ओडिशा में बीजेडी-बीजेपी के पुनर्मिलन के पीछे की वजह क्या है?

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‘एक अकेला सब पर भारी’ का दावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दलों के द्वारा गठबंधन बना लेने के बाद ही अपने इस दावे को दरकिनार कर मरणासन्न पड़ चुके एनडीए के धड़ों की सुध ली थी। विपक्ष के 26 दलों के मुकाबले एनडीए में 38 दलों को शामिल कर ज्यादा बड़ा कुनबा दिखाने तक की कोशिशें हुईं। लेकिन धरातल पर सबको पता था कि भाजपा के साथ इस समय ढंग का एक भी दल नहीं बचा है। एक-दो को छोड़ दें तो इसमें शामिल अधिकांश दलों का तो कोई नाम भी नहीं बता सकता। देश में 37% वोटर बनाम 63% के एकजुट होने की स्थिति में भाजपा के लिए 37% की गारंटी भी खतरे में पड़ने जा रही है, इस बात का अहसास भाजपा+आरएसएस को अंदर से खाए जा रहा था। लेकिन वर्तमान संसदीय राजनीति में जो दिखता है वो बिकता है, की तर्ज पर चलते हुए जुबानी जमाखर्च कर तीसरी बार भी मोदी सरकार के स्लोगन को जोर-शोर से चलाया जा रहा है।

पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों के बीच में उत्साह बनाये रखने और टीवी बहसों में किस दल को भारी बहुमत मिलने जा रहा है, से अपना मत बनाने वाले बहुसंख्यक मध्य वर्ग को काफी हद तक बरगलाना तो संभव है, लेकिन 400+ सीट की गारंटी को मुकम्मल होता दिखने के लिए कागज पर भी तो समीकरण नजर आना चाहिए। इसी को ध्यान में रखते हुए विपक्ष को अधिक से अधिक कमजोर करने के लिए किस कदर बड़े पैमाने पर सरकारी जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया है, उसके बारे में निश्चित रूप से भविष्य में कई किताबें बाजार में आयेंगी। पिछले 2 महीनों में रिकॉर्ड संख्या में तमाम विपक्षी दलों से विधायक, सांसद और पुराने कांग्रेसियों के परिवार के लोग टूटकर भाजपा में शामिल हुए हैं। इसी प्रक्रिया में उत्तर भारत से दो दल, जेडीयू और रालोद भी एनडीए का हिस्सा बने हैं।

लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा के पास अपने आधार का विस्तार करने के लिए कोई नया ठिकाना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। लेकिन ओडिशा राज्य में इसे संभव होता दिख रहा है। ओडिशा के अलावा एक अन्य राज्य है महाराष्ट्र, जहां से इस बार भाजपा के लिए 28 के बजाय 30-32 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए आधार बनता दिख रहा है।

ओडिशा में यह कैसे संभव हो पा रहा है, और पूर्व में बीजेडी-भाजपा के गठबंधन की कहानी और आज वे क्या हालात हैं, जिसके चलते ऐसा करने के लिए बीजू जनता दल मजबूर है, के बारे में कुछ सूत्र तलाशने की कोशिश करते हैं।

केन्द्र में एनडीए सरकार में मंत्री से 25 वर्ष राज्य के मुख्यमंत्री का सफर

वर्तमान में बीजू जनता दल (बीजेडी) के मुखिया और राज्य के मुख्यमंत्री, नवीन पटनायक वर्ष 2000 से राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर 25वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। वर्ष 2000 में ओडिशा की 147 सीट वाली विधानसभा में कांग्रेस को हराकर बीजेडी+भाजपा की सरकार बनती है। इस चुनाव में कांग्रेस का मतप्रतिशत (33.78%) सबसे अधिक होने के बावजूद बीजेडी (29.40%) और भाजपा (18.19%) के आगे नहीं ठहरता। कांग्रेस राज्य में तीसरे स्थान (26 सीट) वाली पार्टी बन जाती है, जबकि बीजेडी को 68 और बीजेपी के खाते में 38 सीटें प्राप्त होती हैं।

2004 में भी राज्य में बीजेडी और भाजपा का गठबंधन बदस्तूर जारी रहता है, और बीजेडी 61 और भाजपा 32 सीट के साथ नवीन पटनायक के नेतृत्व में राज्य की सत्ता को हथियाने में सफल रहती है। इस बार भी कांग्रेस के पक्ष में सर्वाधिक 34.82% वोट आते हैं, और पिछली बार की तुलना में 12 सीट अधिक लाकर उसके 38 विधायक विधानसभा में पहुंचे थे।

1999 में कंधमाल में ग्राहम स्टेन और उनके दो नाबालिग बच्चों को वैन के भीतर जिंदा जला देने की वीभत्स घटना को लेकर दुनियाभर में चर्चा हुई। उस समय नवीन पटनायक केंद्र में भाजपा मंत्रिमंडल का हिस्सा थे, और इस घटना के अगले साल उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर राज्य विधानसभा का चुनाव लड़कर पहली बार अपनी सरकार बना डाली। लेकिन वर्ष 2008 में एक बार फिर जब कंधमाल में संघ से जुड़े संगठनों और आदिवासी ईसाइयों के बीच संघर्ष दंगे का स्वरुप ले लेता है, जिसमें 395 से अधिक चर्च, 5600 घर और 13 शिक्षण संस्थानों को आग के हवाले कर दिया गया था, और इस हिंसा में 90 से अधिक लोग मारे गये थे, जिसमें से अधिकांश ईसाई धर्म को मानने वाले थे, तब नवीन बाबू भाजपा से नाता तोड़ अकेले चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं।

सेक्युलर अवतार में नवीन पटनायक

यही वह मोड़ था, जब नवीन बाबू ने भाजपा की बैसाखी के बजाय खुद के बल पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया, और 2009 के विधानसभा चुनाव में 147 सीट वाली विधानसभा में 103 सीट (38.86% वोट) हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली। इस चुनाव में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी थी, जिसे 27 सीट के साथ (29.11% वोट) हासिल हुए थे। भाजपा के हाथ में मात्र 6 सीटें और 15% वोट आये थे। इसके बाद तो नवीन पटनायक का सिक्का चल निकला, और 2014 में उनकी पार्टी और भी बड़े मार्जिन (117 सीट) से सरकार बना पाने में सफल रही। इसी चुनाव से कांग्रेस का राज्य में प्रभाव तेजी से कम होता चला गया। इस चुनाव में कांग्रेस के खाते में मात्र 16 सीटें आईं, लेकिन मत प्रतिशत 25.7% तक घट गया था। भाजपा के प्रदर्शन में सुधार देखने को मिला (10 सीट) और 18% वोट के साथ राज्य में उसके लिए संभावनाओं के द्वार फिर से खुलने की स्थिति बनने लगी।

वर्ष 2019 आते-आते राज्य में पहली बार बीजेडी के सामने प्रतिद्वंदी के तौर पर कांग्रेस की जगह भाजपा खड़ी हो चुकी थी। हालांकि चुनाव जीतने में नवीन बाबू को इस बार भी कोई दिक्कत नहीं हुई, और पार्टी पहले से बेहतर वोट प्रतिशत (44.71% के साथ) 112 सीट जीतने में कामयाब रही। लेकिन इस चुनाव में भाजपा का ग्राफ तेजी से बढ़ा और उसके पास 32.49% मतों का जखीरा आ चुका था, भले ही सीटों के लिहाज से अभी भी वह 23 सीटों के साथ बीजेडी से काफी पीछे बनी हुई थी।

लेकिन इस चुनाव से कांग्रेस तो मानो अतीत का हिस्सा हो चुकी थी। उसके हिस्से में सिर्फ 9.6% वोट ही आ सके, और सदन में उसके विधायक घटकर 9 हो चुके थे। कांग्रेस के लिए इससे भी बुरी बात यह थी कि राज्य में दूसरे स्थान पर भी वह मात्र 28 सीटों पर आ सकी थी। इस प्रकार कह सकते हैं कि राज्य में 2019 के बाद सत्ता संघर्ष बीजेडी और भाजपा के बीच तय हो गया था। लेकिन 2024 आते-आते कुछ ऐसा हुआ है, जो राज्य और केंद्र के सत्ता समीकरण को आपस में प्रतिद्वंदिता के बजाय एक बार फिर से गलबहियां करने के लिए मजबूर कर गया है।

बीजेडी-बीजेपी एक नेचुरल गठबंधन

इसकी सबसे बड़ी वजह देखने में यही लग रही है कि केंद्र में पीएम नरेंद्र मोदी को हर हाल में पूर्ण बहुमत की सरकार चाहिए। इसके लिए देश में तमाम गठबंधन भी बनाये जा रहे हैं, और साथ ही सारे दलों के पुराने चेहरों को भाजपा में शामिल कर विपक्ष को लुंज-पुंज दिखाकर, जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति में एकमात्र विकल्प साबित करना है।

ध्यान से देखें तो भाजपा के लिए एक और राज्य को अपनी झोली में करने के लिए थोड़ी सी मशक्कत करनी है, जिसमें 6-8% वोटों को अपने पाले में कर वह राज्य में पहली बार अपनी सरकार बनाने में सफल हो सकती है। संसाधनों के लिहाज से उसके पास इसकी कोई कमी नहीं है, और सत्तारूढ़ बीजेडी के विधायकों और सांसदों को अपने पाले में करने के लिए उसे कोई खास मेहनत भी नहीं करनी होगी। लेकिन इसके बावजूद 2024 के आम चुनाव की विकट परिस्थिति को देखते हुए, मोदी-शाह की जोड़ी भाजपा के राज्य कार्यकर्ताओं को 5 वर्ष और इंतजार कराने के लिए तैयार दिखते हैं।

इस समझौते के तहत राज्य में नवीन पटनायक के लिए एक बार फिर अगले 5 वर्ष तक निष्कंटक राज करने का ऑफ़र है, जिसके बदले में वे लोकसभा में अपनी दावेदारी को आश्चर्यजनक संख्या में कमी करने जा रहे हैं। खबर तो यहां तक है कि इस बार बीजेडी 21 लोकसभा सीटों की बजाय सिर्फ 7 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने जा रही है। इसका मतलब हुआ कि पिछली बार 12 सीटों पर बीजेडी के जो सांसद जीतकर देश की संसद में पहुंचे थे, उसमें भी पार्टी इस बार 5 सीटों का बलिदान करने जा रही है। 2019 में भाजपा के खाते में 12 और कांग्रेस के खाते में 1 सीट आई थी।

यह समझौता दोनों ही दलों के लिए मुफीद बैठता है। नवीन पटनायक के लिए संभवतः यह आखिरी पारी होने जा रही है। 1946 में जन्में नवीन बाबू उम्र और स्वास्थ्य के लिहाज से पहले की तरह भागदौड़ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। पार्टी की सभाओं में जाना भी इस बीच कम हुआ है। इसकी वजह से पार्टी पर उनकी पकड़ भी पहले से कम हुई है। राज्य में देखने को मिल रहा था कि प्रतिद्वंदी होने के नाता भाजपा और बीजेडी के कार्यकर्ता अक्सर आमने-सामने हो रहे थे, जो आने वाले दिनों में केंद्र की राजनीति में कहीं न कहीं मुश्किल का सबब बनने जा रहा था। अब यह बात किसी से छिपी नहीं कि मोदी सरकार को जब-जब सदन में संख्या बल की जरूरत पड़ी, बीजेडी ने गठबंधन न होने के बावजूद भरपूर साथ दिया है। एक वजह यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान बड़ी संख्या में बीजेडी से नेताओं का भाजपा में पलायन हो रहा था, जो अब गठबंधन हो जाने के बाद खत्म हो सकता है। इसके साथ ही कुछ लोग यह भी तर्क दे रहे हैं कि नवीन पटनायक राज्य के लिए केंद्र से अधिक फंड लाकर कल्याणकारी कामों को बढ़ाने की ओर भी सोच रहे हैं, लेकिन यह बात उनके दिमाग में आज क्यों आ रही है, यह समझ से परे है।

कांग्रेस के लिए एक अवसर

लेकिन इसी के साथ एक बात और भी काबिलेगौर है, जिसका उल्लेख करना जरुरी है। पिछले 24 वर्षों से ओड़िसा में लगातार दूसरे और अब तीसरे नंबर की पार्टी की स्थिति ने कांग्रेस के पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को निराशा की स्थिति में डालने के साथ-साथ दल छोड़ने की स्थिति में ला दिया था। परंतु पिछले वर्ष तेलंगाना राज्य में हैरतअंगेज कायापलट ने आंध्र प्रदेश के बाद ओडिसा राज्य में कांग्रेस के भीतर शक्ति का संचार कर दिया है।

कहा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से कांग्रेस छोड़कर जाने वाले कई पुराने नेता वापस पार्टी का दामन थामने के लिए आगे आ रहे हैं। राज्य में पार्टी इंचार्ज का कार्यभार जबसे अजोय अलोक के हाथ में दिया गया है, तबसे कई पुराने दिग्गज कांग्रेसी दल में शामिल हो चुके हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम है, कोरापुट से नौ बार के सांसद और पूर्व मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग का, जिनकी पत्नी भी पूर्व में विधायक रह चुकी हैं। उनके बेटे शिशिर गोमांग भी बीआरएस छोड़ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। बताया जा रहा है कि गोमांग परिवार का दक्षिणी ओडिशा के आदिवासी बेल्ट में अच्छा आधार रहा है, जिसे कभी कांग्रेस का किला मन जाता था। पार्टी को उम्मीद है कि गोमांग परिवार के वापस आने से एक हिस्सा पार्टी के खाते में भी आ सकता है।

इसके अलावा, कोरापुट से ही पूर्व बीजेडी सांसद, जयराम पांगी के भी कांग्रेस में आने से इस क्षेत्र में पकड़ मजबूत हुई है। दो दिन पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीकांत जेना, जो कि पिछले कुछ वर्षों से निष्क्रिय हो गये थे, ने दोबारा से कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राज्य में बीजेडी+भाजपा गठबंधन के खिलाफ कमर कसने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है। राज्य में कांग्रेस अध्यक्ष पद की कमान सरत पटनायक के हाथों में है, और राज्य नेतृत्व का मानना है कि पिछले 24 वर्षों में राज्य में भ्रष्टाचार और संसाधनों की लूट अपने चरम पर पहुँच गई है।

ओडिशा एक बड़े परिवर्तन की दहलीज पर

करीब 4.70 करोड़ आबादी वाले राज्य ओडिसा में 90% आबादी हिंदुओं की है, लेकिन आबादी में करीब 50% पिछड़े, 17% दलित और 23% अनुसूचित जनजाति कुल आबादी के 90% का प्रतिनिधित्व करते हैं। सवर्ण मात्र 6% हैं, जबकि मुस्लिम 2% हिस्सेदारी रखते हैं। बीजेडी, भाजपा और यहां तक कि कांग्रेस नेतृत्व तक प्रभुत्वशाली अगड़ी जातियों से आता है। देश में संसाधन के मामले में सबसे समृद्ध राज्य होने के बावजूद, ग्रामीण आबादी के बड़े हिस्से को रोजगार की तलाश के लिए केरल, गुजरात जैसे राज्यों में ठेके पर काम करने के लिए जाना आज भी सबसे बड़ी मजबूरी बना हुआ है। केंद्र और राज्य सरकार के सार्वजनिक निगमों में भी उनकी भागीदारी न्यून है, और देशी-विदेशी कॉर्पोरेट निवेश से लगने वाले उद्योगों में भी उनकी हिस्सेदारी कैसे हो, यह एक बड़ा सवाल बनी हुई है।

राज्य के संसाधनों पर पहला हक वहां के मूल निवासियों का है, और राजस्व में हिस्सेदारी का सवाल आज भी मूल प्रश्न बना हुआ है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 2024 चुनाव में जातिगत जनगणना के प्रश्न को उठाया है, जिसकी जरूरत बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश से कहीं अधिक ओडिशा की बहुसंख्यक आबादी को है, जिन्हें अभी भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व की तलाश है। इस लिहाज से इस नए कलेवर वाली कांग्रेस के लिए ओड़िसा एक बेहद उर्वर जमीन है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या उसके पास इनके बीच से उभरता नेतृत्व भी है? क्योंकि इसके अभाव में सामजिक बदलाव के इस काम को अंजाम देना दूर की कौड़ी होगी।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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