बढ़ते राजनीतिक और आर्थिक संकटों के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों में क्यों संगठित हो रहे हैं मज़दूर

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पश्चिमी देशों के बारे में यह धारणा प्रचलित है कि वहां के लोग ऊंचे वेतन, सरकारी सुविधाओं और स्थायी नौकरियों के कारण बहुत ख़ुश रहते हैं; उनकी बुनियादी ज़रूरतें सरकारें मुफ़्त में पूरा करती हैं; कि वहां की सरकारें लोगों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। इस धारणा में केवल आंशिक सच्चाई ही है और उन देशों में भी आबादी लोगों और जोंकों के बीच बंटी हुई है। इसकी पुष्टि पूरी दुनिया में, विशेषकर पश्चिमी देशों में बढ़ते आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष और मज़दूरों की बढ़ती सांगठनिक ताक़त से होती है। 2020 के बाद, लोगों के संघर्षों ने ठंडे दौर में गरमाहट पैदा की है–कई देशों में लाखों लोगों ने अपनी मांगों के लिए विरोध प्रदर्शन, हड़तालें, घेराबंदी आदि किए हैं। इन विकसित पूंजीवादी देशों में पुरानी यूनियनों की सक्रियता बढ़ने के साथ-साथ मज़दूर तेज़ी से नई यूनियनें भी बना रहे हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था मज़दूरों के शोषण पर आधारित व्यवस्था है, जहां एक ओर ग़रीबी और भुखमरी बढ़ती है, तो दूसरी ओर मुट्ठी-भर अमीरों की संपत्ति का ढेर बढ़ रहा है। मेहनतकश जनता इस शोषण के ख़िलाफ़ हमेशा संघर्ष करती रहती है और पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों में मज़दूरों के नेतृत्व में होने वाले ऐसे संघर्ष आने वाले अच्छे दिनों के सूचक हैं।

आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक मज़दूर को अपनी यूनियन बनाने का अधिकार है, जिसके ज़रिए से वे वेतन में वृद्धि, काम के घंटों में कमी, छुट्टियों के विस्तार, पेंशन, कैंटीन आदि की अपनी जायज़ माँगें उठाते हैं। लेकिन पूँजीपतियों को संघर्षशील यूनियनों से हमेशा ख़तरा रहता है, क्योंकि पूंजीपति को मज़दूरों की मांगों को पूरा करने के लिए अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा देना पड़ता है।

मज़दूरों के वेतन और स्वास्थ्य लाभ और अन्य लागतों में बढ़ोतरी से बचने के लिए पूंजीपति अक्सर यूनियन-विरोधी व्यवहार अपनाते हैं, जिसमें पूंजीवादी सरकारें भी सीधे या छिपे रूप से शामिल होती हैं। ये भ्रष्ट सरकारें मज़दूरों को संगठित होने से रोकने के लिए अक्सर मज़दूर विरोधी क़ानून बनाती हैं, जिससे मज़दूरों की यूनियनों को रोका जा सके। यू.के. सरकार द्वारा जारी ‘स्ट्राइक लॉ’ (हड़ताल क़ानून) के अनुसार हड़ताल के दौरान भी मज़दूरों को आठ क्षेत्रों में सीमित समय के लिए काम करना होगा। ग़ौरतलब है कि इस नादिरशाही क़ानून के बावजूद ब्रिटेन के मज़दूर निडर होकर अपने संघर्षों में डटे हुए हैं।

अतीत में जनता ने पूंजीवादी आर्थिक लूट और राजनीतिक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए दुनिया-भर में हक़-सच की आवाज़ उठाई है। यूरोप में जनवरी 2024 से कई देशों में मज़दूर यूनियनें लगातार हड़ताल कर रही हैं। ब्रिटेन में कई यूनियनों ने तो अकेले मई 2024 में 116 बार हड़तालें की हैं। जर्मन रेलवे कर्मचारियों ने जनवरी में तीन दिवसीय लंबी हड़ताल की, जिसका बड़े पैमाने पर अन्य विभागों के लोगों ने समर्थन किया। जिसके बाद रेलवे कर्मचारियों ने कई विरोध प्रदर्शन और हड़तालें कीं।

जर्मन एयरलाइन लुफ्थांसा, जो साल की हर तिमाही में करोड़ों यूरो का मुनाफ़ा कमाती है, के कर्मचारियों ने वेतन बढ़ाने के लिए मार्च से मई तक कई हड़तालें की हैं। फ़िनलैंड के ट्रांसपोर्ट वर्कर्स यूनियन ए.के.टी. ने सरकार के नए श्रम क़ानूनों के ख़िलाफ़ लगभग चार सप्ताह की हड़ताल की, जिसमें देश की सभी बंदरगाह बंद रहीं और कई औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में भी हड़तालें की गईं। संयुक्त राज्य अमेरिका (इसके बाद ‘अमेरिका’) में 2023 में बेहतर वेतन और काम की बेहतर हालतों के लिए लाखों लोग सड़कों पर उतर आए और कुल 451 हड़तालों में भाग लिया।

यूनाइटेड ऑटो वर्कर्स यूनियन ने तीन ऑटो कंपनियों–जनरल मोटर्स, फ़ोर्ड और स्टेलानिस के ख़िलाफ़ छह हफ़्ते की लंबी हड़ताल की। 2023 में स्वास्थ्य कर्मचारियों की अमेरिकी इतिहास में सबसे बड़ी हड़ताल भी हुई जिसमें 75,000 कर्मचारी शामिल हुए और वेतन में 21% की वृद्धि हुई। मिस्र की सबसे बड़ी कपड़ा फ़ैक्टरी के मज़दूरों ने मिल को एक हफ़्ते के लिए बंद कर दिया, जिससे देश-भर के सरकारी कर्मचारियों/मज़दूरों की जीत हुई और न्यूनतम वेतन 6,000 मिस्र पाउंड करवाया गया।

दुनिया-भर में 1 मई को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस की जुझारू विरासत को जीवित रखते हुए यूरोप की मज़दूर यूनियनों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया। इटली में मज़दूरों की आम हड़ताल हुई, जिसमें सरकारी या निजी क्षेत्र में कोई भी कर्मचारी काम पर नहीं गया। यूनान में भी सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों ने आम हड़ताल की। यू.के. में प्रकाशित एक नई रिपोर्ट के अनुसार, ट्रेड यूनियनों के सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ रही है, साथ ही महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार, यू.के. के सभी ट्रेड यूनियन सदस्यों में से 57% महिलाएँ हैं। यह आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की दिशा में बढ़ता क़दम है।

ऐसा नहीं है कि पश्चिम में मज़दूर केवल अपनी आर्थिक मांगों के लिए संगठित हो रहे हैं,बल्कि वे ज्वलंत राजनीतिक मुद्दों पर भी अपनी एकजुटता दिखा रहे हैं। दो साल पहले यूक्रेन युद्ध में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की भूमिका और विभिन्न पूंजीवादी सरकारों द्वारा यूक्रेन को भेजी जा रही सैन्य सहायता के ख़िलाफ़ बड़े विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए थे। उसी तरह आज पूरी दुनिया में फ़ि‍लिस्तीनी जनता की आज़ादी के पक्ष में और दमनकारी इज़रायली शासकों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठ रही है। लगभग सभी प्रमुख पश्चिमी देशों में फ़ि‍लिस्तीन के समर्थन में हज़ारों विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए हैं। मज़दूरों के साथ-साथ फ़ि‍लिस्तीन के पक्ष में छात्रों ने भी अग्रणी भूमिका निभाई है, विशेषकर अमेरिका के छात्रों ने।

फ़िलिस्तीनी लोगों की हत्या के ख़िलाफ़ लगभग 150 अमेरिकी विश्वविद्यालयों में बड़े विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जिन पर पुलिस अंधाधुंध लाठीचार्ज, आँसू गैस और रबर की गोलियां चला रही हैं। न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में, छात्रों ने कक्षाओं के बाहर परिसर में सबसे बड़ा डेरा लगाया हुआ है। अमेरिका के 50 में से 45 राज्यों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। ये विरोध प्रदर्शन 1968 के वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन की तरह ही गति पकड़ रहे हैं। यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में छात्रों-नौजवानों ने बड़े विरोध प्रदर्शन भी किए हैं।

फ़ि‍लिस्तीनियों की हत्या में इज़रायली शासकों और उनकी अपनी सरकारों की मिलीभगत के ख़िलाफ़ पश्चिम में मज़दूरों-छात्रों में बढ़ता ग़ुस्सा उनकी उन्नत राजनीतिक चेतना का उदाहरण है। हज़ारों मील दूर बमबारी और हत्या का दर्द वे लोग भी महसूस कर रहे हैं, जिनका फ़ि‍लिस्तीन से कोई सीधा संबंध नहीं है।

सच्चाई यह है कि पश्चिमी देशों के मज़दूरों-मेहनतकशों में साम्राज्यवादी ताक़तों की पूंजीवादी लूट, उत्पीड़न और युद्ध नीतियों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ रही है। आज मेहनतकश जनता पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पैदा की गई बेरोज़गारी, महंगाई, काम की बुरी हालतों आदि बुराइयों से पीड़ित है, लेकिन चुप बैठने और पीड़ा सहने के बजाय, वे इसके ख़िलाफ़ खड़े हो रहे हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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