अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006, जिसे आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के रूप में जाना जाता है, की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आधारित मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट आगामी 2 अप्रैल 2025 को करेगा।
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों की वनों से बड़े पैमाने पर बेदखली, मानवाधिकार उल्लंघन, कानूनी रुकावट और पर्यावरण विनाश के खतरे बढ़ रहे हैं, जो काफी चिंताजनक स्थिति है। वहीं दूसरी ओर वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) की संवैधानिकता पर सवाल खड़े करते हुए कई एनजीओ और वन विभाग की मिलीभगत ने एफआरए को समाप्त करने और उसे असंवैधानिक करार करने को लेकर चुनौती देने वाली याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में डाला है।

2006 में संसद द्वारा वन अधिकार अधिनियम देश भर में आदिवासी और अन्य वन आश्रित समुददायों द्वारा किये गए लम्बे संघर्षों से निकला कानून है। वन अधिकार अधिनियम, वन आश्रित समुदायों जिन्हें व्यवस्थित रूप से शोषित किया गया है, अपनी ही जमीन से बेदखल किया गया और औपनिवेशिक काल व स्वतंत्रता के बाद भी जंगल पर उनके अधिकार के निर्णय प्रक्रिया से वंचित रखा गया है, के लिए वन अधिकार अधिनियम एक महत्वपूर्ण विधायी व कानूनी मोड सहित इन समुदायों के लिए एक कानूनी जीवनरेखा है।
अधिनियम अपने प्रस्तावना में ही “वन में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करती है और उन्हें “वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के लिए अभिन्न अंग” के रूप में स्थापित करती है। यह अधिनियम वनवासियों के वन भूमि और संसाधनों पर पहले से मौजूद अधिकारों को मान्यता देता है, जिस पर वे पीढ़ियों से निवास करते आए हैं, उसका उपयोग व उसका प्रबंधन करते आए हैं। सभी प्रकार की वन भूमि पर व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों तरह के स्वामित्व को सुरक्षित करते हुए, वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) ग्राम सभाओं को वन प्रशासन और प्रबंधन पर निर्णय लेने और वन भूमि के हस्तांतरण पर जाँच और संतुलन सुनिश्चित करने का अधिकार देता है।

बता दें कि पूरी दुनिया में भारत, आदिवासियों और वन-आश्रित लोगों की सबसे बड़ी आबादी वाले देशों में से एक है और भारत में इन समुदायों का वनों के प्रबंधन और संरक्षण का एक लंबा प्रलेखित इतिहास है। इस प्रकार एफआरए में लाखों लोगों के जीवन को बदलने, साथ ही पारिस्थितिकी और आजीविका सुरक्षा दोनों को मजबूत करने की क्षमता है।
कहना ना होगा कि पर्यावरण संरक्षण कानूनों में हाल ही में किए गए ढील के कारण देश भर के जंगलों में संसाधन का दोहन और बड़ी-बड़ी निर्माण परियोजनाओं में वृद्धि हुई है। एफआरए को चुनौती देने वाली याचिकाएँ आज भी एक पुरानी औपनिवेशक धारणा से चिपकी हुई हैं जो समुदायों को “अतिक्रमणकारी” के रूप में पेश करके और बेदखली को वैध बनाकर संरक्षण के खिलाफ खड़ा करती हैं, जबकि एफआरए वास्तव में समुदायों, संसाधानों और जंगल के हितों को एक साथ लाता है और सुरक्षा प्रदान करता है। इस प्रकार एफआरए भारत के संरक्षण और जलवायु नीति परिदृश्य में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है।
आज, COP (Conference of Parties), IUCN (International Union for Conservation of Nature), CBD और वैश्विक जैव विविधता ढाँचे में वैश्विक नीतिगत चर्चा, जिसमें भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है, वनों और जैव विविधता के प्रबंधन, शासन और सुरक्षा के लिए आदिवासी और अन्य स्थानीय समुदायों के प्रथागत अधिकारों और ज्ञान को मजबूत करने का आह्वान करता है।
बता दें कि जब 2007 में एफआरए लागू हुआ, तो सेवानिवृत्त वन अधिकारियों और वन्यजीव एनजीओ द्वारा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में वन अधिकार क़ानून के खिलाफ कई याचिकाएँ दायर की गई। इनमें से एक मार्च 2008 में वाइल्डलाइफ फ़र्स्ट, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी, टाइगर रिसर्च एंड कंज़र्वेशन ट्रस्ट और अन्य द्वारा दायर की गई रिट याचिका थी, जिसमें अधिनियम की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, और संरक्षण उददेश्यों और संसद की विधायी क्षमता के विरुद्ध है।

जनवरी 2015 में, इन मामलों को वाइल्डलाइफ़ फ़र्स्ट और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य WP(C) संख्या 109/2008) के तहत एक साथ सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था। 2014 में, याचिकाकर्ताओं ने एक अंतरिम आवेदन दायर किया, जिसमें एफआरए कार्यान्वयन प्रक्रिया को त्रुटिपूर्ण और “अतिक्रमणकारियों” के लिए फायदेमंद घोषित किया गया, जिसमें एफआरए के तहत आवश्यक अधिकारों का निपटान किए बिना संरक्षित क्षेत्रों से वन-निवासी समुदायों के “स्वैच्छिक पुनर्वास” की मांग की गई। 2016 में, उन्होंने यह पूछने के लिए याचिका दायर की कि जिन परिवारों के एफआरए दावों को अब तक खारिज कर दिया गया है, उन्हें बेदखल करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया?
13/02/2019 को, सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया, जिसमें सभी राज्यों को खारिज किए गए दावेदारों को बेदखल करने के लिए उठाए गए कदमों के बारे में अदालत को सूचित करने का निर्देश दिया गया, एक ऐसा कदम जिससे 16 लाख से अधिक परिवार बेदखल हो जाते। समुदाय द्वारा किए गए विरोध और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के तत्काल हस्तक्षेप के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 28/02/2019 को बेदखली के अपने फैसले पर रोक लगा दी। कोर्ट ने राज्य-स्तरीय अधिकारियों को एफआरए दावों को खारिज करते समय अपनाई गई कानूनी प्रक्रियाओं को सार्वजनिक करने और भारतीय वन सर्वेक्षण को कथित अतिक्रमणों का उपग्रह / सेटेलाईट सर्वेक्षण करने के लिए कहा।
सितंबर 2019 तक दो प्रमुख याचिकाकर्ता, भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने मामले से खुद को अलग कर लिया, जबकि भारतीय वन सर्वेक्षण को अदालत द्वारा एक पक्ष के रूप में जोड़ा गया।

अब मामले की सुनवाई 2 अप्रैल 2025 को फिर से होनी है, लेकिन बेदखली के लिए किए जा रहे आह्वान और औचित्य ने अधिनियम की संवैधानिकता के मूल प्रश्न से ध्यान हटा दिया है। राज्य स्तरीय प्रक्रिया और अस्वीकृत एफआरए दावों की समीक्षा अभी भी अधूरी है और ज्यादातर राज्यों में यह उचित प्रक्रिया का उल्लंघन करती है।
जो कुछ प्रमुख चिंताओं और गलत बयानी को दर्शाती है। जिसमें –
■ एफआरए के कार्यान्वयन में चुनौतियों के कई गंभीर कारण हैं। जैसे – राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, वन प्रशासन जो इसे अपने नियंत्रण के लिए खतरा मानती है, और कॉर्पोरेट हित जो इसके पर्यावरण सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे हैं। एफआरए अधिकार प्रदान नहीं करता है, यह पहले से मौजूद अधिकारों को कानूनी मान्यता देता है और उन्हें रिकॉर्ड करता है। दावे खारिज कर दिए जाने पर, अधिनियम में किसी व्यक्ति के परिवार को उनके उपभोग की भूमि से बेदखल करने का कोई प्रावधान नहीं है।
साक्ष्य बताते हैं कि अक्सर जब दावे खारिज कर दिए जाते हैं, तो परिवारों को सूचित नहीं किया जाता है या उन्हें कारण नहीं बताया जाता है या उन्हें उनके दावों की सीमा से बहुत कम भूमि के लिए मंजूरी दी जाती है। इसके अलावा एफआरए के कई पहलुओं को जानबूझकर गलत तरीके से पेश किया जाता है। उदाहरण के लिए, हाल ही में दावों के निर्णयों का मूल्यांकन करने के लिए उपग्रह / सेटेलाईट इमेजरी का उपयोग करने के लिए कहा गया है, लेकिन सेटेलाईट इमेजरी को केवल दावों को प्रस्तुत करने के लिए सहायक साक्ष्य के रूप में अनुमति दी जाती है, उन्हें खारिज करने के लिए नहीं।
■ एफआरए के खिलाफ दायर याचिकाएँ संसदीय अधिकार के साथ-साथ ग्राम सभा के अधिकार को भी कमजोर करती हैं। ग्राम सभा एक वैधानिक निकाय है जिसे 74वें संशोधन के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया है, जो भारतीय लोकतंत्र और PESA (Panchayat Extension to Scheduled Areas Act) 1996 जैसे कानूनी ढाँचों का मूल आधार है। FRA में, ग्राम सभाएँ शासन के निर्णय लेने में लिंग और युवाओं को शामिल करने का समर्थन करती हैं और एक सहभागी व सामानता आधारित निर्णय प्रणाली को स्तापित करती हैं।
■ एफआरए के खिलाफ दायर याचिकाएँ ST और OTFD (अन्य पारंपरिक वनवासी) को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का भी प्रयास करती हैं। फिर भी, शुरुआत से ही, FRA के लिए आंदोलन ने कई चरवाहे और अर्ध-खानाबदोश, आदिम जनजाति, दलित और DNT (विमुक्त जनजाति) समुदायों जैसे विविध समुदायों जो पीढ़ियों से जंगलों पर निर्भर हैं और फिर भी व्यवस्थित रूप से भूमि और पहुँच के अधिकारों से वंचित हैं, सभी को शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया। कुछ समुदायों को राज्य की सीमाओं के पार विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, जो ST और OTFD दोनों को शामिल करने के महत्व को और उजागर करता है।
■ देश भर के साक्ष्यों से पता चला है कि संरक्षित क्षेत्रों से पुनर्वास परियोजनाएं, जिन्हें “स्वैच्छिक” कहा जाता है, अक्सर बलपूर्वक होती हैं, हिंसा, दबाव की धमकियों या पहले से मौजूद अधिकारों को नकारने और कमजोर करने के जरिए हासिल की जाती हैं इन मानवाधिकार चिंताओं को तब केंद्रित करने की जरूरत है जब बेदखली के आह्वान को “स्वैच्छिक पुनर्वास” के विचार के जरिए उचित ठहराया जाता है।
■ हाल के वर्षों में, MOTA ने संरक्षित क्षेत्रों से वनवासियों को फिर से बसाने की परियोजनाओं में FRA के उल्लंघन के संबंध में कई बयान जारी किए हैं। 2024 में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 2024 पीएम जुगा योजना शुरू की, जिसका उद्देश्य वन अधिकारों की मान्यता को संतृप्त और तेज करना, आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाना और विभिन्न सरकारी योजनाओं के माध्यम से स्थायी आजीविका प्रदान करना है। राज्य के ये दावे अधिनियम की संवैधानिकता और शक्ति को पुष्ट करते हैं।
■ एफआरए नीचे से ऊपर की ओर शासन और पारदर्शी तीन-स्तरीय दावा प्रक्रिया को बरकरार रखता है। यह आदिवासी और ओ.टी.एफ.डी. समुदायों के अधिकारों को बरकरार रखता है, और इसे वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने वाले अन्य कानूनी ढाँचों के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जैसे कि PESA 1996 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 – जो गलत अपराधीकरण, गलत तरीके से बेदखली और वन अधिकारों के आनंद में हस्तक्षेप को अपराध मानते हैं। चूंकि ये समुदाय औपनिवेशिक और जातिवादी पुलिसिंग रणनीति, झूठे आरोपों, “अतिक्रमणकारी” के अपमानजनक लेबल और प्रतिशोधात्मक हिंसा का निशाना बनते रहते हैं, इसलिए संवैधानिक नैतिकता के लेंस के माध्यम से एफआरए के विरोध या कमजोर पड़ने की जांच करना आवश्यक है।
आगामी सुनवाई में बड़े पैमाने पर बेदखली का खतरा और उचित कार्यान्वयन में बाधा डालने वाली व्यवस्थागत बाधाओं के साथ, एफआरए की संवैधानिकता को बनाए रखने में विफल होने से उन ऐतिहासिक अन्यायों को लंबा खींचने का खतरा है, जिन्हें संबोधित करने और जिनका सुधार करने के लिए वन अधिकार क़ानून को लागू किया गया था।
(विशद कुमार की रिपोर्ट)
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