दुनिया भर की सरकारें क्यों बढ़ा रही हैं रक्षा-बजट?

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आज जहां एक ओर दुनिया में आर्थिक सामाजिक संकट तेज़ी बढ़ रहा है और विश्व की सारी सम्पदा कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित होती जा रही है, जिसके फलस्वरूप भुखमरी और कुपोषण भी बढ़ रहा है। शीतयुद्ध के बाद पहली बार दुनिया एक बार फिर दो खेमों में बंट गई है। एक गुट की अगुवाई अमेरिका कर रहा है, जिसके साथ नाटो के देश हैं। दूसरे गुट में रूस, चीन और ईरान हैं। दोनों गुटों में हो रही साम्राज्यवादी होड़ में आज दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी हो गई है। इसकी अभिव्यक्ति हम रूस-यूक्रेन युद्ध या फिर इज़राइल-हमास के बीच हो रहे संघर्ष में देख सकते हैं। इसके अलावा दुनिया में अन्य अनेक क्षेत्रीय युद्ध भी चल रहे हैं, जिसे ये दोनों साम्राज्यवादी गुट शह दे रहे हैं।

इस साम्राज्यवादी होड़ के कारण दुनिया भर के छोटे-बड़े देश मानवीय संसाधनों को हथियारों की होड़ में ख़र्च कर रहे हैं। पिछले दस वर्षों में दुनिया के पांच सबसे बड़े पूंजीवादी देशों ने सैन्य उपकरणों पर ख़र्च तेज़ी से बढ़ाया है। वर्ष 2022 में पूरी दुनिया का सैन्य ख़र्च 2240 अरब डॉलर था, जो वर्ष 2023 में बढ़कर 2443 अरब डॉलर हो गया है। इसमें 70 प्रतिशत हिस्सा केवल पांच देशों- अमेरिका, रूस, जर्मनी, जापान और चीन का है। वहीं दूसरी ओर इन देशों की जनता पर टैक्सों का बोझ बढ़ाया जा रहा है और उनकी ज़िंदगी मुश्किल से मुश्किल होती जा रही है।

अमेरिका ने साल 2023 में फ़ौजी उपकरणों पर दुनिया में सबसे अधिक 916 अरब डॉलर ख़र्च किया। यह दुनिया के कुल फ़ौजी बजट का 37 फ़ीसदी है। साल 2014 में यह ख़र्च 229 अरब डॉलर था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 1947 से लेकर अब तक दुनिया में करीब 247 युद्ध हो चुके हैं, जिनमें से 202 में साम्राज्यवादी अमेरिका सीधे तौर पर ज़ि‍म्मेदार हैं, हालांकि दुनिया-भर में साम्राज्यवादी अमेरिका ख़ुद को लोकतंत्र और मानवाधिकारों के पैरोकार के रूप में प्रचारित करता है, लेकिन उसका असल बदसूरत साम्राज्यवादी चेहरा आज फ़ि‍लिस्तीन पर थोपे गए इज़रायल के अन्यायपूर्ण युद्ध से भी बेनक़ाब हो रहा है, जहां यह दमनकारी इज़रायल को फ़ि‍लिस्तीनियों के क़त्लेआम के लिए लगातार आधुनिक हथियार और अन्य सैन्य उपकरण दे रहा है।

अभी पिछले महीने ही उसने इज़रायल को 13 अरब डॉलर की और सैन्य-वित्तीय सहायता देने को मंजूरी दी है, लेकिन दूसरी ओर अमेरिका में मज़दूरों और मेहनतकश जनता के विरोध-प्रदर्शन लगातार तीखे होते जा रहे हैं। अमेरिका में पिछले 45 साल की महंगाई रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है, जिसके कारण मज़दूरों की असल मज़दूरी ठहराव की शिकार है। ऊपर से अमेरिकी सरकार द्वारा बढ़ाई गई ब्याज़ दरों का असर घर-परिवारों पर भी दिख रहा है, जिनके लिए अभी लिए गए क़र्ज़ की किश्तें चुकाना भी मुश्किल हो रहा है। यही वजह है कि आज अमेरिका में हुकूमत के ख़ि‍लाफ़ भारी रोष है और लगातार हड़तालों का ग्राफ़ ऊंचा उठता जा रहा है।

दुनिया-भर में सैन्य ख़र्च के मामले में अगले स्थान पर रूस और चीन आते हैं। 2023 में रूस ने लगभग 109 अरब डॉलर का फ़ौजी ख़र्च किया था। रूस-यूक्रेन युद्ध को चलते हुए दो साल हो चुके हैं। 2014 में क्रीमिया पर हमले के बाद से लेकर अब तक रूस के सैन्य ख़र्चे में 57% की वृद्धि हुई है। चीन तेज़ी से दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त के रूप में ख़ुद को स्थापित करने के लिए आगे बढ़ रहा है। चीन का सैन्य ख़र्च भी पिछले समय में तेज़ी से बढ़ा है। साल 2023 में इसका ख़र्च 296 अरब डॉलर रहा।

सैन्य साजो-सामान पर ख़र्च करने के मामले में चीन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश है। एक तरफ़ तो चीन की अर्थव्यवस्था में क़र्ज़ का बुलबुला लगातार फूल रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था में सुस्ती की ख़बरें आ रही हैं, तो दूसरी तरफ़ सैन्य ख़र्चों को देखते हुए कहा जा सकता है कि पूंजीवादी चीन का ढांचा और ज़्यादा जनविरोधी होता जा रहा है। चीन के इस ख़र्च में कटौती की संभावना तो दूर बल्कि इसके बढ़ने की संभावना है, क्योंकि पिछले समय से साम्राज्यवादी अमेरिका के साथ इसका ताइवान के मुद्दे पर और दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर झगड़ा चल रहा है। यानी यह इलाक़ा भी अंतर-साम्राज्यवादी कलह के लिए उपजाऊ बनता रहा है।

यूरोपीय शक्ति जर्मनी ने सैन्य बजट को बढ़ाकर 56 अरब डॉलर कर दिया है। दूसरी ओर जर्मनी की अर्थव्यवस्था अधिकृत तौर पर आर्थिक मंदी का शिकार हो चुकी है और पिछले दो वर्षों में ही जर्मनी में लाखों मज़दूरों के प्रदर्शन संगठित हुए हैं, जिन्होंने बढ़ती महंगाई, सरकारी सुविधाओं में की जा रही कटौती, हुकूमत के बढ़ते फ़ौजी ख़र्चों के ख़ि‍लाफ़ बड़े प्रदर्शन संगठित किए हैं। इस समय जर्मनी अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी गुट का एक प्रमुख सदस्य है। आगे यू.के. ने अपना फ़ौजी ख़र्च 42 अरब डॉलर तय किया है, जबकि ख़बरें आ रही हैं कि साल के अंत तक यह आर्थिक मंदी का शिकार हो जाएगा। पिछले दो वर्षों में ही यू.के. में रेलवे मज़दूरों की, कारख़ाना मज़दूरों की, नर्सों और अन्य चिकित्सा कर्मचारियों की बड़ी-बड़ी हड़तालें हुई हैं, जिन्होंने इस साम्राज्यवादी देश में शोषण एवं बदहाली को और ज़्यादा सामने ला दिया है।

इन साम्राज्यवादी देशों के अलावा दुनिया के अन्य कई देश जैसे भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, बोलीविया, फ़ि‍नलैंड, जॉर्जिया, सऊदी अरब, कुवैत, ईरान आदि ने भी पिछले समय में अपने सैन्य बजट को बढ़ाया है। सैन्य बजट में यह वृद्धि इस बात का संकेत है कि दुनिया और ज़्यादा बड़ी अंतर-साम्राज्यवादी कलह की ओर बढ़ रही है। बड़े साम्राज्यवादी देश अपना सैन्य ख़र्च तो बढ़ा ही रहे हैं, बल्कि पहले या दूसरे गुट से जुड़े छोटे पूंजीवादी देश भी क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए सैन्य ख़र्चों में वृद्धि कर रहे हैं।

वास्तव में जिस तरह से दुनिया में साम्राज्यवादी होड़ बढ़ रही है। बड़े और छोटे युद्ध हो रहे हैं, उतनी तेज़ी से बड़े विकसित देश एशिया,अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के ग़रीब देशों को हथियारों की होड़ में डालकर बेशुमार मुनाफ़ा कमा रहे हैं। जो पैसा इन ग़रीब देशों की जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य जनकल्याण के कामों में ख़र्च होना चाहिए, वह हथियारों की होड़ में ख़र्च हो रहा है। भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में हम इस बात को और अच्छी तरह समझ सकते हैं। आज दुनिया भर में इस मुनाफ़ाख़ोर साम्राज्यवादी युद्धों के ख़िलाफ़ व्यापक जनमत बनाने की ज़रूरत है, तभी दुनिया साम्राज्यवादी युद्धों और हथियारों के अंतहीन होड़ से बच सकती है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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