नई दिल्ली। देश में आजादी के किसी ने अगर जातिगत जनगणना करने की हिम्मत जुटाई, और उसे देश के सामने रखने का साहस भी दिखाया, तो वह हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। लेकिन ऐसा लगता है कि उम्र के इस पड़ाव में आकर नीतीश कुमार अपना आपा खो बैठे हैं। प्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों को पेश करने के दौरान हाल के वर्षों में जनसंख्या दर में गिरावट पर बोलते हुए उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के महत्व को समझाने के लिए जो उदाहरण पेश किया, वह बेहद अशोभनीय था।
जिस तरह से नीतीश ने चाव के साथ ग्राफिक डिटेलिंग की, और महिला पर ही जनसंख्या नियंत्रण की सारी जिम्मेदारी डाल दी, वह नीतीश ही नहीं बल्कि समूचे पितृसत्तात्मक समाज की परतें खोलने वाला था। नीतीश कुमार ने जो कहा, उसका अहसास उन्हें अगले दिन जाकर हुआ। यह समझ उन्हें देश भर से मिली लानत-मलामत, भाजपा सहित अपनी पार्टी एवं सहयोगी दलों की कतारों से भी अवश्य मिला होगा, जिसके लिए उन्होंने माफ़ी भी मांग ली।
लेकिन अगले ही दिन सदन में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का अपमान कर उन्होंने फिर साबित कर दिया है कि कहीं न कहीं नीतीश कुमार अपना संतुलन खो बैठे हैं। सदन में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अपनी बारी आने पर जीतन राम मांझी ने जनगणना के संदर्भ में जो आशंका जताई वह पूरी तरह से उचित थी। सदन में उन्होंने नीतीश कुमार के भाषण के बीच में उठकर उन्हें बीच में टोकाटाकी भी नहीं की थी।
सदन के भीतर क्या हुआ?
इस मामले को समझने के लिए तफसील से जानते हैं कि जीतन राम मांझी ने असल में सदन के भीतर क्या कहा था। मांझी ने पहले-पहल जातिगत जनगणना को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इसे जमीन पर लोगों से मिलकर तैयार नहीं किया गया है, बल्कि दफ्तर में बैठकर तैयार किया गया है। इसके साथ ही उनका तर्क था कि आरक्षण की घोषणा कर देने मात्र से जरूरतमन्द लोगों तक आरक्षण नहीं पहुंचने वाला है।
उन्होंने संविधान निर्माता आंबेडकर को उद्धृत करते हुए कहा कि आंबेडकर ने 10 वर्ष पर आरक्षण की समीक्षा किये जाने की बात कही थी। समीक्षा करने के बाद ही पता चल सकता है कि वास्तव में आरक्षण को कितने प्रतिशत तक लागू किया गया, लेकिन यह काम सरकार ने पिछले 73 वर्षों से नहीं किया।
उन्होंने दावा किया कि 1971 से रोस्टर नियम लागू है, नौकरियों में पदोन्नति इसके मुताबिक 16% होना चाहिए था, लेकिन वास्तव में यह मात्र 3% ही है। मांझी का इशारा दलितों को मिले संवैधानिक आरक्षण और नौकरियों में पदोन्नति को लेकर था। इसी प्रकार शैक्षणिक संस्थानों में भी दलितों का प्रतिनिधित्व आज भी बेहद कम है। कुल मिलाकर मांझी आरक्षण के मसले पर एक बेहद कड़वी हकीकत को विधानसभा के भीतर उजागर कर रहे थे, जिसको लेकर सामाजिक न्याय को वास्तव में धरातल पर उतारने की चाह रखने वाले नेताओं को कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी।
लेकिन बीच में ही टोकते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो कहा वह जीतन राम को ही नहीं विधानसभा अध्यक्ष सहित संभवतः सदन में उपस्थित सभी लोगों को सन्न कर गया होगा। मुख्यमंत्री ने छूटते ही कहा, “इनको कुछ आइडिया है? ये तो मेरी गलती थी जो इनको मुख्यमंत्री बना दिया। ऐसे ही बोलते रहता है, कोई सेंस है? सब लोग बिल का समर्थन कर रहे हैं, और ये विरोध करने चले हैं।” वीडियो में इस बीच विधानसभा अध्यक्ष भी कई बार नीतीश कुमार से शांत रहने की अपील करते रहे, जबकि जीतन राम मांझी लगातार कहते रहे कि यह ठीक नहीं हो रहा है विधानसभा अध्यक्ष जी।
किसी भी मुख्यमंत्री का, जो सदन का नेता भी होता है, इस प्रकार का व्यवहार कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता। क्या हुआ यदि बिहार भाजपा ही नहीं बल्कि केंद्र की मोदी सरकार भी बिहार में 75% आरक्षण के लिए बिना कोई ना-नुकुर किये राजी हो गई। किसी विधेयक पर सर्वसम्मति बन जाये तो उसे पेश करने वाले को इस कदर अहंकारी होने की छूट दी जा सकती है, जो इतने वरिष्ठ सदस्य के साथ इतनी अशिष्टता से बर्ताव करे? इसके पीछे की मानसिकता क्या है?
अपने समूचे राजनीतिक जीवन में भाजपा या राजद की बैसाखी के सहारे चलने वाले नीतीश कुमार के लिए एक बार सर्वसम्मति में ऐसी तानाशाही प्रवृत्ति? वो भी दलितों के लिए सामाजिक न्याय को वास्तविक रूप से लागू किये जाने की मांग पर?
सत्ता समीकरण में अब नीतीश कुमार के लिए कोई स्थान नहीं
क्या नीतीश कुमार जीतन राम मांझी को एक दलित नेता के रूप में दुत्कार रहे थे? यह सही है कि जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद उनकी ही कृपा से हासिल हुआ था। लेकिन यह उन्होंने कोई वास्तव में उन्हें नहीं सौंपा था, बल्कि उस समय उनके सामने ऐसी विकट परिस्थिति आ गई थी कि उन्हें किसी ऐसे विश्वासपात्र की जरूरत थी, जिसका पार्टी के भीतर कोई जनाधार न हो। अगर ऐसे किसी व्यक्ति को दे देते तो बहुत संभव था कि उससे बाद में कुर्सी छोड़ने के लिए कह नहीं सकते थे।
जीतन राम मांझी ने भी अपने तईं मुख्यमंत्री बनते ही ऐसे फैसले लेने शुरू कर दिए थे कि नीतीश कुमार को कुछ ही समय बाद उनसे कुर्सी खाली करने को कहना पड़ा। लेकिन ये सब चीजें तो पूंजीवादी लोकतंत्र की विशेषतायें हैं, जिसमें सत्ता में आते ही मूक-बधिर भी वाचाल और दौड़ने लगते हैं।
लेकिन बिहार विधानसभा के भीतर दो दिन के भीतर हुई इन दो घटनाओं ने आरक्षण और सामजिक न्याय के पुरोधाओं को लेकर कुछ गहरे प्रश्न छोड़ दिए हैं, जो देश में उन करोड़ों-करोड़ लोगों को एक बार फिर से सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि क्या यह सारी कवायद सिर्फ ऊपरी मन से की जा रही है और इसके बहाने असल में अपनी राजनीति को सेट किया जा रहा है, जैसा पिछले 34 वर्षों से भगवान राम को उनका हक दिलाने के नाम पर एक दल 4 बार देश पर शासन करने में सफल रही है?
आज 2011 की जनगणना के आधार पर 80 करोड़ लोग हर माह 5 किलो मुफ्त राशन की बाट जोह रहे हैं, जिसमें 80% हिंदू ही हैं। यदि हिंदुत्व की बात करने वाली कोई पार्टी पिछले 10 वर्ष से शासन कर रही है तो उसने कम से कम हिंदुओं का तो भला किया होता, लेकिन यहां तो हिंदू भी बड़ी संख्या में भुखमरी और बेरोजगारी के शिकार होते जा रहे हैं। देश का 80% हिंदू पेट की आग की चिंता में जूझ रहा है, और अपने आराध्य राम को भी वे इतना लाचार नहीं समझते कि उनका उद्धार करने कोई राजनीतिक पार्टी 21वीं सदी में अवतरित हुई है।
लेकिन हिंदू धर्म में हजारों-हजार वर्षों तक वर्णाश्रम व्यवस्था की मार से पीड़ित लोगों के लिए संविधान में 1950 से आरक्षण की जो व्यवस्था लागू की गई, उसका वास्तविक लाभ उन्हें मिल रहा है या नहीं, की समीक्षा भी यदि नहीं की गई तो क्या गारंटी है कि घोषणा के बाद भी उसे लागू किया जायेगा? इस बिंदु को तो वही ना उठायेगा, जिसके लिए यह प्रश्न आज भी प्रधान बना हुआ है। जिसे आरक्षण देकर राजनीतिक फसल काटने की चिंता सता रही हो।
इसके साथ ही कई राजनीतिक चिंतकों का अनुमान है कि नीतीश कुमार आज जिस राजनीतिक मुकाम पर हैं, वहां पर उनके पास वापस लौटने के दरवाजे लगभग बंद हो चुके हैं। पिछले दो दशकों से भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाकर उन्होंने धीरे-धीरे भाजपा को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि अब वह महाराष्ट्र की तरह खुद राज्य की कमान अपने हाथ में लेने के लिए व्यग्र है।
इसका उदाहरण देश पिछले विधानसभा चुनाव में बखूबी देख चुका है, जब नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ लोजपा के अधिकांश उम्मीदवार असल में भाजपा समर्थक ही थे। नीतीश को इस चुनाव में तगड़ा झटका सहना पड़ा, लेकिन गनीमत यह रही कि महागठबंधन भी लगभग बराबरी पर आकर खड़ा हो गया था।
सदन में आरजेडी के विधायक सबसे अधिक थे, और महागठबंधन में कोई टूट की गुंजाइश न होने की ही वजह से एक बार फिर से नीतीश कुमार को ढोना भाजपा के लिए मजबूरी बन गया। लेकिन इस बार उनकी कुर्सी को हर कोई हिला-डुला रहा था, और इसी को ध्यान में रखकर नीतीश बाबू ने एक और पलटी मार भाजपा के पूरे गणित को ही फेल कर दिया।
लेकिन इस बार महागठबंधन सरकार बनाने वाले नीतीश कुमार के पास पहले से परिपक्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी थे, जो हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहे हैं। सदन में नीतीश के महिलाओं के अपमान का मामला हो या जीतन राम मांझी के साथ की गई गलत हरकत, दोनों ही मामलों में तेजस्वी का बयान चतुर सुजान सरीखा है। मुख्यमंत्री के ठीक बगल में बैठे व्यक्ति को मुख्यमंत्री का बयान वैसा सुनाई नहीं देता, जैसा उन्हें आज भी वायरल वीडियो में साफ़ सुना जा सकता है। उनकी निगाह बिहार की कुर्सी पर जमी हुई है और वे नीतीश कुमार को कोई भी आरोप लगाकर एक बार फिर पलटी मारने की गुंजाइश नहीं छोड़ने वाले।
उधर राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन की पहली बैठक पटना में होने के बाद नीतीश कुमार के लिए कोई काम ही नहीं है। कांग्रेस 5 राज्यों के विधानसभा में अधिकांश पर जीत की उम्मीद में जुटी हुई है, और 7-8 राज्यों में उसकी सरकार बनने के बाद किसी भी क्षेत्रीय दल के नेता को अपनी महत्वाकांक्षा को जुबां पर लाना भी काफी कठिन हो जाने वाला है। शायद इसी बैचेनी में उन्होंने पिछले दिनों भाकपा के मंच का इस्तेमाल अपने मन का गुबार निकालने के लिए किया।
अपना कद बढ़ाने में जुटी हुई है कांग्रेस
लेकिन कांग्रेस तो एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल रही है, और गठबंधन के संयोजक या 2024 की रणनीति को दिसंबर के पहले सप्ताह के बाद ही रखने वाली है। ऐसे में नीतीश कुमार ने बिहार में जातिगत जनगणना के आर्थिक आंकड़े जारी कर जरूर देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था, लेकिन उनकी मनोदशा में अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता इस कदर हावी रही कि वे पहले दिन ही राष्ट्रीय नेतृत्व की रही-सही संभावना को अपने हाथों मिटा चुके थे। अगले दिन जीतन राम मांझी की आपत्ति पर इतनी बुरी तरह से भड़क उठने की शायद यही वजह रही हो।
उधर कांग्रेस नेतृत्व को देखते हैं तो राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे खुद पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व देने की भूमिका की तैयारी में जोर-शोर से जुटे हुए हैं। दक्षिण भारत में तो उन्होंने इस नैरेटिव को एक नई ऊंचाई पर पहले ही पहुंचा दिया है, और विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश में इसे बड़े पैमाने पर आजमाने की बात कही जा रही है। क्षेत्रीय पार्टियों के ढुलमुल रवैये को देखते हुए कई लिबरल समूहों को उसका यह रवैया काफी हद तक उचित भी जान पड़ता है।
आज जीतन राम मांझी अपने साथ हुए अपमान का बदला लेने के लिए बयान दे रहे हैं, और भाजपा उनके पीछे मजबूती से खड़ी है। आरक्षण पर भाजपा पूरी तरह से बिल के पक्ष में है और दूसरी तरफ वह जीतन राम मांझी के मुद्दे को समूचे दलित समाज के अपमान के साथ जोड़कर इंडिया गठबंधन के माथे पर कलंक मढ़ने से पीछे नहीं हटेगी।
ऐसे में सामाजिक न्याय और हिंदुत्व का प्रतिस्पर्धी नैरेटिव इतने करीब आकर ओवरलैप कर रहा है कि इसमें से न तो सामाजिक न्याय की वास्तविक लड़ाई का कोई संकल्प निकल रहा है, और न ही हिंदुओं के लिए ही कोई उम्मीद की किरण, बल्कि एक बार फिर से देश के 140 करोड़ मतदाताओं को बेवकूफ बनाने की जुगत में बयानबाजियों का पुलिंदा खड़ा किया जा रहा है।
इस बारे में जनचौक ने जब बिहार आंबेडकर जस्टिस फोरम के ओम प्रकाश मांझी से जानना चाहा तो उनका कहना था कि, “नीतीश कुमार ने सदन में जीतन राम मांझी का अपमान कर साबित कर दिया है कि वे दलितों, महिलाओं और आदिवासियों के बारे में वास्तव में क्या राय रखते हैं। हम इस बयान की कड़ी आलोचना करते हैं और बिहार में उनके खिलाफ धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।”
(रविंद्र पटवाल जनचौक के संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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