सीपीआई (एम) की 24वीं कांग्रेस : वाम आंदोलन की आगे की राह क्या है?

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तमिलनाडु के मदुरै में 2 अप्रैल से 6 अप्रैल तक चलने वाली सीपीआई(एम) की 24वीं पार्टी कांग्रेस एक ऐसे समय में हो रही है, जब दुनिया अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ की धमकियों से अपने-अपने देश के लिए जवाब ढूँढने में व्यस्त है, जबकि भारत की सरकार देश और अपने ऊपर आए सभी संकटों के लिए मुस्लिम धर्म और समुदाय को निशाना बनाकर अपने हर संकट को चकमा देती जा रही है।

भारतीय कॉर्पोरेट ट्रंप की घोषणाओं को लेकर बेचैन हैं और सरकार से अपने लिए कवर फायर की माँग पर अड़ा हुआ है, जबकि आम जनता और मीडिया में प्रमुख नैरेटिव वक्फ बिल पर मोदी सरकार की बढ़त बना हुआ है। ऐसे संकटकाल में देश की सबसे प्रमुख वाम दल की पार्टी कांग्रेस को भले ही राष्ट्रीय मीडिया में कम स्थान मिले, आम अवाम की दृष्टि से इस सम्मेलन के निष्कर्ष बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

2 अप्रैल के उद्घाटन समारोह में सीपीआई(एम) के पार्टी डेलिगेट्स के अलावा, वाम दलों की ओर से सीपीआई महासचिव डी. राजा, सीपीआई(एमएल) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, आरएसपी के महासचिव मनोज भट्टाचार्य और फॉरवर्ड ब्लॉक के पार्टी अध्यक्ष उपस्थित थे, और उन्होंने उद्घाटन भाषण दिए।

सम्मेलन में दिवंगत पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य सहित तमाम दिवंगत नेताओं और कार्यकर्ताओं को याद किया गया। मध्य-पूर्व में इजराइल-अमेरिका के संयुक्त हमलों से तबाह होते फिलिस्तीनियों और गाजा में जारी नरसंहार को प्रमुखता से उठाया गया, और फिलिस्तीन की संघर्षरत अवाम के साथ एकजुटता का इजहार किया गया।

उद्घाटन भाषण की शुरुआत करते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व महासचिव प्रकाश करात की ओर से घोषणा की गई कि सिर्फ वाम शक्तियाँ ही हैं, जिनके पास हिंदुत्व-कॉर्पोरेट नव-फासीवाद से लड़ने के साधन और दृढ़ विश्वास है।

सीपीआई(एमएल) लिबरेशन और आरएसपी के नेताओं ने भारत के गृहमंत्री अमित शाह के उस बयान की ओर इशारा किया, जिसमें उनका कहना था कि भारत में नक्सलवाद को 2026 तक नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा। छत्तीसगढ़ में जल, जंगल, जमीन की अंधाधुंध कटाई और कॉर्पोरेट के लिए खुली लूट की राह आसान बनाने के लिए बड़े पैमाने पर नरसंहार जारी है, जिसे उन्होंने गाजा में इजरायली सेना द्वारा चलाए जा रहे कत्लेआम से जोड़ा।

पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव में अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्थिति का वर्णन किया गया है। इसमें चीन की आर्थिक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में छलांग का विश्लेषण उल्लेखनीय लगता है, लेकिन पड़ोसी देशों नेपाल में वामपंथी सरकार के प्रदर्शन और श्रीलंका में हुए हालिया बड़े उलटफेर व वामपंथी शासन के बारे में कोई सूचना देखने को नहीं मिलती।

सरसरी तौर पर देखने पर लगता है कि सारी कवायद स्थितियों के विश्लेषण पर केंद्रित है। कमोबेश भारत में सभी वाम दलों का पिछले कुछ दशकों से यही पैटर्न बना हुआ है। हर पार्टी कांग्रेस में पहले की तुलना में किसानों, मजदूरों, उत्पीड़ित जनता पर बढ़ते शोषण का जिक्र रहता है, जिससे निपटने के लिए क्रांतिकारी आह्वान में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, लेकिन ठोस कार्यवाही पहले से भी कम देखने को मिलती है।

उद्घाटन समारोह में सभी वक्ताओं को सम्मानित किया गया और उन्हें शाल के साथ मार्क्स की एक प्रतिमा भेंट की गई। लेकिन विडंबना यह है कि वाम दलों का पूरा फोकस मार्क्सवादी नजरिए को विकसित करने के बजाय संसदीय सफलता को हासिल करने के गुणा-भाग में खत्म हो रहा है। पार्टी की सफलता-असफलता का बैरोमीटर अब बुर्जुआ मानदंड ले चुके हैं।

सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि सैद्धांतिक प्रश्नों को भी क्षेत्रीय राजनीतिक संरचना की दृष्टि से ऊपर-नीचे करने की गुंजाइश बन चुकी है। मदुरै में पार्टी कांग्रेस के बीच आज पार्टी के बड़े नेता प्रकाश करात और पिनराई विजयन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और कर्नाटक के मंत्री एम.सी. सुधाकर के साथ “संघवाद भारत की ताकत है” विषय पर एक परिचर्चा में हिस्सा ले रहे हैं।

वास्तविक स्थिति यह है कि वाम दलों में मार्क्सवादी चेतना के साथ जितने कार्यकर्ता होंगे, उससे कहीं ज्यादा पार्टी फोल्ड से बाहर स्वतंत्र लोग होंगे। ये अपने जीवन में छात्र या अपने प्रोफेशन में वामपंथी आंदोलन के संपर्क में आए, लेकिन अब पार्टियों के साथ सक्रियता से अपनी भागीदारी नहीं रखते।

हर पार्टी में दो स्तर पर कार्यकर्ता हैं। एक वे हैं जो रोज पढ़ते-लिखते हैं, सभा, सम्मेलन और ऑडिटोरियम में सैद्धांतिक भाषण दे सकते हैं। दूसरी ओर जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता हैं, जो अनुभवजन्य ज्ञान को अपना महत्वपूर्ण आधार समझते हैं। ट्रेड यूनियन, किसान, युवा आंदोलन और संगठन की जिम्मेदारी के साथ-साथ लोकल बॉडी चुनावों से लेकर संसदीय राजनीति में इनकी भागीदारी रहती है। पार्टी के भीतर ये दो छोर एक-दूसरे की वैचारिकी को मजबूत करने के बजाय अपने-अपने रोल से संतुष्ट होते हैं।

आज से 100 वर्ष पूर्व भारत में कम्युनिस्ट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दोनों का आविर्भाव साथ-साथ हुआ था। दुनिया में पहली बार किसी देश में संसदीय रास्ते से एक राज्य में अपने बल पर सरकार बनाने का कारनामा रचने वाली कम्युनिस्ट पार्टी आज आरएसएस के राजनीतिक फ्रंट बीजेपी के सामने कहीं नहीं टिकती दिखती। सबसे हैरानी की बात यह है कि सीपीआई(एम) के नेता अभी तक यह तय नहीं कर पा रहे कि बीजेपी के 10 वर्षों की कारगुजारियों को किस रूप में देखें। दिवंगत नेता सीताराम येचुरी भले ही दो बार से पार्टी महासचिव थे, लेकिन पार्टी में परंपरागत तौर पर बंगाल और केरल धड़े का ही बोलबाला रहा था।

प्रकाश करात भले ही पार्टी के सर्वेसर्वा न हों, लेकिन उनकी राय और समझ को ही पार्टी कार्यकर्ता अपना स्टैंड मानते रहे हैं। यह सही है कि वाम दलों में अभी भी यदि किसी पार्टी के भीतर पढ़ने-लिखने की थोड़ी-बहुत परंपरा बनी हुई है, तो वह सीपीआई(एम) में नजर आती है। पार्टी के बुद्धिजीवी तबके में आज भी कई बड़े नाम हैं, जिनका प्रभाव पार्टी के दायरे से बाहर मौजूद बौद्धिक वर्ग पर बना हुआ है। लेकिन पार्टी खुद इनके विचारों और रचनात्मकता का कितना लाभ उठा रही है, यह पार्टी के ग्राफ को देखने पर नजर नहीं आता।

पार्टी कांग्रेस ने पहले ही दिन दो राजनीतिक प्रस्तावों पर अपनी मुहर लगाकर अपने भावी राजनीतिक दिशा की ओर कदम बढ़ा दिया है। इसमें से एक है, श्रम संहिता के खिलाफ केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की ओर से 20 मई 2025 को देशव्यापी आम हड़ताल के आह्वान का समर्थन और दूसरा है अपनी रैंक एंड फाइल से ‘बीजेपी और संघ परिवार के पैशाचिक सांप्रदायिक हमलों का मुकाबला’ करने का आह्वान। अब सवाल यह उठता है कि ये दोनों ही मुद्दे आज अचानक से पैदा होकर सामने नहीं आए हैं।

90 के दशक से राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत से ही देश के हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का रथ चल रहा है। फर्क बस यह आया है कि 2014 से यह प्रमुख नैरेटिव के साथ-साथ भारतीय राज्य की भी दशा-दिशा तय कर रहा है। भारत में श्रमिक वर्ग पर बढ़ते हमले भी कोई नए नहीं हैं, बल्कि यदि यह कहा जाए कि समूचा भारतीय श्रमिक आंदोलन ही ध्वस्त हो चुका है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज की सच्चाई यह है कि 100 में 80 नौकरियाँ असंगठित क्षेत्र में हैं, और संगठित क्षेत्र में भी ठेके पर काम चल रहा है। स्टार्टअप बिजनेस ने परंपरागत ट्रेड यूनियन गठन के विचार को ही ध्वस्त कर दिया है, और कॉन्ट्रैक्ट पर जॉब किसी भी मजदूर आंदोलन को संभव नहीं होने दे रही।

उद्घाटन समारोह में लेफ्ट यूनिटी को लेकर एक बार फिर से आह्वान किया गया। लेकिन बड़ा सवाल है कि इस एकता का आधार क्या हो? यदि सभी प्रमुख दलों की नीतियों और कार्यनीति में कोई खास अंतर नहीं है, तो ये अपनी-अपनी ढपली और राग किसलिए? यह सवाल तो जमीन से उठता है, लेकिन दशकों से पार्टी ढाँचे और संसदीय क्षेत्रों में अपनी व्यक्तिगत पूँजी लगाए हुए नेताओं को समझ आना ज्यादा जरूरी है।

असल में यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है एकताबद्ध कम्युनिस्ट पार्टी होने में, जो उत्पीड़ितों की सच्ची आवाज बन सके। हमारे सामने श्रीलंका का उदाहरण है। पाँच वर्ष पहले तक जिस जे.वी.पी. को हाशिए पर जा चुकी पार्टी माना जाता था, उसने कुछ ही वर्षों में वह कर दिखाया, जिसे भारत में दो बार पूर्ण बहुमत की बीजेपी सरकार सिर्फ कल्पना ही कर सकती है। महज दो सांसदों से जे.वी.पी. आज श्रीलंका में दो-तिहाई से अधिक बहुमत वाली सरकार बन चुकी है।

यह कारनामा वह इसलिए दोहरा सकी, क्योंकि पार्टी ने दो मोर्चों पर काम किया। पहला, अपने विजन को बड़ा किया और श्रीलंका में मौजूद विभिन्न संगठनों को अपने नेतृत्व में एक मोर्चे में लाने का काम किया, और दूसरा, आसन्न संकट को देखते हुए उसने बड़े पैमाने पर पार्टी को आंदोलनरत देशवासियों के साथ जोड़ दिया। उस लहर में वे स्वाभाविक रूप से उसकी नेतृत्वकारी शक्ति के तौर पर उभरे।

भारत में भी पिछले 10 वर्षों से किसान, मजदूर, अल्पसंख्यक समुदाय, आदिवासी, दलितों के सामाजिक और आर्थिक मुद्दे, छात्रों-युवाओं और महँगाई से जुड़े मुद्दे रोजमर्रा की बात हैं। लेकिन यदि वामपंथी संगठन सिर्फ अच्छे-अच्छे विश्लेषण का सहारा ही लेंगे, तो मार्क्स के शब्दों में असल काम-दुनिया को बदलने का काम-कौन करेगा?

माना कि सीपीआई(एम) के दस्तावेज में कांग्रेस पार्टी की जो तुलना बीजेपी से की गई है, वह कमोबेश सटीक है, और उसकी भी नीतियाँ नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दायरे के भीतर ही सिमट जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की जद्दोजहद, भारत जोड़ो यात्रा और अब जातिगत सर्वेक्षण के मुद्दे पर वैकल्पिक नैरेटिव बनाने की मुहिम उस दल को 54 से 100 सीटों तक ले जाने में सफल रही। वामपंथी कब अपने विजन को अखिल भारतीय स्तर पर और साथ ही जमीन पर जोड़ने के लिए कमर कसेंगे? यदि यह नहीं होगा, तो मार्क्स का बुनियादी सिद्धांत एक बार फिर सही साबित होगा-हर वस्तु गति में है, जड़ कुछ भी नहीं। या तो आप आगे बढ़ेंगे, या इतिहास में पढ़े जाएँगे।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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