हम भारत के लोगों को फिलहाल उम्मीद भी है, इंतजार का सब्र भी है

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आम चुनाव 2024 में सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी बहुमत का आंकड़ा, 272 नहीं हासिल कर पाई। जाहिर है कि वह सरकार बनाने के लिए पूरी तरह से एनडीए के घटक दलों पर निर्भर है। इस लिहाज से तेलगू देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू और जनता दल (यू) के नेता नीतीश कुमार के समर्थन का अपना महत्व है। अन्य सभी अपेक्षाओं की अनदेखी करते हुए चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार ने सधे हुए शब्दों में अपनी-अपनी ओर से नरेंद्र मोदी का समर्थन कर दिया है। नीतीश कुमार की ‘अति-विनम्रशीलता’ से तो लग रहा था कि नीतीश कुमार ने सिर्फ समर्थन ही नहीं किया है, बल्कि समर्पण भी कर दिया है! समर्थन और समर्पण के अंतर पर विशेषज्ञों की राय भिन्न-भिन्न हो सकती है।

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता बनने का समर्थन पाने के बाद नरेंद्र मोदी अपने पहले भाषण में विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) पर तंज कसने से अपने को रोक नहीं पाये! राहुल गांधी तो खैर, उन के निशाने पर होते ही हैं। अवसर कोई हो, यह उन की फितरत बन गई है। उन्होंने कहा, हम न कभी हारे थे, न हारे हैं, न हारेंगे! शैली वही, न कोई घुसा है, न कोई घुसेगा! जो भी हो जनता दल (यू) के स्वनाम धन्य नेता नीतीश कुमार की ‘अति-विनम्रशीलता’ को देखते हुए लगता है कि वे ठीक ही कह रहे होंगे। बिहारी शैली में कहा सकता है, हैये है! लेकिन बिहारियों को खासकर, समर्थकों के लिए नीतीश कुमार की यह ‘अति-विनम्रशीलता’ सहज नहीं लगी होगी। क्या पता लगी भी हो!‎ 

किसी घटक दल ने यह जरूरी नहीं समझा कि समर्थन करने के पहले नरेंद्र मोदी के भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल के नेता चुने जाने तक का इंतजार कर लिया जाये। घटक दलों में व्यक्ति ही दल होता है। उन्हें ठीक ही लगा होगा कि भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी की भी वही स्थिति है। लगता है, अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी आखिरकार नरेंद्र मोदी को ही भारतीय जनता पार्टी मान लिया है। इसलिए ये सारी बेमतलब की औपचारिकताएं जरूरी नहीं समझी गई होगी। इन औपचारिकताओं को मर्यादा का सम्मान देने की बात को अब फालतू ही नहीं, विरोधी भी करार दिया जा सकता है।    

जाहिर है कि नरेंद्र मोदी न कभी हारे थे, न हारे हैं, न हारेंगे! उन के जज्बा को नाजायज नहीं कहा जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की जीत-हार के बारे में कोई अन्य क्या कहे! राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही कुछ कहे तो‎, कहे। क्या पता!‎ जब औपचारिकताओं से मुक्त परिस्थिति बन गई है तो‎ यह मान लेने में कोई असहमति और असुविधा नहीं होनी चाहिए कि 2024 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच लड़ा गया।

इस चुनाव में नरेंद्र मोदी जीत गये, राहुल गांधी हार गये। सवाल‎ यह है कि  हार कर भी राहुल गांधी इतरा रहे हैं, नरेंद्र मोदी जीत कर भी घबरा रहे हैं! जिस तरह हारे हुए राहुल गांधी का इतराना नरेंद्र मोदी को दिखता है, वैसी ही जीते हुए नरेंद्र मोदी का घबराना राहुल गांधी को भी दिखता ही होगा। मीडिया को क्या दिखता है? मीडिया जाने! वैसे, महाभारत के मैदान में श्री कृष्ण से दिव्य-चक्षु प्राप्त होने के बाद पार्थ को वही दिखता था, जिसे श्री कृष्ण देखते थे। ऐसे में क्या अचरज कि नॉन-बायोलॉजिकल नरेंद्र मोदी से दिव्य-चक्षु प्राप्त मीडिया को भी वही दिखता हो, जो नरेंद्र मोदी को दिखता है।

चुनाव में नारों की शक्ल में दिव्य-चक्षु का जन-वितरण किया जाता है। लेकिन ध्यान रहे, जिस के पास जो होता है, वही उसे बांट सकता है। खैर, जिन्हें दिव्य-चक्षु नहीं प्राप्त हुआ वे समझने की कोशिश कर सकते हैं। नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी हारकर भी इतराते हुए क्यों लग रहे हैं। यह भी कि राहुल गांधी को जीतकर भी नरेंद्र मोदी घबराते हुए क्यों लग रहे होंगे। ‘जीत में हार’ और ‘हार में जीत’ का रहस्य क्या है!

पहले, ‎‘जीत में हार’‎ को समझने की कोशिश। बेशक नरेंद्र मोदी जीत गये हैं, लेकिन उन का राजनीतिक दंभ हार गया है। ‘एक अकेला, सब पर भारी’ का  ‎‘आत्म-निष्ठ बोध और छाती-ठोक सार्वजनिक उद्घोष’‎ हार गया है। संवैधानिक संस्थाओं को मनमाने तरीके से हांकने का दुष्ट-साहस हार गया है। ‘इतिहास के पवित्र वन’ में हांका लगाकर वर्तमान की उपेक्षा करते हुए भविष्य के भ्रम-प्रसार का हौसला हार गया है। अपराजेय होने की छवि हार गई है। सामान्यतः ‎‘संसदीय लोकतंत्र’‎ में संसद सरकार की ‎‘अभिभावक’‎ होती है। ‘मोदी सरकार’ नरेंद्र मोदी सरकार का ‎‘अभिभावक’‎ भी खुद ही बन गये थे। सरकार के प्रमुख होने के साथ-साथ ‘अभिभावक’ होने की उन की वह हैसियत हार गई है।

जाहिर है कि कदम-कदम पर सरकार के ‘प्रमुख’ को सरकार के ‎‘अभिभावक’‎ की रजामंदी और त्यौरियों का खयाल रखना होगा! संसद के संवैधानिक संगीत, समर्थकों की त्यौरियों और भ्रू-विलास पर सरकार के पद-संचालन के प्रति ला-परवाह बने रहने का इरादा हार गया। भले ही सरकार कहती रहे कि वह ‘देश की आकांक्षा’ पूरी करेगी, लेकिन ‘देश की आकांक्षा’ को अपनी आकांक्षा से विस्थापित करने की वैधता हार गई है।

सब से बड़ी बात कि तानाशाही की ओर बढ़ते कदम में पड़ी पैजनिया कब भारी बेड़ियों में बदल जाने की आशंकाएँ हमेशा बनी रहेगी। कहना न होगा कि जहां तक ‘आकांक्षा’ की बात है, अपनी से अधिक उन की चलेगी। अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में राम लला की प्रण-प्रतिष्ठा के बावजूद राम मंदिर के आस-पास के संसदीय क्षेत्र की जनता का विश्वास न जीत पाना ‘जीत में हार’ से घबराहट है। बनारस संसदीय क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीत के अंतराल का इतना कम हो जाना भी कटु कष्ट का कारण है।

दल के ‘अनुशासित ढांचा’ में अंतर-ध्वंस का लक्षण भी घबराहट का कारण हो सकता है। हर बात में ‘आत्म-निर्भर भारत’ का संकल्प दुहराने वाले नरेंद्र मोदी का ‘निर्भर-शील’ सरकार का ‘मुखिया’ बनने से ऐसा ‘भावुक और भावोद्रेकी दोहराव’ हार गया है। जीतनेवाले के लिए जीतकर भी घबराने के रहस्य की यह बहुत ऊपरी परत की बातें ‎हैं। ‎

‎आम मतदाताओं के तर्कशील चयन पर भरोसा करते हुए, ‘हार में जीत’ के रहस्य को समझने की कोशिश की जाये! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगना, सत्ता के दुरुपयोग का थोड़ा-सा मुश्किल हो जाना भी ‎‘हार में जीत’ ‎का एक कारण है। डर और नफरती बयान (Hate Speech) को सत्ता के दृश्य, अ-दृश्य या प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन का भरोसा समाप्त हो जाना भी ‎‘हार में जीत’‎ है।

भारत के लोकतंत्र को विपक्ष-विहीन करने का सपना सत्ता की नींद में कहीं खो जाना भी ‎‘हार में जीत’‎ है। ‎‘अंध भक्त’‎ की कारस्तानियों और कारगुजारियों को लोकतंत्र के नियम-भंग का डर सताये तो‎ यह ‎‘हार में जीत’‎ है। संवैधानिक संस्थाओं और सरकारी विभागों की ओर से नाहक परेशान नहीं किये जाने का भरोसा भी ‎‘हार में जीत’‎ है।

भविष्य में चुनाव में सत्ताधारी दल के दबाव में खुलेआम आने से केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) सायास बचेगा। संसद से सांसदों को मनमाने ढंग से बाहर नहीं धकेला जा सकेगा। महात्मा गांधी से चाहे जितनी भी प्रेरणा ली जाये, बार-बार गांधी मूर्ति के सामने जमा होने की नौबत नहीं आयेगी।

‘जमानत नियम और जेल अपवाद’ की न्यायिक भावना और मान्यता का अनुसरण करने में अदालतों, खासकर निचली अदालतों की हिचक कम होगी। सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए सामाजिक संघर्ष और जन-संघर्ष पर दबाव अपेक्षाकृत ढंग से कम होगा। जायज उपज मूल्य के लिए किसान आंदोलन पर बल-प्रयोग से बचना ‘जीते हुए’ की प्राथमिकता एवं प्रतिबद्धता बनेगी। रोजगार के सवाल, श्रम-अधिकार और वाजिब मेहनताना की मांग की अनसुनी करने से सरकार बचेगी।

पेपर-लीक के मामले में त्वरित और दृष्टांतमूलक कार्रवाई होगी। नागरिक जमात का कंठ-स्वर न्याय के पक्ष में बिना भय के बुलंद होता रहेगा। ‎‘निजता की रक्षा’ होगी। सच्चे और सही पत्रकारों को परेशान नहीं किया जायेगा। संविधान का सम्मान ‘पूजा’ के माध्यम से करने के बदले, पालन के माध्यम से करते हुए सरकार अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगी। कारण और भी हैं।फिलहाल इतने कारणों की चर्चा यहां काफी है, ‘हारे हुए’ के इतराने और ‘जीते हुए’ के घबराने को समझने के लिए।     

घटक दलों की ओर से कही जानेवाली बिना शर्त समर्थन की सार्वजनिक बात बाहरी दुनिया के लिए होती है, भीतरी दुनिया के लिए इस का अर्थ बहुत अंतरंग और भिन्न होता है। अभी तो‎ सरकार के बनने और मंत्री परिषद के गठन पर नजर रखने की जरूरत है। संसद संतुलित रहेगी तो संसद और सड़क दोनों जगह अन्याय से उत्पन्न शोर कम होगा। लोकतंत्र के संगीत में ‘मेरा, तुम्हारा, हमारा सुर’ मिला रहेगा। संविधान का राज और लोक-लाज का वास्तविक लिहाज लोकतंत्र की आत्मा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सब शुभ होगा। न उम्मीद की कोई हद होती है, न इंतजार का धैर्य कभी समाप्त होता है। ‎‘हम भारत के लोगों’ ‎को फिलहाल उम्मीद भी है, इंतजार का सब्र भी है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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