवाल। न कहीं कोई राजनीतिक सिहरन है, न कोई नैतिक कंपन है। कहीं किसी किस्म की कोई सनसनाहट नहीं। चुनावी जीतक्षता (जीतने की क्षमता, Winnability) से ही सब कुछ तय होना है तो फिर क्या कहा जाये! राम के नाम पर रोजी-रोटी की व्यवस्था न करनेवाले, किस मुंह से राम के नाम पर वोट मांगते हैं! यह साधारण सवाल किस के मन में नहीं उठता होगा, भला! राम के नाम पर रोजी-रोटी नहीं तो फिर राम के नाम पर वोट क्यों!
‘विकसित भारत’ के मन में जाने किस ‘विकसित समाज’ का सपना है! सच कहें तो ‘विकसित भारत’ के मन में संविधान सम्मत राज का कोई आग्रह नहीं है। बल्कि ‘सनातन राज’ और सनातनी मिजाज का प्रभुत्व है। 2024 के आम चुनाव के तीन चरण बाकी हैं। राजनीतिक हांक पर खड़े भारत के लोकतंत्र के इस चुनाव में सचेत मतदाताओं के सकारात्मक हस्तक्षेप से निकलने वाले सकारात्मक नतीजों का इंतजार है। चुनाव में जीत-हार राजनीतिक दलों के इंतजार का विषय है, आम नागरिकों के इंतजार का विषय तो संविधान और लोकतंत्र है। इंतजार हर किसी को है, उम्मीद हर किसी को है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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