बिंदेश्वर पाठक: स्वच्छता को समर्पित जीवन

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नई दिल्ली। भारत में मैला ढोने और शौचालयों की सफाई को एक जाति का काम बताने की कुप्रथा पर करारा प्रहार करने वाले शख्स हैं ‘बिंदेश्वर पाठक’। सफाई को हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य मानने और देश भर में सार्वजनिक शौचालयों की श्रृंखला शुरू करने वाले बिंदेश्वर पाठक ने इस अभियान का शुभारंभ बिहार के आरा जिले से की थी। 1973 में आरा नगरपालिका में दो सार्वजनिक शौचालय का निर्माण महज 500 रुपये के लागत से कराया था। 1974 में पटना में उन्होंने 48 टॉयलेट और 20 बॉथरूम, मूत्रालय और वॉश बेसिन वाले पहले सुलभ पब्लिक टॉयलेट का निर्माण कराया। इसके बाद तो पूरे देश में शौचालय निर्माण का सिलसिला ही चल पड़ा।

दरअसल, बिंदेश्वर पाठक 1968 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मेहतरों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में शामिल हुए, जिससे उन्हें भारत में मैला ढोने वाले समुदाय की दुर्दशा के बारे में पता चला। इस समुदाय की स्थिति में सुधार के लिए उन्होंने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना कर नागरिकों को स्वच्छ शौचालय की सुविधा देने की पहल की थी। सुलभ इंटरनेशनल सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण के साथ ही मानव अधिकार, पर्यावरण स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों, अपशिष्ट प्रबंधन और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए काम करती है।

देश भर में 10,000 से अधिक सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करके स्वच्छता को समाज का पहली ज़रूरत के तौर पर देश के सामने रखने वाले बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार (15 अगस्त) को 80 साल की उम्र में निधन हो गया है। सफाई भक्ति से भी बड़ी है- और गांधी के बाद यदि किसी ने इस विषय पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया और काम किया तो वह नाम सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक हैं।

ऐसा बताया जा रहा है कि “कल जब वो नई दिल्ली के पालम-डाबरी रोड स्थित सुलभ कॉम्प्लेक्स में स्वतंत्रता दिवस समारोह में शरीक होने गए थे तब उनको वहां बेचैनी महसूस हुई जिसके बाद उन्हें आनन-फानन में एम्स ले जाया गया, लेकिन शायद देर हो चुकी थी।” उनकी मौत की वजह दिल को दौरा पड़ने को बताया गया है। बिंदेश्वर पाठक के परिवार में पत्नी अमोला और दो बेटियां और एक बेटा है।  

2 अप्रैल, 1943 को बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में जन्मे बिंदेश्वर पाठक ने 1970 में सुलभ आंदोलन शुरू किया था। उन्होंने गंदगी ना फैलाने और स्वच्छता बनाये रखने जैसे नेक काम को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्हें सरकार के स्वच्छ भारत मिशन के तहत कम लागत वाले ट्विन-पिट फ्लश शौचालयों को डिजाइन करने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है। हालांकि, एक सच्चाई यह भी है कि, 2014 में मोदी सरकार के द्वारा चलाया स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत, बिंदेश्वर पाठक जी के अभियान के तर्ज पर किया गया है।

महज 27 साल की उम्र में बिंदेश्वर पाठक को ये समझ में आ गया था कि लोगों के लिए स्वच्छता कितना जरूरी है? और शायद यही वजह है कि 1970 से ही लोगों को स्वच्छता को लेकर जागरूक करने में लग गए थे। पाठक ने पहला सार्वजनिक शौचालय बिहार के आरा जिला में एक नगर पालिका अधिकारी की मदद से बनवाया था। जिसने उन्हें 1973 में नगर पालिका परिसर में प्रदर्शन करने के बाद दो शौचालय बनाने के लिए 500 रुपये रकम दिए गए थे। इस मुहिम की सफलता के बाद, अधिकारियों ने इस परियोजना को व्यापक रुप से फैलाने की मंजूरी दे दी थी।

इस पहल के तहत साल 1974 में 48 सीटों, 20 बाथरूम, मूत्रालय और वॉश बेसिन के साथ पटना में पहला सार्वजनिक सुलभ शौचालय जनता के लिए बनाया गया था।

अपने गांव में स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, बिंदेश्वर पाठक ने साल 1964 में बीएन कॉलेज, पटना से समाजशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय से अपराध शास्त्र की पढ़ाई करना चाहते थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। इससे पहले कि वे आगे की पढ़ाई करते वह एक स्वयंसेवक के रूप में पटना में गांधी शताब्दी समिति में शामिल हो गए। समिति ने उन्हें बिहार के बेतिया में दलित समुदाय के लोगों के मानवाधिकारों और उनके सम्मान की बहाली का काम सौंपा गया। वहां पर उन्होंने कुछ ऐसा देखा जो ये बताने के लिए काफी था लोगों को विकसित होने की जरूरत है, और इसी वक्त उन्होंने संकल्प लिया कि एक मिशन शुरू करेंगे जिसके तहत हाथ से मैला ढोने और खुले में शौच की प्रथा को खत्म किया जाएगा, जो उस समय एक सामान्य घटना थी।

1974 में, बिहार सरकार ने बाल्टी शौचालयों को दो-गड्ढे वाले फ्लश शौचालयों में बदलने के लिए सुलभ की मदद लेने के लिए सभी स्थानीय निकायों को एक परिपत्र भेजा और 1980 तक, अकेले पटना में 25,000 लोग सुलभ सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग कर रहे थे। इस समय तक सुलभ शौचालय विदेशों में भी पहुंचने लगा था और शायद यही वजह है कि बिंदेश्वर पाठक के इस अनोखे प्रयासों को जल्द ही अंतरराष्ट्रीय प्रेस में भी दिखाया जाने लगा।

उन्होंने अपनी परा स्नातक उपाधि 1980 में और डॉक्टरेट की उपाधि 1985 में पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की।

1991 में, उन्हें स्वच्छता को लेकर लोगों को जागरूक करने और सुलभ शौचालय जैसे सेवाओं को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने और पुनर्वास पर उनके काम के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। अगले वर्ष यानी साल 1992 में पर्यावरण प्रति उनके द्वारा किए काम को लेकर अंतरराष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

2009 में, बिंदेश्वर पाठक ने रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा अर्पित स्टॉकहोम वॉटर पुरस्कार से नवाजा गया था। 2012 में, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उन्होंने वृन्दावन की विधवाओं के कल्याण की दिशा में काम करते हुए एक परोपकारी मिशन शुरू किया। इस मिशन के तहत उन्होंने प्रत्येक विधवा को 2,000 रुपये का मासिक पेंशन लागू करवाया।

2016 में, सुलभ को सरकार के प्रमुख स्वच्छ भारत मिशन में अग्रिम योगदान के लिए गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि बिंदेश्वर पाठक ने स्वच्छता के क्षेत्र में एक “क्रांतिकारी” पहल की है। “उन्हें पद्म भूषण सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। मैं उनके परिवार और सुलभ इंटरनेशनल के सदस्यों के प्रति संवेदना व्यक्त करती हूं।”

सुलभ इंटरनेशनल में सलाहकार के रूप में काम करने वाले मदन झा ने कहा कि बिंदेश्वर पाठक की मृत्यु समाज और संगठन के लिए एक बड़ी क्षति की तरह है। उन्होंने कहा, “जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को स्वच्छ भारत मिशन की घोषणा की, तो हमारे फोन लगातार बज रहे थे – हर कोई डॉ. बिंदेश्वर पाठक से बात करना चाहता था।” आज, फोन फिर से बज रहे हैं क्योंकि डॉ. पाठक हमें छोड़कर चले गए हैं।”

राष्ट्रपति के अलावा, देश के प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति ने भी बिंदेश्वर पाठक के लेकर अपनी संवेदनाएं व्यक्त की और उनके अतुलनीय काम और योगदान के लिए उनको को याद किया। एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के अलावा बिंदेश्वर पाठक एक अच्छे लेखक और एक अच्छे वक्ता के रुप में भी जाने जाते थे।

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