पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का लेख: लेवल प्लेइंग फील्ड के लिए चुनाव आयोग को नियमों का पुनर्लेखन करना होगा

Estimated read time 2 min read

2024 के आम चुनावों की घोषणा करने के लिए भारतीय चुनाव आयोग की प्रेस वार्ता का एक सुखद पहलू था उनका लेवल प्लेइंग फील्ड अर्थात बराबरी का मैदान देने पर ज़ोर देना। मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता सभी राजनीतिक दलों को मुहैया कराई है और उनसे अनुरोध किया है कि अपने स्टार प्रचारकों के ध्यान में लाएं। उन्होंने कहा कि लेवल प्लेइंग फील्ड को प्रभावित करने वाले कार्यों की शिकायतों से सख्ती से निबटा जाएगा।

बराबरी का मैदान जैसी अवधारणा खेल और युद्ध में लागू नहीं होती। कोई नहीं कहेगा कि दो टीमें सिर्फ तभी खेलें जब दोनों टीमें बराबरी की हों। क्रिकेट में गृह टीमें  अपनी पिच अपने फायदे को ध्यान में रखकर बनाती हैं लेकिन इस “अनुचित कार्रवाई” को बर्दाश्त किया जाता है क्योंकि मेहमान टीमें अपनी पारी का इंतजार करती हैं। इसी तरह इसे भी अनुचित नहीं माना जाता जब एक ताकतवर सेना लड़ाई में बौने विपक्ष को पीट देती हैं। कहा जाता है, ‘प्यार और युद्ध में सब जायज़ है”। आश्चर्य नहीं कि “फेयर इज़ फाउल, फ़ाउल इज़ फेयर” मुहावरा इंसानों को चकित करता है, इस संभावना की ओर इशारा करता है कि सच उसके बिल्कुल विपरीत हो सकता है जो दिखता है।

तो फिर ऐसा क्यों है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए बराबरी का मैदान एक पवित्र धारणा है? एक कारण है कि किसी लोकतंत्र में चुनाव न तो कोई युद्ध है और न ही सशस्त्र लड़ाई। यह लोकतंत्र की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें अलग-अलग पार्टियां और स्वतंत्र प्रत्याशी चुने हुए जनप्रतिनिधियों के सदन में मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए प्रयास करते हैं। एक वोट एक सामाजिक करारनामा है जो विश्वास और तथ्यों पर टिका है।

मुकाबला उचित तरीके से हो रहा है, यह सुनिश्चित करने के लिए चुनाव के दौरान बराबरी का मैदान दिया जाना अपरिहार्य है भले ही प्रत्याशी बराबर न हों। न तो राजनीतिक पार्टियां और न ही प्रत्याशी खुद एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश न कर यह बराबरी का मैदान नहीं बना सकते। यदि निहित असमानता खेल के अंग के रूप में पहचानी जाती है तो यह नियामक की जिम्मेवारी है कि वह चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों/प्रत्याशियों द्वारा मतदाताओं को अपने पक्ष में प्रभावित करने के प्रयासों में बराबरी का मैदान सुनिश्चित करे।

बराबरी के मैदान के सिद्धांतों के अमल पर नजदीक से देखें तो उस फायदे को “लेवल” करना है जो किसी सत्तारूढ़ पार्टी के पास विपक्षी प्रत्याशियों के मुकाबले होता है। मैदान “समतल” है, इस भावना के मूल में यही है। खेल में सबसे कमजोर टीमों को सबसे मजबूत टीमों से खिलाया जा सकता है। वास्तव में, टेनिस जैसे खेलों की प्रतियोगिताओं के शुरुआती चरणों में सबसे कमजोर खिलाड़ियों को रैंकिंग टेबल पर शीर्ष स्थान वाले खिलाड़ियों के मुकाबले खिलाया जाता है। यदि वह श्रेष्ठ कौशल वाले और दम वाले खिलाड़ियों से हार जाते हैं तो कोई आंसू नहीं बहाता क्योंकि खेल को लोकतान्त्रिक नहीं माना जाता। एक सच्चे लोकतंत्र में चुनाव लेकिन एक अलग ही खेल है।

हालांकि सामान्य समय में सामान्य सभ्य व्यवहार के लिए सामान्य कानून हैं, राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों से चुनाव के लिए मर्यादा का पालन करने की अपेक्षा होती है जो कि उन्होंने चुनाव आयोग की निगरानी में स्वेच्छा से मानने की तैयारी दिखाई होती है। सभी निर्दिष्ट पाबंदियां कानून में नहीं लिखी हैं। कभी-कभी सभ्य सार्वजनिक व्यवहार के प्रति उनकी कटिबद्धता होती है और कभी-कभी चुनाव आयोग के डंडे का दम। यही आदर्श आचार संहिता के मूल में है जिसे लागू करने की चुनाव आयोग से अपेक्षा की जाती है।

आदर्श आचार संहिता की पड़ताल से पता चलता है कि संहिता से चार पक्ष बंधे हैं : प्रत्याशी, राजनीतिक पार्टियां, सत्तारूढ़ पार्टी और अफसरशाही। अंतिम दो सत्तारूढ़ शासन का हिस्सा हैं लेकिन उन पर अलग से भी संहिता लागू होती है। संहिता का प्रमुख हिस्सा ऐसे उल्लंघनों से संबंधित है जो अन्यथा कानून के दायरे में नहीं आते, जैसे “विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच मतभेदों को बढ़ाएं नहीं या आपसी वैमनस्य अथवा तनाव न पैदा करें”, “अपुष्ट आरोप न लगाएं या निजी आलोचना न करें या “वोट के लिए जाति व सांप्रदायिक भावनाओं” को न उकसाएं” और “पार्टियां और प्रत्याशी “भ्रष्ट तरीके” न अपनाएं। संहिता कहती है कि पार्टियां और उनके कार्यकर्ता प्रतिद्वंदी पार्टियों की गतिविधियों को बाधित नहीं करेंगे। प्रचार सभाओं, जुलूसों, मतदान केंद्रों और चुनावी घोषणापत्रों पर भी निर्देश हैं।

उल्लेखनीय यह भी है कि आदर्श आचार संहिता में एक अलग खंड “केंद्र अथवा राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी” पर है, जिसके लिए निर्देश है कि “उसे सुनिश्चित करना चाहिए कि शिकायत का मौका न दे कि उसने चुनावी प्रचार के लिए अपनी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया है।” दुरुपयोग, जैसा कि आचार संहिता में बताया गया है, मुख्य तौर पर विश्राम गृहों, ट्रांसपोर्ट या सार्वजनिक इन्फ्रस्ट्रक्चर जैसी सरकारी सुविधाओं के इस्तेमाल और विज्ञापन देने अथवा नई स्वीकृतियां देने के लिए सार्वजनिक निधि के इस्तेमाल के अपने अधिकार का उपयोग करना है।

सरकारी मशीनरी के रोजमर्रा के कार्य या कानूनी व्यवस्था पर कोई पाबंदी वर्तमान आचार संहिता के तहत नहीं है। यह महत्वपूर्ण है कि क्या चुनाव आयोग के लिए कानून की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना चाहिए भी? या क्या कानूनी एजंसियों की सामान्य जांच को चुनाव आयोग द्वारा निर्णीत किया जाए? क्योंकि इससे स्थिति और असंगत हो सकती है। शायद, सरकारी एजंसियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग पर प्रतिभागियों ने विचार भी नहीं किया था जब आदर्श आचार संहिता पहले तैयार की गई थी। लेकिन, जैसा कि मानव व्यवहार के साथ है, आदर्श आचार संहिता भी परिवर्तनीय दस्तावेज़ है।  

2009 में आम चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने 19 मार्च, 2002 के अपने पत्र से स्पष्ट किया कि आदर्श आचार संहिता बिजली नियामक आयोग जैसे आयोगों पर भी लागू होगी जो कि एक कानून के तहत कार्य करने वाली वैधानिक स्वायत्त इकाइयां हैं। इसी तरह, बजट प्रस्तुत करने पर आदर्श आचार संहिता के लागू होने के संदर्भ में अस्पष्टता थी क्योंकि यह एक सालाना संप्रभु कार्य है। चुनाव आयोग ने अपने 9 मार्च, 2019 के पत्र के जरिए स्पष्ट किया कि “प्रचलित परिपाटी” यही है कि “जहां चुनाव होने ही जा रहे हैं… और आदर्श आचार संहिता लगी हुई है, पूर्ण बजट पेश करने के बजाय केवल लेखानुदान होगा क्योंकि इससे “स्वस्थ लोकतान्त्रिक परंपरा में योगदान करता है।” आयोग ने, विधायिका के सम्मान में “नियम बनाने या कार्यवाही निर्दिष्ट करने” से परहेज किया।

शायद, वर्तमान माहौल और व्यवस्था द्वारा बराबरी के मैदान को बिगाड़ने से रोकने के लिए चुनाव आयोग को शिकायतें पैदा करने वाले तथ्यों और हालात की पड़ताल की आवश्यकता है जैसा कि उसने 2019 में किया था जब उसने राजस्व विभाग को निर्देश जारी किया था। उसे तय करना होगा कि कानूनी एजंसियों की अभूतपूर्व कार्यवाहियों की शृंखला किसी “स्वस्थ लोकतान्त्रिक परंपरा” का उल्लंघन तो नहीं कर रही।  

चुनाव आयोग की अवांछनीय दुविधा यही होगी कि पुराने नियमानुसार चलें या फिर “स्वतंत्र व निष्पक्ष” चुनाव- जो संविधान में तो नहीं लिखा हुआ लेकिन सभी चुनाव संचालन निगरानी, निर्देश और नियंत्रण में करवाने” की भावना में शामिल है- करवाने की अपनी एकमात्र जिम्मेवारी पूरी करने के लिए नये सिरे से पटकथा लिखें। आदर्श आचार संहिता भी उससे कहीं ज्यादा है जितनी समझी जा सकती है; इसमें निष्पक्षता की भावना है जिसे पूरी तरह समझना और सही से लागू करना होगा।

(इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments