ग्राउंड रिपोर्ट: उत्तराखंड में वृक्षों की आक्रामक प्रजातियों से मानव और वन को खतरा

Estimated read time 1 min read

नैनीताल। उत्तराखंड जो अपनी प्राकृतिक सुन्दरता से सभी को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। विगत कई वर्षो से वृक्षों की आक्रामक प्रजातियों की बढ़ती संख्या को अनदेखा करता रहा, परंतु अब यही आज राज्य के लिए चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। इन प्रजातियों से न केवल राज्य में वनों को बल्कि वन्य जीवों को भी नुकसान हो रहा है। राज्य में 40-50 वर्ष पूर्व बाज, उतीस, खड़िग, भीमल, क्वैराल, पदम, काफल, बेडू जैसी प्रजातियों के जंगल हुआ करते थे, जो जल संरक्षण, भूमि कटान व प्राकृतिक आपदा रोकने में सहायक होते थे।

लेकिन आधुनिकता की भेट चढ़ते जंगल का सबसे बड़ा नुकसान किया राज्य में बाहर से लाई गई वृक्षों की प्रजातियों ने, जिसमें चीड़, कूरी, कालाबासा जैसे वृक्ष प्रमुख हैं। यह इतनी भयानक प्रजातियां हैं कि इनसे न केवल वृक्षों की स्थानीय प्रजातियों को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि वनों में आग का प्रकोप भी दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।

बाज (एक प्रकार का वृक्ष) के जंगल जिसे राज्य व ग्रामीण समुदाय के लिए किसी वरदान से कम नहीं आंका जाता है, का अस्तित्व चीड़ के पेड़ चलते खतरे में आ गया है। चारा प्रजाति के साथ जल संकट व वन्य जीवों के घर उनसे छिन गये हैं। इन आक्रामक प्रजातियों के चलते पारिस्थितिकी तंत्र में ज़बरदस्त तरीके से बदलाव हो रहे हैं जो समूचे मानव, वन्य जीवों और जंगल के अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।

वही कूरी व कालाबासा ऐसी प्रजाति है जो गर्म इलाकों में बहुतायत मात्रा में होती है। यह जिस क्षेत्र में होने लगती है मानों उस क्षेत्र में अन्य पौध प्रजाति का होना लगभग ना के बराबर हो जाता है। यह न केवल पर्वतीय इलाकों वरन् मैदानी क्षेत्रों में भी काफी तेज़ रफ़्तार से फैल रही है।

उत्तराखंड वन विभाग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 में अभी तक वनों में लगने वाले आग के 68 मामले दर्ज किये जा चुके हैं। जिसमें करीब 109.75 हेक्टेयर भूमि इस आग की भेंट चढ़ चुकी है। वनों में आग लगने का सिलसिला हर वर्ष होता है। जिसका एक प्रमुख कारण समुदाय में जागरूकता का अभाव भी पाया गया है क्योंकि कुछ आग मानव जनित भी होती हैं। इन वनाग्नि में वन प्रजातियों के साथ-साथ जीव जन्तुओं को काफी नुकसान होता है। जिसका सही आंकड़ा तक उपलब्ध नहीं हो पाता है।

पर्वतीय क्षेत्र में आग को रोकने में सबसे बड़ी दिक्कत वनों की ढलान और बाधित मार्ग है। जिस पर तुरंत कार्रवाई मुमकिन नहीं हो पाती है। ऐसे में इन्हें रोकने में स्थानीय समुदाय की सहायता अत्यंत ही आवश्यक है। इसके लिए फायर लाइन काटकर, पिरूल को जंगलों से समेट कर वनों में आग की घटना को कम किया जा सकता है।

आक्रामक प्रजातियों के बढ़ने से रोजगार पर भी रोक लगानी शुरू हुई है। पूर्व में वनों से विभिन्न औषधि पौधों, फलों, लकड़ी के विभिन्न उत्पादों से आय सृजन की जाती थी। वहीं वन में पूर्व प्रजातियों की कमी के चलते यह कार्य बाधित हो रहे हैं। वर्तमान समय में ‘पेड़ लगाओं धरा सजाओं’ की थीम पर ऐसी प्रजातियों को लगाया जा रहा है जो परिस्थितियों के अनुकूल नहीं होती हैं।

इस संबंध में, वन पंचायत कल्टानी के सरपंच गोविन्द फत्र्याल अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताते हैं कि वह विगत 10 वर्षों से इस पद पर हैं। इन वर्षों में उन्हें वनों में कई बदलाव देखने को मिले हैं। कई नई वन प्रजातियां जिसमें चीड़, कूरी, कालाबासा को वनों में फैलते देखा है।

उन्होंने कहा कि “चीड़ के जंगलों ने इतनी तीव्र गति से वृद्धि की है कि आज राज्य के 60 प्रतिशत जंगलों पर इसका फैलाव देखा जा सकता है। इसके कारण जंगल में निवास करने वाले कई जीव जन्तुओं को वर्तमान समय में देख पाना नामुमकिन सा हो गया है। जिसमें कौवे, गिलहरी, चील, लोमड़ी प्रमुख हैं। जो जीव जंतु एक समय में राज्य के जंगलों में राज किया करते थे वह आज लगभग विलुप्त हो रहे हैं।”

वह बताते हैं कि “इन प्रजातियों के आने का असर कृषि में भी देखने को मिल रहा है। उपज नहीं हो रही है, लोग कृषि से विमुक्त हो रहे हैं और जानवरों को छोड़ने लगे हैं। दूध देने वाली कई मवेशियों की नस्ल में दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो गयी है। जिसके चलते मवेशियों को दूध न देने की दशा में आवारा छोड़ दिया जा रहा है जिससे उनकी मौत का सिलसिला आम सा हो गया है।”

चीड़ प्रजाति पर अपने अनुभवों को साझा करते हुए कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र बिष्ट का कहना है कि “चीड़ राज्य के लिए सबसे बड़ी समस्या के रूप में है, पर सरकार द्वारा कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की जाती है क्योंकि इससे निकलने वाला लीसा राज्य के राजस्व को बढ़ाता है। अतः सरकार ने इसका कटान प्रतिबंधित कर दिया है। लेकिन यही चीड़ जंगलों में आग लगने का सबसे प्रमुख कारण भी है।”

उन्होंने कहा कि “पिरूल आग लगने का एक और प्रमुख तत्व है, अब इससे बायोब्रिकेटस, फाइलें, कैलेंडर इत्यादि बनाये जा रहे हैं। इनके निर्माण में ग्रामीण समुदाय की सहायता ली जा रही है जो ग्राम स्तर पर रोजगार उत्पन्न करने लगा है। वहीं इसका दोहरा लाभ यह है कि आग लगने का प्रमुख तत्व जंगल से कम होने लगा है तो अब जंगलों में आग की घटनाओं में भी कमी देखने की उम्मीद की जाने लगी है।”

जंगल को किसी भी प्रकार के नुकसान का सीधा असर ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर पड़ता है। उन्हें जंगल से लकड़ियां और अन्य सामग्री प्राप्त होती है। इस संबंध में, ग्राम गड़सारी और ताड़ीखेत गांव की महिलाओं का कहना है कि “यदि पौधा रोपण किया जाए तो उसमें स्थानीय प्रजातियों को शामिल करने के साथ उनका रखरखाव किया जाना भी अत्यन्त आवश्यक है। बिना रखरखाव के पौधों से पेड़ का सफर अत्यन्त ही मुश्किल हो जाता है।”

महिलाओं ने कहा कि “हर साल वन महोत्सव और पर्यावरण दिवस पर लाखों की संख्या में पेड़ लगाये जाते हैं। यदि केवल पेड़ लगाकर ज़िम्मेदारी से मुक्ति मिल जाती तो राज्य ही नहीं, वरन् देश में वनों की कमी न होती और न ही जलवायु परिवर्तन के श्राप को हमें झेलना पड़ता।” इन महिलाओं का कहना है कि “अब वृक्ष लगाओं-घरा सजाओं का नारा नहीं, बल्कि बचे वृक्ष बचाओ-घरा सजाओं के संदेश को अपनाना होगा।

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं यह महिलाएं हैं, जो अपनी वन पंचायत में रोपित पौधों की सुरक्षा का जिम्मा बखूबी निभा रही हैं और इन वृक्षों का अपने बच्चों की तरह ख्याल रख रही हैं। यह उन्हें कटीली झाड़ियों से साफ़ रखती हैं और ताड़-बाड़ की व्यवस्था समूह सहभगिता के माध्यम से कर रही हैं।

उनका कहना है “यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन काल में कम से कम पांच पेड़ की सुरक्षा का दायित्व ले ले, तो हरे-भरे वनों का सपना हकीकत में बदल जायेगा। ज़रूरत है हमें इस कार्य के लिए तत्पर होने की, क्योंकि वन है तो हम हैं।”

(उत्तराखंड से नरेन्द्र सिंह बिष्ट की रिपोर्ट।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments