किरण चौधरी: हरियाणा में दल-बदलुओं के सहारे भाजपा

Estimated read time 1 min read

लोकसभा चुनावों में मिली शिकस्त से हरियाणा भाजपा में बेचैनी है। इसका कारण राज्य में फिर से सरकार बनाने के राह में आने वाली अड़चने हैं। लोकसभा चुनावों में दावों के विपरीत भाजपा का प्रदर्शन केंद्रीय नेतृत्व के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। लोकसभा चुनावों में 5 में से 3 सीट दलबदलुओं-कुरुक्षेत्र में कांग्रेस से आये नवीन जिंदल, भिवानी-महेंद्रगढ़ में पुराने कांग्रेसी धर्मवीर सिंह, गुरुग्राम में राव इंद्रजीत सिंह के आसरे ही भाजपा अपने खाते में ला सकी है। जबकि अन्य दलबदलू सिरसा में अशोक तंवर, रोहतक में अरविन्द शर्मा और हिसार में रणजीत सिंह चौटाला को मतदाताओं ने नकार दिया। 

वर्तमान में 90 सीटों की प्रदेश विधान सभा में भाजपा की सरकार अल्पमत में है जिस पर विपक्षी दल कांग्रेस निरन्तर हमलावर है। 2019 के विधान सभा चुनाव में 40 सीट जीत कर भाजपा पूर्ण बहुत से वंचित रह गयी थी। लेकिन भाजपा का विरोध कर 10 सीटों पर जीत हासिल करने वाली जजपा के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब हुयी थी। लोकसभा चुनावों से ऐन पहले भाजपा ने जजपा से गठबंधन तोड़ कर और प्रदेश में मुख्यमंत्री बदल कर जनता के आक्रोश को कम करने की कवायद की थी लेकिन इस कवायद का भाजपा को कोई ख़ास लाभ नहीं हुआ। विधान सभा चुनावों में फिर से बहुमत हासिल करने में लगी भाजपा अपनी परिचित रणनीति जोड़तोड़ को फिर से आगे बढ़ने में लगी है। जिसका ताजा उदाहरण पुराने कांग्रेसी बंसीलाल के परिवार में सेंध लगाना है। 

हरियाणा को पंजाब से अलग एक प्रदेश के रूप में स्थापित करने और विकास करने में पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल का बहुत योगदान हैं। बंसी लाल के दिवंगत बेटे सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी और पोती श्रुति चौधरी को भाजपा में शामिल करवा कर भाजपा ने एक और उपलब्धि हासिल की है। 3 -4 महीने के बाद होने वाले विधान सभा के चुनावों की हलचल के चलते अभी और भी कांग्रेसी नेता व हाशिये पर जा चुकी जजपा के कई नेता और विधायक भी भाजपा की नाव में सवार होने का सिलसिला प्रदेश की राजनीति में देखने को मिलेगा।

भाजपा को हरियाणा में 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद ही स्वीकार्यता मिलनी शुरू हुयी थी। बदलते राजनीतिक परिवेश में प्रदेश के बहुत से नेता जो अपनी पार्टियों में किन्हीं कारणों से उपेक्षित रहे, भाजपा की लहर के चलते पार्टी का दामन थामना शुरू किया था। कांग्रेस के बड़े जाट नेता बीरेंद्र सिंह, अहीरवाल क्षेत्र से राव इंद्रजीत सिंह, ब्राह्मण समुदाय के सोनीपत से अरविंद शर्मा सब पहले भाजपा में शमिल हुए। उसके बाद अन्य नेता भी अपने राजनीतिक भविष्य के लिए भाजपा की नाव में बैठ गए। इसका तत्कालिक लाभ भाजपा को प्रदेश में अपना विस्तार करने में मिला। जिसके प्रभाव के कारण भाजपा प्रदेश में भी सरकार बनाने में सफल हुयी थी। लेकिन अब 10 साल की सत्ता के बाद भाजपा दलबदलुओं के सहारे ही विधान सभा चुनावों में अपनी सफलता को तय करने में लगी हुई है।

किरण चौधरी ने हरियाणा में राजनीति शुरू करने से पहले 1986 में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की महासचिव के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत दिल्ली में की थी। 1998 में दिल्ली प्रदेश की दिल्ली छावनी से पहली बार विधानसभा में पहुंची और डिप्टी स्पीकर बनी थी। 2005 में अपने पति सुरेंद्र सिंह की दुर्घटना में  मृत्यु के बाद उपचुनाव में भिवानी जिले की परिवार की पारंपरिक सीट तोशाम से जीत हासिल की थी। उसके बाद 2009, 2014, 2019  में निरंतर तोशाम से जीत दर्ज की।हरियाणा में कांग्रेस सरकार में मंत्री रहीं। 2014 में हरियाणा विधान सभा में नेता विपक्ष रही हैं।

किरण चौधरी के बारे में माना जाता है कि वो दिल्ली में रह कर ही हरियाणा की राजनीति करती रही हैं और अपने विधान सभा क्षेत्र में बहुत कम सक्रिय रहती हैं। किरण चौधरी व उनकी बेटी श्रुति चौधरी को हरियाणा में बंसीलाल की विरासत का ही वोट मिलता रहा। लेकिन बंसी लाल की राजनीति को पूरे प्रदेश में बढ़ाने की बजाय केवल एक विधान सभा तोशाम तक ही सीमित कर दिया। 2009 में श्रुति चौधरी को लोक सभा चुनाव में अपने पिता सुरेंद्र सिंह की सहानुभूति के कारण जीत मिली, लेकिन वह भी मिले अवसर को विस्तार नहीं दे पायीं। 

पिछले काफी समय से किरण चौधरी हरियाणा कांग्रेस में अपनी महत्वकांक्षा के कारण बड़े पद पाने की कोशिश में विवादों में घिरती रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर हुड्डा से भी उनके मतभेद हैं। हाल ही में हुए राज्य सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के अजय माकन के चुनाव में अपने वोट के प्रयोग के कारण भी विवादों में रहीं। क्योंकि केवल एक वोट से कांग्रेस के प्रत्याशी की हार हुयी और कांग्रेस की बहुत किरकरी हुयी थी। 2024 के लोक सभा चुनाव में बेटी श्रुति चौधरी को टिकट न मिलने को अपने विरुद्ध साजिश मानते हुए अब कांग्रेस को छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया।

लोक सभा चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी के विरुद्ध अंदर खाने भाजपा के धर्मवीर सिंह की मदद करने के आरोप भी किरण चौधरी पर लगे। राहुल गांधी की दादरी में रैली के मंच पर कांग्रेस प्रत्याशी राव दान सिंह से तकरार सभी ने देखा भी था। हरियाणा के राजनीतिक हलकों में यह चर्चा काफी समय से चल रही थी की किरण चौधरी का राजनीतिक आधार बहुत सीमित हो चुका है और हृदय परिवर्तन होने का औपचारिक ऐलान कभी भी हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि किरण चौधरी भाजपा से मिल कर काम कर रही थी। मनोहर लाल खट्टर ने आज किरण चौधरी को भाजपा में शामिल करने के मौके पर पुष्टि कर दी कि भले ही किरण चौधरी कांग्रेस में थी लेकिन  पिछले 10 सालों से भाजपा से मिल कर काम कर रही थी।   

हरियाणा में राजनीतिक हवा भाजपा के विपरीत चल रही है ये लोकसभा चुनावों में साफ हो गया है। तोशाम की सीट ग्रामीण क्षेत्र की सीट है जिस पर बहुल संख्या में किसान हैं। किसानों की समस्याओं पर भी किरण चौधरी और श्रुति चौधरी ने कांग्रेस में रहते कोई आंदोलन नहीं किया। कांग्रेस के प्रत्याशी राव दान सिंह को हरवाने के लिए किरण चौधरी और श्रुति चौधरी ने अपने क्षेत्र में जिस तरह प्रचार किया उससे स्थानीय लोगों में भी संकीर्ण राजनीति को लेकर कई तरह के सवाल उभरने लगे हैं। किरण चौधरी और श्रुति चौधरी के जाने से कांग्रेस को प्रदेश में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि एक सीट तोशाम में भी मतदाताओं में परिवर्तन हो सकता है। किरण चौधरी का प्रदेश स्तर पर कोई प्रभाव नहीं है। अपने राजनीतिक कौशल को किरण चौधरी कभी इतना सक्षम नहीं कर पायी कि पूरा प्रदेश उस प्रभाव में आया हो ये पूरा प्रदेश जानता हो। क्योंकि भिवानी और महेंद्रगढ़ जिला के एक क्षेत्र विशेष के बाहर प्रदेश की अन्य विधानसभा सीटों पर कोई बड़ा जनाधार किरण चौधरी या श्रुति चौधरी का है नहीं।  

कल तक भाजपा की नीतियों की आलोचना करने वाली किरण चौधरी अब अपने हलके में किस तरह मतदाताओं को नयी विचारधारा समझने में सफल होगी ये चुनौती किरण चौधरी ने खुद ही ली है।

(जगदीप सिंह सिंधु स्वतंत्र पत्रकार हैं)  

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author