दक्षिण विश्व के देशों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अमेरिका को होने वाले ब्रेन ड्रेन को रोक देना चाहिए और अपनी शिक्षा व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करना चाहिए कि अपने सबसे प्रतिभाशाली लोगों को अपने यहां ही रखा जा सके।
अमेरिकी परिसरों में अंतर्राष्ट्रीय छात्र इस समय डरे हुए हैं उनका अपहरण हो सकता है वे इस समय जहां रह रहे हैं, वहां से सैकड़ों किमी दूर ले जाकर डिटेंशन कैंप में छोड़े जा सकते हैं।वहां अनिश्चित समय तक रखे जा सकते हैं।और फिर स्वदेश भेजे जा सकते हैं। उनके साथ यह सब है इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी ज्ञात नियम का उल्लंघन किया है, बल्कि मात्र प्रशासन की सनक पर।
सटीक संख्या तो मुश्किल है लेकिन लगभग 1500छात्रों का छात्र वीजा वापस हो गया है और वे अपने देश भेजे जाने का इंतजार कर रहे हैं । प्रशासन ने अधिकांश मामलों में दावा किया है कि निशाना बने छात्र“anti-semitism” में लिप्त थे , लेकिन anti-semitism की परिभाषा पूरी तरह प्रशासन की सनक पर निर्भर है ।
इस आरोप के अंदर आने वाली गतिविधियों को प्रशासन द्वारा भी ठीक से चिन्हित नहीं किया गया है। Tufts University में एक छात्र को इसलिए निशाना बनाया गया कि वह छात्रों की विश्वविद्यालय में एक ऐसे लेख का सह लेखक था जिसमें सरकार से मांग की गई थी कि वह इजराइल में निवेश न करे।
एक छात्र को इसलिए निशाना बनाया गया की हमास के पूर्व सलाहकार से जुड़ा था जिसने एक दशक पहले हमास छोड़ दिया था , उन्होंने ऑक्टूबर 2023की घटना की आलोचना भी की थी।
यहां तक कि सोशल मीडिया पोस्ट भी किसी छात्र को खतरे में डाल सकती है। प्रशासनिक अधिकारी इस समय इसी काम में व्यस्त हैं कि कैसे सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर किसी छात्र का अपहरण किया जाय और उसे स्वदेश रवाना किया जाय। डरवश छात्र अपनी पोस्ट हटाने में लगे हैं कि कहीं वे संकट में न फंस जाएं।
कोई ठोस ऐसा चिह्न नहीं है कि “anti-semitism” को कार्रवाई योग्य अपराध मान लिया जाएगा। “anti-semitism” में अपराध यह बताया जा रहा है कि यह अमेरिकी विदेश नीति के खिलाफ है जिसका एक वैश्विक लक्ष्य anti-semitism के खिलाफ लड़ना है। तो किसी विदेशी छात्र को सोशल मीडिया पोस्ट पर अमेरिकी विदेश नीति के खिलाफ आलोचनात्मक लिखने या बोलने के लिए भगाया जा सकता है। थोड़ी देर के लिए हम भूल जाय कि इजरायल का पूरा अस्तित्व ही उदाहरण है एक जबरदस्ती बसाए गए उपनिवेश का जिसने लाखों फिलिस्तीनियों को विस्थापित कर उनकी धरती पर कब्जा कर लिया। आइए इस तथ्य को भी भूल जाय इस समय गाजा में एक निर्मम जनसंहार पर हमला है जो मानवता की अंतरात्मा पर हमला है। और भूल जाय कि तमाम यहूदी छात्र जनसंहार विरोध के कार्यक्रमों में शामिल है।हम यह भी भूल जाय कि बहुमत इसराइल की जनता इस नरसंहार के खिलाफ है। हम यह भी भूल जाय कि एंटी-zionism और anti-semitism एक नहीं हैं। मामला यह है कि अमेरिकी प्रशासन किसी को कोई बहाना बनाकर स्वदेश भेज सकता है
Anti-semitism इस समय का बहाना है। लेकिन साफ है कि प्रशासन किसी भी विचारशील और संवेदनशील छात्र को जो उसके विचारों और दृष्टिकोण से असहमत है, उसके ऊपर प्रशासन का यह हमला है।
यदि यह हमला विदेशी छात्रों और अध्यापकों पर, यहां तक कि ग्रीन कार्ड धारकों पर भी हो सकता है, तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि यह अमेरिकी नागरिकों पर नहीं होगा, संविधान के पहले संशोधन के बावजूद जो अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी करता है।
यह एक विवादास्पद मुद्दा है कि ग्रीन कार्ड धारी विदेशियों को प्रथम संशोधन के अंतर्गत सुरक्षा प्राप्त है कि नहीं। अगर वे इससे बाहर कर दिए जाते हैं तो अमेरिकी नागरिक भी इस आधार पर बहिष्कृत हो सकते हैं कि वे अमेरिका विरोधी तत्वों की मदद कर रहे थे। इस स्थिति की तुलना ,60s और 70s से नहीं की जा सकती जब अमेरिका के कैंपसों में और दूसरे देशों के कैंपसों में वियतनाम युद्ध के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चल रहे थे।
इन सभी आंदोलनों में अमेरिका में या अन्य जगहों पर छात्रों ने पूरी सक्रियता से भाग लिया था जैसा कि अन्य देशों में ले रहे थे।
विदेशी छात्रों के लिए किसी खास खतरे का सवाल ही नहीं था,इसलिए डराकर चुप करने का भी कोई मामला नहीं था।
तब यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि तब से क्या बदला है कि यह नए तरह का व्यवहार हो रहा है।मूल अंतर यह है कि संदर्भ बदल गया है। साम्राज्यवाद तब भी उतना ही क्रूर था जितना आज है। पर यह साम्राज्यवाद ऐसा था जिसने वियतनाम में होती हार के बावजूद, दूसरे विश्वयुद्ध के समय हुए अपने नुकसान पर काबू पा लिया था, इसने अपने को कंसोलिडेट कर लिया था।
यह सच है कि इसे सोवियत यूनियन से भारी चुनौती मिल रही थी, लेकिन इसने यह आत्मविश्वास हासिल कर लिया था कि इस चुनौती से वह निपट लेगा।यही स्थिति है जिसका मार्क्सवादी दार्शनिक हरबर्ट मार्कोस, तथा अर्थशास्त्रियों पाल बरान और पॉल स्वीजी ने
जिसका वर्णन किया है जहां इसने अपने अंतर्विरोधों को सफलतापूर्वक संभाल लिया है।सवाल यह नहीं है कि ऐसे वर्णन में वे पूरी तरह सही थे, बात यह है कि परिस्थिति ऐसी थी कि उसका यही वर्णन हो सकता था।
इसके विपरीत अमेरिकी साम्राज्यवाद और इसीलिए पूरा साम्राज्यवाद आज संकट में फंसा है। यह संकट का लक्षण है कि वह हर तरह के विरोध से अपने को बचाने के लिए बेचैन है। सर्वोपरि परिसरों से उठने वाले बौद्धिक विरोध से। ट्रंप प्रशासन के अपने शब्दों में परिसर वाम उदारवादी तत्वों से भरे हुए हैं जिनसे छुटकारा पाना है। आज परिसरों में विरोध के खिलाफ खुली आक्रामकता व्यवस्था द्वारा सामना किए जा रहे संकट का परिणाम है।
बहुत से लोग इस बात से असहमत होंगे। इसकी जगह वे तर्क देंगे कि आज के दौर और 60s तथा 70s की शुरुआत का अंतर यह है कि आज ट्रंप जैसा एक नव फासीवादी व्यक्ति राष्ट्रपति है। लेकिन ट्रंप जैसा व्यक्ति राष्ट्रपति चुना गया है यही संकट की अभिव्यक्ति है।
पुराने फासीवाद की तरह ही नव फासीवाद तभी सामने आया है जब शासक वर्ग अपने वर्चस्व के लिए किसी चुनौती को टालने के लिए संकट के दौर में नव फासीवादी तत्वों के साथ गठजोड़ बनाता है।
संक्षेप में अमेरिका में ट्रंप का उभार भारत में मोदी या अर्जेंटीना में जेवियर मिले की तरह या इसी तरह अन्य जगहों पर ऐसे ही दूसरों की तरह मूल कारण नहीं है। इसकी ही व्याख्या करना पड़ेगा और इसकी सबसे नजदीकी व्याख्या उस अप्रत्याशित संकट में ही मौजूद है जिसका सामना इस समय पूंजीवाद कर रहा है।
संकट की यह विशेषता है कि इसी व्यवस्था के अंदर इसे हल करने के सारे प्रयास संकट को और गंभीर बना देते हैं। यह ट्रंप के कदमों से स्पष्ट है, इतना स्पष्ट है कि संकट से इंकार करने वाले भी इन्हीं कदमों और उनके बुरे प्रभाव को संकट को गहराने वाला बताते हैं और ट्रंप को क्रेजी मानते हैं। लेकिन इस क्रेजी आदमी के कदमों के पीछे न हल हो पाने वाला संकट है।
जैसे कि मैनुफैक्चरिंग को फिर से अमेरिका में वापस लाने के लिए विदेश से होने वाले आयात पर सीमा शुल्क बढ़ाने की कवायद से चारों ओर अफरा तफरी फैल गयी और स्वयं अमेरिका में मंदी जैसी स्थिति पैदा होने से टैरिफ पर रोक लगाना पड़ा।इसी तरह डॉलर को चढ़ाने के लिए “de-dollarisation” को प्रोत्साहित करने वाले देशों के खिलाफ बदले की धमकी से दूरगामी दृष्टि से डॉलर का अवमूल्यन ही हुआ क्योंकि स्थानीय ट्रेड ब्लॉक बन गए जो मद्धम के बतौर डॉलर की भूमिका को खत्म कर देते है।
ठीक इसी तरह ट्रंप का यह प्रयास कि विदेशी छात्र जो अमेरिका पढ़ने आए हैं चुपचाप अपना क्लास अटेंड करें और केवल उनके प्रशासन द्वारा स्वीकृत चीजों की पढ़ाई करें ,मानवता जिनसे जूझ रही है ऐसे किसी सवाल पर अपनी स्वतंत्र राय न व्यक्त करें, यह फरमान अमेरिकी शिक्षा पर बैक फायर करेगा। विदेशी छात्र जो करीब ग्यारह लाख इस समय अमेरिका में हैं, वे अमेरिका आना बंद कर देंगे। उनमें से अधिकांश फीस देने वाले छात्र हैं जिनका भुगतान अमेरिकी उच्च शिक्षा व्यवस्था को बहुत हद तक व्यावहारिक रूप से संभव बनाती है।सरकारी फंडिंग गिरते जाने से ( यह गिरावट उससे अलग है जो ट्रंप प्रशासन ने कोलंबिया और हावर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में एंटी सेमेटिजम के नाम पर दंड स्वरूप कटौती की है ) और विदेशी छात्रों के न आने से होने वाली राजस्व क्षति बहुत से विश्वविद्यालयों का वहां चलना असंभव बना देगी।
यह उस बौद्धिक नुकसान से अलग है जो विदेशी छात्रों के न आने से पैदा होने वाले सहमतिवाद को अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जन्म देगी।
यह वैश्विक दक्षिण के देशों के लिए एक अवसर है अपने देश से अमेरिका की ओर होने वाले ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए और अपने सर्वोत्तम दिमाग को अपने देश में रखने के लिए, अपनी शिक्षा व्यवस्था को उन्नत बनाकर। मोदी सरकार से कोई इसकी अपेक्षा नहीं कर सकता लेकिन मोदी सरकार के किसी लोकतांत्रिक विकल्प को इसका अवश्य प्रयास करना चाहिए। जब जर्मनी में नाजियों का कब्जा हुआ, तब रविन्द्र नाथ टैगोर को उम्मीद थी कि खास तौर से यहूदी बुद्धिजीवियों का वहां से पलायन होगा, उसमें से कुछ को उन्होंने विश्व भारती की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया था। हमारे देश की लोकतांत्रिक ताकतों को भी आज पूंजीवादी संकट जो अवसर प्रदान कर रहा है उसके प्रति ऐसी ही सजगता दिखाना चाहिए।
(प्रभात पटनायक का यह लेख Newsclick, से साभार लिया गया है।अनुवाद लाल बहादुर सिंह ने किया है।)