भारतीय गणतंत्र को जाति जनगणना के आईने में देखना हमारे समय की जरूरत

Estimated read time 1 min read

मोदी सरकार द्वारा जाति जनगणना कराने से, साफ़-साफ़ इंकार कर दिए जाने के बाद, अपने चुनावी घोषणापत्र में जाति जनगणना को दर्ज़ करते हुए समूचे विपक्ष ने, शायद ही सोचा होगा कि संविधान, सामाजिक न्याय, आरक्षण और जाति जनगणना जैसे सवाल, इतने बड़े प्रश्न बन जाएंगे, और चुनाव के केंद्र में आ जाएंगे। लंबे समय बाद ऐसा हो रहा है, जब संविधान को बचाने की बात, जोर-शोर से हो रही है। बीच चुनाव में सामाजिक न्याय, प्रमुख चुनावी प्रश्न में तब्दील हो गया है, और अपने आरक्षण की रक्षा की चिंता, भारतीय समाज के बड़ें हिस्से के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बनता जा रहा है।

हाल-फिलहाल के चुनावी इतिहास में शायद यह भी पहली बार हो रहा है,जब किसी लोकसभा चुनाव में, विभाजनकारी मुद्दे, बेहद कमजोर पड़ते जा रहे हैं। धार्मिक अस्मिता का विमर्श, सामाजिक अस्मिता की तरफ, शिफ्ट हो रहा है। और अब तो जितनी मजबूती से सामाजिक न्याय का प्रश्न भारतीय राजनीति के हाशिए से उठकर केंद्र में आ गया है, उससे ऐसा साफ-साफ लगने लगा है कि आने वाले समय में जो भी सरकार आए, जाति जनगणना की मांग को और ज्यादा समय तक दरकिनार नहीं किया जा सकता है।

जाति जनगणना का सवाल और कुछ बुनियादी बातें

जाति जनगणना से जुड़े ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक पहलुओं पर हम विस्तार से बातचीत करेंगे पर अभी कुछ तात्कालिक व बुनियादी बिंदुओं पर स्पष्टता ज़रूरी है, और वो ये कि जाति जनगणना भी हर हाल में जनगणना एक्ट 1948 के तहत ही की जानी चाहिए, इसके अलावे जो कुछ भी होगा,उसकी सांविधानिक मान्यता नही रह जाएगी, जैसा कि हम सबने देखा कि 2011 में केंद्र द्वारा अलग से किए गए सर्वे का क्या हश्र हुआ।

दूसरी बात ये की जाति जनगणना को राज्य सरकारों के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। हालांकि राज्य अपने लिए गणना करा सकती है, जैसे की बिहार में हुआ है, पर यह गणना केंद्रीय जनगणना एक्ट के तहत कराए गए जनगणना का विकल्प तो बिल्कुल ही नही हो सकता, और इस गणना की सांविधानिक मान्यता भी संकट में रहेगी और इसके चलते इस पूरे कवायद के अप्रासंगिक बने रहने का ख़तरा बराबर बना रहेगा और सरकारों पर निर्भर होगा कि वो इसे माने या न माने।

तीसरी बात ये कि जाति जनगणना आंदोलन केवल ओबीसी को गिनने की मांग नही कर रहा है, जैसा कि भ्रम फैलाया जा रहा है, बल्कि भारतीय समाज के हर हिस्से को गिना जाना जरूरी है ताकि पूरी तस्वीर सामने आए, इसके साथ ही एक बात और ये है कि केवल जातियों की गणना या उन्हें गिन लेना, बिल्कुल ही नाकाफ़ी है, (जैसे कि बिहार में हुई गणना से अभी बस गिनती ही सामने आई है) जब तक कि सभी जातियों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत की भी शिनाख्त नहीं की गई या ठीक-ठीक यह भी पता नहीं लगा सके कि हर तरह के संसाधनों का संकेंद्रण कहां-कहां है और वंचना कहां-कहां है, तब तक ऐसे किसी भी कवायद की सार्थकता संदिग्ध बनी रहेगी और इसे कोई प्रगतिशील कदम मान पाना मुश्किल होगा।

इतिहास के आईने में जाति जनगणना  

1878 से लेकर 1931 तक ब्रिटिश काल में लगातार जाति की जनगणना होती रही। यहा तक कि 1941 में जनगणना के साथ जाति की भी जनगणना कराई गई पर दूसरे महायुद्ध के चलते उसे जारी नहीं किया गया। पर आजाद भारत में पहली जनगणना से ही जाति जनगणना को ख़ारिज़ कर दिया गया। ये सोच कर कि हमें पीछे नहीं आगे जाना है। ये सोचा गया कि आधुनिक भारत बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना को अमल में लाने की रणनीतिक प्रक्रिया के दौरान जाति नामक परिघटना धीरे-धीरे पीछे होती चली जाएगी,पर ऐसा हुआ नही। बल्कि भिन्न-भिन्न रूपों में और बड़े पैमाने पर इसका विस्तार होता रहा।

असल में तथाकथित ऊंची जातियों ने जातिगत पूंजी का इस्तेमाल कर, आधुनिक कारखानों व विज्ञान और तकनीक के बड़े संस्थानों पर भी लगभग कब्ज़ा ही कर लिया जिसके चलते व अन्यान्य वजहों से, जाति आधारित असमानता ने और भी विशालता हासिल कर ली। अंततः सत्ता व्यवस्था को पहले काका कालेलकर आयोग और फिर मंडल आयोग का गठन करना पड़ा, विशाल ओबीसी समाज के वास्तविक हालात को सामने लाने के लिए।पर उन आयोगों के पास 50 साल पहले का आंकड़ा था, उन्हें कुछ तात्कालिक सर्वे और 1931 के आंकड़े से काम चलाना पड़ा और ओबीसी समाज के पक्ष में सिफारिश के साथ-साथ सरकार से यह भी कहना पड़ा कि जल्द से जल्द जाति जनगणना कराई जाए।

1990 में मंडल कमीशन लागू होने के बाद जाति जनगणना की मांग ने फिर से जोर पकड़ा और 1998 में देवगौड़ा सरकार की कैबिनेट ने पारित कर दिया कि 2001 की जनगणना के साथ ही जाति जनगणना करा लिया जाएगा,पर ठीक जनगणना से पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आ गई और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने जाति जनगणना को पीछे की ओर ले जाने वाला क़दम बताकर, इसे फिर से ख़ारिज़ कर दिया।

2010 में तो पूरी की पूरी संसद ने सर्वसम्मति से मनमोहन सरकार से कहा कि 2011 में हर हाल में आम जनगणना के साथ ही जाति जनगणना भी कराई जाए, पर एक बार फिर संसद द्वारा सर्वसम्मति से लिए गए फैसले को बदल दिया गया और जाति जनगणना को आम जनगणना से अलग कर उसे सामान्य सामाजिक-आर्थिक सर्वे में तब्दील कर दिया गया और इसकी सांविधानिक मान्यता ही खत्म कर दी गई, और इस सर्वे पर पांच हजार करोड़ रुपए अलग से खर्च किए गए और अप्रशिक्षित कर्मचारियों के जिम्मे छोड़कर इसमें लाखों गलतियां होने दी गई और 5 साल बाद कहा गया कि इस सर्वे में 9 लाख गलतियां हैं सो इसे प्रकाशित ही नहीं किया जा सकता ये किसी काम के नहीं है।

और फिर अंत में 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने विधिवत प्रेसवार्ता कर फिर से ऐलान किया कि भाजपा सरकार अगर आती है तो 2021 की जनगणना के साथ ही जाति जनगणना भी ज़रूर कराई जाएगी, पर चुनाव बाद फिर वही पुरानी कहानी दोहराई गई और तत्कालीन गृहराज्य मंत्री ने संसद में साफ-साफ कह दिया कि तकनीकी कारणों से इस बार भी जाति की जनगणना संभव नहीं है। ऐसे में अब ये सोचना-जानना बेहद जरूरी है कि पिछले 70 सालों से एक ही कहानी बार-बार क्यों दोहराई जाती रही।

जाति जनगणना के रास्ते में बाधा कहां है

बार-बार तमाम आयोगों, कोर्ट द्वारा सरकारों को दिए निर्देशों, कई-कई कैबिनेट और दो बार संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित प्रस्तावों के बावजूद, जाति जनगणना कराने की मांग को पिछले 70-75 सालों में हर बार-बार तत्कालीन सत्ता क्यों नकारती रही है? इस पर जब हम सोचते हैं तो पहली बात ये कि आम तौर पर हर जगह और खासकर भारत में भी वर्चस्ववादी समाज या शासक वर्ग/जातियां अपनी वास्तविक हैसियत अदृश्य रखना चाहती है या कब दृश्यमान होना है ये वो खुद तय करती हैं। ये अवसर शासित समाज के पास नही होता बल्कि शासित समाज के बारे में भी वही तय करते हैं।

ऐसे में भारतीय गणतंत्र को संचालित करने वाली तथाकथित ऊंची जातियों ने यह तय कर लिया है कि उन्हें परंपरागत और आधुनिक संसाधनों पर अपने नियंत्रण को,जो है तो जगज़ाहिर पर ठीक-ठीक जनगणना के माध्यम से सामने नही आने देना है,और चूंकि शासक जातियों को कारपोरेट पूंजी का भी विराट समर्थन है, जिसका इस्तेमाल कर, उसे लगता है कि वह सब कुछ न केवल मैनेज कर सकता है बल्कि बहस की दिशा को भी 180 डिग्री बदल सकता है।

दूसरी बात ये कि शासक जातियों का वर्चस्व केवल राज्य मशीनरी के बल पर क़ायम नही होता बल्कि यह अंततः शासित समाज पर अपने विचार के वर्चस्व के जरिए ही टिकाऊ ताकत हासिल करता है और आज़ादी के बाद से कुछ मोड़ और कुछ दौर को छोड़ दिया जाए तो यह वर्चस्व भिन्न-भिन्न शक्लों में बना रहा है,और बढ़ता रहा है। शासक जातियों के शासित जातियों पर बढ़ते वर्चस्व के चलते,आप देखेंगे इस कि आज़ समूचा सत्ताधारी विपक्ष भी जाति जनगणना जैसे बड़े व गंभीर प्रश्न पर भी कम बोलता है,इस मुद्दे को जनांदोलन का प्रश्न नही बनाना चाहता और अपने को केवल बौद्धिक समर्थन तक सीमित कर लेता है। यहीं से वह ताकत मिलती है कि पूर्व और आज़ की वर्तमान सरकार खुलेआम जाति जनगणना कराने से इंकार कर देती रही हैं और सुरक्षित भी महसूस करती है।

इसी वैचारिक वर्चस्व की ताकत पर खड़े होकर जाति आधारित गैरबराबरी के खिलाफ आंदोलित ताकतों को ही जातिवादी बता दिया जाता है,पर जाति विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर घोर जातिवादी राजनीति करते हुए भी सबका साथ, सबका विकास, जैसे दावे भी आराम से पेश कर दिए जाते है।

बात तो अब यहा तक आ गई है कि जो शक्तियां, समता बराबरी की दिशा में बढ़ने के लिए शुरुआती क़दम के रूप में जाति जनगणना की मांग करती है, तो उन्हीं के उपर देश को पीछे ले जाने वाली राजनीति करने का आरोप मढ़ दिया जाता है और समाज का एक हिस्सा सहज ही स्वीकार भी कर लेता है।

आज भारतीय गणतंत्र के लिए ऐसी स्थितियां क्यों आयी? इस पर एक मुकम्मल शोध की जरूरत है और इस पर अलग से विस्तार से बात करने की जरूरत है,पर अभी एक बात जरूर कही जा सकती है कि ब्रिटिश काल से ही जाति का खात्मा चाहने वाली, और धर्म की भूमिका को निजी जीवन तक सीमित करने की मंशा रखने वाले कई सकारात्मक विचारधारात्मक समूहों ने सीधा मुठभेड़ की बजाय रणनीतिक रूप से ज्यादातर बार,घुमावदार रास्ते अख़्तियार किए और दोनों ही परंपरागत जटिलताओं यानि धर्म और जाति की नकारात्मक ताकत को, कम करके आंका और अक्सर भारतीयों के शासन और अर्थव्यवस्था और राजनीति में आधुनिक व गुणात्मक परिवर्तन की परियोजना पर ही ज्यादा भरोसा करते रहे, और इस रणनीति से निकले परिणामों की, कभी समीक्षा भी नही की, जिसके चलते आज़ हम सब के लिए ये मसले ज्यादा बड़े संकट साबित हो रहे हैं।

भारत समाज की बुनियादी ज़रूरत है जाति जनगणना

आजाद भारत की पहली आम जनगणना के साथ ही जाति जनगणना कराने से इंकार कर हमने जाति जैसे गंभीर मसले को देखने से ही इंकार कर दिया पर समस्या को न देखने से समस्या खत्म नही हो गई, वो बढ़ती गई और आज़ तो जाति, भारतीय गणतंत्र के कुछ केंद्रीय तनावों में से एक बनी हुई है। जो भारतीय लोकतंत्र को लगातार कमजोर कर रही है भारतीय समाज की अंदरूनी एकता को चोट पहुंचा रही है ऐसे में इन तनावों को ठीक-ठीक शिनाख्त करने के लिए जाति जनगणना आज हमारे सामने किसी भी और समय के बनिस्पत ज्यादा जरूरी कार्यभार है।

हालांकि भारतीय गणतंत्र के शुरुआती दौर में ही डॉ आंबेडकर ने भी देश को संविधान समर्पित करते हुए चेतावनी दे दी थी कि भारत अभी आधुनिक, लोकतांत्रिक और समतामूलक मुल्क बनने की प्रक्रिया में है और सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी की खाई बड़ी है, इस सवाल को हल किए बगैर भारतीय गणतंत्र, उसकी एकता और लोकतंत्र हरदम ख़तरे में रहेगा, हमने इस पर भी ध्यान नही दिया, अगर इस गैरबराबरी को भी बार-बार देखते रहते और इसे बदलने की सोचते तो सामाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में एक भी क़दम बढ़ने के लिए,जाति जनगणना हमारे लिए अनिवार्य तत्व बना रहता।

और आज़ के समय में तो आंकड़ों का महत्व और भी बढ़ गया है दुनिया का हर देश अपनी हर तरह की विविधता,भिन्नता को जरूर दर्ज करता है।ऐसे में भारत भी, जो धर्म, भाषा, क्षेत्र जैसे हर तरह की विविधता को दर्ज करता है, केवल जाति की सच्चाई को सामने लाने से इंकार कैसे कर सकता है, इतनी बड़ी आबादी को अंधेरे में रख कर कोई भी देश, आगे कैसे बढ़ सकता है इस पर भी हमें सोचना है।

एक और बात ये कि जाति जनगणना के जरिए, जाति विशेषाधिकार से लैस तबके, तथाकथित ऊंची जातियों को तथ्यों के साथ गुमनामी से बाहर ले आना,और खासकर उनकी युवा पीढ़ी को,ढ़ेर सारे जाने-अनजाने भ्रमों से दूर करना भी, आज़ मुल्क के स्वास्थ्य के लिए एक बेहद जरूरी काम है,जो न केवल परम्परागत संस्थाओं-संसाधनों को,बल्कि आधुनिक संस्थानों-संसाधनो को भी नियंत्रित-संचालित करता है और अपनी मेरिट पूंजी को, जो उसकी जाति की पूंजी से नाभि-नालबद्ध है, को मानने से न केवल इंकार करता है, बल्कि वंचित समाज के बेहद ज़रूरी मांगों को, मेरिट बनाम जाति का सवाल खड़ा कर, घृणा के साथ ख़ारिज़ करता रहता है।

ऐसे में जाति जनगणना, मेरिट के पीछे छिपी जाति की ताकत को सामने ला सकती है, और सर्व समाज के बीच बिल्कुल बंद संवाद को खोल सकती है, जो कि आज़ के समय के लिए बेहद जरूरी काम है। अब तो इस चुनाव में जनता के बड़े हिस्से ने, जिस तरह से सामाजिक न्याय के मुद्दे को प्रमुख प्रश्न में तब्दील कर दिया है, उससे अब यह साफ हो गया है कि आने वाले समय में जाति जनगणना,जिसे अब ज्यादा देर तक रोका नही जा सकता,भारतीय समाज के कई तालों को खोलने वाली चाभी साबित होने जा रही है।

(मनीष शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments