सेमीकंडक्टर के अड़ंगे से रुकेगा चीन?

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बीसवीं सदी में जैसे दुनिया तेल के सहारे चली, वैसे ही इक्कीसवीं सदी में यह सेमीकंडक्टर्स के सहारे चलेगी। यह किसी महापुरुष का बयान नहीं, एक आम समझ है जिसे ग्लोबल दखल वाला हर आर्थिक विश्लेषक दिन में एक बार जरूर दोहराता है। अभी तो सेमीकंडक्टर्स को लेकर जितनी कूटनीति हर तरफ देखने को मिल रही है, उतनी शायद कच्चे तेल को लेकर भी कभी देखने को नहीं मिली।

जुलाई के पहले हफ्ते में नीदरलैंड्स के दौरे पर गए अमेरिकी उप वाणिज्य मंत्री ने वहां की एएसएमएल होल्डिंग कंपनी को अपनी कोई भी चिपमेकिंग मशीन चीन को न बेचने को कहा। नीदरलैंड्स को इसके चलते काफी नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन उसके सामने कोई चारा नहीं है। ब्रिटेन की सबसे बड़ी चिप निर्माता कंपनी न्यूपोर्ट वेफर फैब को खरीदने के लिए नीदरलैंड्स की ही कंपनी नेक्सपीरिया की ओर से सारे काम पूरे हो चुके थे। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने पिछले साल बनाए गए एक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत अभी कुछ दिन पहले इस सौदे पर रोक लगा दी, क्योंकि खुद नेक्सपीरिया चीनी कंपनी विंगटेक के मालिकाने में जा चुकी है।

खुद अमेरिका अपनी चिप निर्माता कंपनियों को एडवांस्ड टेक्नॉलजी के क्षेत्र में चीन से व्यापार करने के लिए ट्रंप के समय में ही मना कर चुका था। लेकिन चीनी बाजार उनके लिए इतना जरूरी था कि कुछ कम सॉफिस्टिकेटेड क्षेत्रों में यह रोक हटानी पड़ी। क्वालकॉम और न्विडिया को चीनी कंपनी ह्वावे से अपना कारोबार रोकने पर इतना घाटा उठाना पड़ा कि बाइडन से पहले ट्रंप ने ही इधर से आंख फेर ली।

ताइवान का फच्चर

पश्चिमी देशों की कोशिश यह है कि चीन को सेमीकंडक्टर्स के क्षेत्र में रफ्तार न पकड़ने दिया जाए। ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (टीएसएमसी) अपने खास क्षेत्र में दुनिया की अव्वल कंपनी है। अमेरिकी सैन्य सलाहकारों ने ताइवान को सलाह दी है कि जब भी उसको लगे कि चीन उस पर हमला करने वाला है, सेमीकंडक्टर्स के मामले में उसे लड़ाई के नतीजों का इंतजार नहीं करना चाहिए। यह भी कि लड़ाई शुरू होने के दिन या उसके पहले ही ताइवान सरकार को खुद से ही टीएसएमसी को नष्ट कर देना चाहिए।

उनके मुताबिक, चीन के लिए ताइवान पर कब्जे का सबसे बड़ा आकर्षण यह कंपनी ही है। उसके न होने की खबर मिलते ही शायद वह अपना हमला रोक दे। इस सलाह के पीछे सलाहकारों की यह चिंता भी काम कर रही है कि टीएसएमसी अगर चीन के हाथ चली गई तो वह पूरी दुनिया में टेक्नॉलजी का भविष्य तय करने लगेगा। 65 नैनोमीटर वाले पिछड़े चिप्स का इस्तेमाल वह अभी ही कैंसर का पता लगाने वाली और फसलों की देखरेख करने वाली आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) बनाने में कर रहा है। इन चिप्स को अभी की 3 नैनोमीटर वाले सूक्ष्म सेमीकंडक्टर्स पर आधारित एडवांस्ड कंप्यूटर साइंस के लिए बेकार माना जाने लगा था।

सवाल यह है कि सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री अगर दुनिया के लिए इतनी महत्वपूर्ण है तो यह चीज हमें घर-घर में दिखाई देनी चाहिए। लेकिन हममें से कोई भी कभी बाजार से सेमीकंडक्टर खरीदने गया हो, याद नहीं पड़ता। यह इस चीज की एक अलग ही खासियत है। हम सारे लोग इसको खरीदते हैं, लेकिन किसी और चीज के हिस्से के रूप में। दरअसल अभी इलेक्ट्रॉनिक्स के दायरे में आने वाला एक भी ऐसा सामान खोजना मुश्किल है, जिसमें सेमीकंडक्टर्स का इस्तेमाल न हुआ हो।

यह चीज वहां इंटीग्रेटेड सर्किट या माइक्रोप्रॉसेसर के रूप में मौजूद होती है, और कंप्यूटरों को तो छोड़ ही दें, मोबाइल फोन, टीवी, यहां तक कि फ्रिज और एसी में भी यह दिमाग वाली भूमिका निभाती है। इमेज प्रॉसेसिंग से लेकर डेटा प्रॉसेसिंग और टेंप्रेचर कंट्रोल से लेकर सूचनाओं के साथ तरह-तरह के खिलवाड़ तक सारे काम सेमीकंडक्टर्स के ही सहारे होते हैं। यहां सेमीकंडक्टर का काम सिर्फ स्विच ऑन और स्विच ऑफ तक ही सीमित होता है, लेकिन इनका आकार छोटा होते-होते बाल के भी हजारवें-लाखवें हिस्से तक चला गया है।

जटिल सर्किटों में सजाकर इनसे ऐसे बहुतेरे काम कराए जाने लगे हैं, जो सौ साल पहले असंभव समझे जाते होंगे। अभी सेमीकंडक्टर्स को लेकर जारी इतनी सारी हलचलों की वजह यह है कि पहले चीन-अमेरिका ट्रेड वॉर ने, फिर कोविड की महामारी ने और अब यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद दुनिया के ध्रुवीकरण ने आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर साइंस के इस इंजन को ही चोक कर दिया है।

पश्चिम का खौफ

जितने सेमीकंडक्टर्स की जरूरत इन क्षेत्रों से जुड़ी कंपनियों को फिलहाल है, उतने उपलब्ध नहीं हैं, यह एक बात है। दूसरी बात यह है कि अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों को ऐसा लग रहा है कि पिछले पांच सौ वर्षों के इतिहास में अभी पहली बार वे तकनीकी में पूरब के एक मुल्क से एक पीढ़ी पीछे चले जाने के कगार पर खड़े हैं।

चीन के पास किसी भी क्षेत्र में तुरत-फुरत लगा देने लायक विशाल सरकारी पूंजी है। बहुत बड़ा स्किल्ड मैनपावर भी है। साइंस-टेक्नॉलजी के हर क्षेत्र में वह पश्चिम की बराबरी पर खड़ा है और सबसे बढ़कर उसके पास एक विशाल बाजार है, जो उसकी नई से नई कंपनी को भी पांच-दस साल में टेक-जायंट बना देता है। ऐसे में रणनीतिक समझ कहती है कि सिर्फ सेमीकंडक्टर्स के क्षेत्र में उसे धीमे चलने को मजबूर किया जा सके तो पश्चिम को संभलने का कुछ वक्त मिल सकता है।

यहां एक बड़ी समस्या यह है कि सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री का स्वरूप इस हद तक ग्लोबल और एकाधिकारी किस्म का है कि राजनेताओं के लिए इससे मनचाहे ढंग से खेल पाना बहुत मुश्किल हो रहा है। इस क्षेत्र में सक्रिय दुनिया की सारी कंपनियां अपने बाजार के लिए चीन पर इतनी बुरी तरह निर्भर हैं कि वहां सप्लाई रोकने पर उनकी बिक्री में 10 से 35 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। इतना नुकसान उनमें से कुछ को हमेशा के लिए डुबा सकता है।

सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री में चीन कितने समय में आत्मनिर्भर हो सकता है, इस सवाल को लेकर दो जर्मन थिंक टैंक्स ने जून 2021 में अपनी साझा रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसके लिए उन्होंने सेमीकंडक्टर उत्पादन के काम को आठ चरणों में बांट दिया था। उनका निष्कर्ष था कि बाकी दुनिया को टक्कर देने की तो बात ही छोड़ दें, इन आठ में से पांच श्रेणियों का काम अपनी जरूरतें पूरी कर पाने भर को भी वह 2031 के कुछ समय बाद तक नहीं कर पाएगा।

सप्लाई चेन की गुत्थी

ब्यौरों में जाने का प्रयास करें तो सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री भौतिक स्तर पर सिलिकॉन वेफर तैयार करने से शुरू होती है, जिसमें चीन का दबदबा है। इससे जुड़े दिमागी काम की शुरुआत अलग-अलग जगहों से होती है। अमेरिकी कंपनी इंटेल और ब्रिटिश कंपनी एआरएम माइक्रो प्रॉसेसर के क्षेत्र में छाई हुई हैं जबकि दक्षिण कोरिया की सैमसंग ने डाइनेमिक रैंडम एक्सेस मेमोरी (ड्रैम) में अपना प्रभुत्व बना रखा है। चिप डिजाइनिंग में अमेरिकी कंपनियों क्वालकॉम, ब्रॉडकॉम और न्विडिया का बोलबाला है। इनका काम सेमीकंडक्टर के सर्किट्स का खाका खींचना है।

ताइवान की चर्चित कंपनी टीएसएमसी का काम यहां से आगे शुरू होता है। वह सिलिकॉन वेफर्स पर इन डिजाइनों की छपाई करके उन्हें वास्तविक चिप की शक्ल देती है। इसके लिए वह जिन लिथोग्राफी मशीनों का इस्तेमाल करती है, वे लगभग सारी की सारी नीदरलैंड्स की कंपनी एएसएमएल होल्डिंग बनाती है। और इस लिथोग्राफी में आर्गन फ्लोराइड (आर्फी) नाम का जो केमिकल काम में लाया जाता है, उसे सारा का सारा जापानी बनाते हैं।

चिप बनकर तैयार हो जाए, उसके बाद भी इसको सीधे इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता। इससे पहले इसे असेंबली, पैकेजिंग और टेस्टिंग वाले एक और चरण (ओसैट) से गुजरना होता है। इस काम में चीनी छाए हुए हैं। ध्यान रहे, इन सभी तरह के कामों में एक भी ऐसा नहीं है, जो बाकी सबसे परे हटकर अकेले अपने दम पर जिंदा रह सके। एक जगह से आने वाले ऑर्डर से ही दूसरी जगह का प्रॉडक्शन तय होता है। 1995 में ग्लोबलाइजेशन न शुरू हुआ होता तो इतने बड़े पैमाने पर इतने परफेक्शन से काम करने वाली सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री खड़ी ही न हो पाती।

अभी अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों की और उनके पीछे-पीछे दक्षिण कोरिया और जापान की भी कोशिश है कि कुछ-कुछ जगहों पर सप्लाई लाइन में छेड़छाड़ करके चीन को इस जटिल ढांचे से किनारे फेंक दिया जाए। लेकिन चीन की जवाबी छेड़छाड़ से कैसी परेशानियां आ सकती हैं, इसको लेकर दुविधा बनी हुई है। आंकड़े बता रहे हैं कि कोरोना के तुरंत बाद सेमीकंडक्टर्स के बाजार में चीन का हिस्सा तेजी से बढ़ा है। जोसफ बाइडन की कोशिशें इस पर ब्रेक लगा पाती हैं या नहीं, दो-तीन साल में पता लगेगा।

(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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