8 अक्टूबर हरियाणा और जम्मू-कश्मीर का नहीं, दिल्ली सल्तनत की किस्मत तय करेगा?

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नई दिल्ली। 8 अक्टूबर को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे में क्या निकलने वाला है, इसके बारे में अगर देश अभी कयास ही लगा रहा है, तो घबराने की कोई बात नहीं, क्योंकि कमोबेश दोनों राज्यों के मतदाता अपना मूड बना चुके हैं।

दोनों ही राज्यों में इंडिया गठबंधन और कांग्रेस की जीत की संभावना काफी अधिक है। इस जीत के अंतर को कम करने में तीसरे, चौथे गठबंधन कितना योगदान देने वाले हैं, यह तो मतगणना वाले दिन ही पता चलेगा, लेकिन हरियाणा या कश्मीर में इन गठबंधनों को हासिल एक-एक सीट या वोट भी चुनाव परिणाम के बाद भाजपा की रणनीति के लिए खासे अहम हैं।

देश में अधिकांश लोगों के लिए अभी भी यह रहस्य ही बना हुआ है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ की मुहिम चलाने वाली भाजपा के रहते आखिर चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव एक साथ क्यों नहीं कराए? इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में भी 10 विधानसभा सीटों के उपचुनाव भी आसानी से हो सकते थे।

तो इसका अर्थ ये नहीं निकाला जाना चाहिए कि पीएम मोदी को चुनाव प्रचार में मदद करने के लिए ये सब किया गया, बल्कि इसलिए किया गया कि चारों राज्यों में अवश्यम्भावी हार और साथ ही आरएसएस के बढ़ते आक्रामक हमलों से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को किश्त दर किश्त झेलना पड़े।

हिसाब-किताब बराबर करने के मूड में आरएसएस

4 जून के चुनाव परिणाम के बाद से आरएसएस चीफ के तेवर सारा देश देख चुका है। लेकिन कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) चीफ के हमले में एक फर्क है।

दोनों का लक्ष्य भले ही पीएम नरेंद्र मोदी को अपदस्थ करना हो, लेकिन संघ चाहता है कि उसकी जो कीर्ति हाल के वर्षों में बनी है, वह किसी तरह से बनी रहे और साथ ही उसके प्रमुख राजनीतिक संगठन, भारतीय जनता पार्टी में पिछले 10 वर्षों के दौरान जो वैचारिक और राजनीतिक क्षरण हुआ है, उसे मोदी-शाह की कुर्बानी देकर धो-पोंछकर फिर से साफ़-सुथरा कर दिया जाये।

किसान और श्रमिक विरोधी एवं क्रोनी पूंजी समर्थक सरकार का जो ठप्पा इस सरकार पर लगा है, इसकी मलाई खाने के बावजूद संघ खुद को दूध का धुला यदि साबित करना चाहता है तो इसमें गलत भी क्या है?

हालांकि, इन बदले तेवरों से यह आकलन करना गलत होगा कि भाजपा नेतृत्व के द्वारा लिए गये फैसलों से आरएसएस को कभी कोई दिक्कत रही। मोदी-शाह के सभी नीतिगत फैसले में आरएसएस पूरी तरह से उनके साथ खड़ा रहा।

धारा 370, सीएए, तीन कृषि कानून, तीन तलाक कानून सहित तमाम मुद्दों पर आरएसएस ही दशकों से देश में माहौल बना रहा था। असल में, आरएसएस की प्रकृति में ही इस्तेमाल कर मियाद खत्म हो जाने के बाद लावारिस छोड़ देने की प्रवृत्ति रही है। 10 वर्षों से सत्ता की मलाई और सैकड़ों विश्वविद्यालयों में आरएसएस के लोगों की नियुक्तियां इसका गवाह हैं।

वैसे देखा जाये तो 4 जून को बहुमत से 34 सीट कम हासिल करने की स्थिति में आरएसएस तभी आस लगाये बैठी थी कि इस दफ़ा तो उसे अपनी मर्जी चलाने का मौका मिल सकता है।

लेकिन अंतिम नतीजा निकलने से पहले ही जिस आक्रामकता के साथ पीएम मोदी ने भाजपा के बजाय एनडीए गठबंधन की बैठक बुलाकर स्वंय को तीसरी बार पीएम पद पर बिठा दिया, और इंडिया गठबंधन ने भी किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं दिखाया उसने आरएसएस की दबी इच्छा को दबे ही रहने दिया।

लेकिन गाहे-बगाहे संगठन के विभिन्न मंचों से आरएसएस/बीजेपी और आम मतदाताओं को यह संदेश दिया जाता रहा कि संघ इस बर्बादी में अपने कार्यकर्ताओं के साथ खड़ा है।

इसलिए प्रधानमंत्री न सही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के सवाल पर आरएसएस पिछले दो महीने से अड़ा हुआ है। यह वो पद है, जिसपर 2014 से या तो अमित शाह या जेपी नड्डा जी विराजमान हैं।

फिलहाल अध्यक्ष, जेपी नड्डा एक्सटेंशन पर हैं, और संघ सहित भाजपा की कतारें नए पार्टी अध्यक्ष की बाट जोह रही हैं। पार्टी के भीतर असंतोष तो तभी से पनपना शुरू हो गया था, जब एक-एक कर देश और पार्टी के हर छोटे-बड़े मसलों पर पीएमओ से फैसला होने लगा।

सारी सत्ता दिल्ली में केंद्रित होती चली गई, जबकि वाजपेयी-अडवाणी काल में सामूहिक केंद्रीय नेतृत्व के साथ-साथ राज्यों में भी सक्षम नेतृत्व को हमेशा महत्व दिया गया था।

2019 लोकसभा चुनाव में बालाकोट एयर स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव परिणाम ने मोदी-शाह की जोड़ी को लगभग अपराजेय बना दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि दशकों तक संगठन की सेवा में जुटे कार्यकर्ताओं के स्थान पर ऐन चुनाव से पूर्व आयातित नेताओं को लोकसभा, विधानसभा से लेकर राज्य सभा सांसद बनाया जाने लगा।

हद तो तब हो गई जब जमे-जमाए क्षेत्रीय कद्दावर नेतृत्व या पूर्व मुख्यमंत्रियों को किनारे कर पहली दफा जीतकर आये विधायकों को सीधे मुख्यमंत्री बनाया जाने लगा। ये लाखों लोग, जो आरएसएस के सदस्य भी हैं, आखिर इतने वर्षों तक दुखड़ा तो उसी के पास सुना सकते थे, बीजेपी में तो हर्गिज नहीं।

भाजपा अध्यक्ष पद के लिए संजय जोशी के नाम का प्रस्ताव क्या गुल खिलायेगा

कमजोर मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की खाली कुर्सी, आरएसएस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए करो या मरो का प्रश्न बन चुकी है, जिसका फैसला 8 अक्टूबर को तय हो जाने वाला है।

सूत्रों की मानें तो इस पद के लिए आरएसएस ने जिस नाम को आगे किया है, वह मोदी कैंप में किसी धमाके से कम नहीं है। यह नाम है पार्टी के पूर्व महासचिव, संजय जोशी का, जो 80 के दशक में नरेंद्र मोदी के साथ ही आरएसएस से भाजपा में पार्टी के कामकाज को देखने के लिए भेजे गए थे।

संजय जोशी का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में वे सबसे अग्रणी माने जाते थे, और 90 के दशक में तो चिमन भाई पटेल के मुख्यमंत्रित्व काल में जब नरेंद्र मोदी को गुजरात की राजनीति से बाहर कर दिया गया था, तो संजय जोशी के साथ उनकी जोड़ी की तूती बोलती थी।

मोदी-जोशी के बीच की अदावत के बारे में दैनिक भाष्कर के पॉलिटिकल एडिटर, केपी मलिक अपने सोशल मीडिया हैंडल पर बताते हैं, जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी और संजय जोशी के बीच की दूरियां दिनों-दिन बढ़ती चली गईं। हालांकि तब तक जोशी केंद्र में राष्ट्रीय महासचिव का पद संभाल रहे थे।

लोकमत हिंदी में 2018 में प्रकाशित लेख में बताया गया है कि कैसे 2005 में एक जाली सीडी ने नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंदी संजय जोशी का राजनीतिक कैरियर पूरी तरह से खत्म कर दिया था।

लेकिन इससे पहले तक यह माना जाता था कि नागपुर से बीटेक (मैकेनिकल) संजय जोशी की सांगठनिक क्षमता और तेज-तर्रार नेतृत्व ने पार्टी के भीतर अच्छे-अच्छे नेताओं को पीछे छोड़ दिया था। उनमें भविष्य का नेतृत्व देखा जा रहा था।

लेकिन एक कथित सेक्स-सीडी ने उनसे रातों-रात सब कुछ छीन लिया। यह झूठी सीडी किसने वायरल की, इसका खुलासा अभी तक सार्वजनिक नहीं हो सका है। हालांकि एक वर्ष बाद तक इस सीडी में दिख रहे व्यक्ति की शिनाख्त जोशी के साथ नहीं की जा सकी थी।

और 2007 में नितिन गडकरी जब पार्टी अध्यक्ष थे तो उन्होंने यूपी चुनाव के मद्देनजर उन्हें प्रभारी महासचिव का दायित्व सौंपा। भाजपा की हार के साथ ही जोशी का सितारा भी डूब गया था, लेकिन जोशी पार्टी में बने हुए थे। 2012 में मुंबई अधिवेशन के दौरान संजय जोशी को अधिवेशन से बाहर करने पर अड़े गुजरात के मुख्यमंत्री ने रह रही-सही कसर भी पूरी कर दी थी।

क्योंकि तब तक नरेंद्र मोदी कॉर्पोरेट इंडिया और गुजरात मॉडल के बल पर राष्ट्रीय राजनीति पर धुमकेतू की तरह चमकने लगे थे और पार्टी उस समय कोई रिस्क लेना नहीं चाहती थी।

आज उन्हीं संजय जोशी के सितारे बुलंदियों पर पहुंचने जा रहे हैं। के पी मलिक लिखते हैं कि आरएसएस ने मोदी-शाह को साफ़-साफ़ दो टूक शब्दों में कह दिया है कि या तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय अध्यक्ष पद में से कोई एक पद उनके पसंद के व्यक्ति को मिलना चाहिए।

मीडिया के सूत्र बताते हैं कि तीन दिन पहले गृहमंत्री अमित शाह इस सिलसिले में नागपुर की यात्रा कर चुके हैं, जिसमें संजय जोशी के स्थान पर किसी और नाम के लिए आरएसएस से गुजारिश की गई है। इसके लिए शिवराज सिंह चौहान के नाम को भी आगे किया गया, लेकिन आरएसएस इसके लिए राजी नहीं है।

अब इधर आरएसएस की ओर से राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री, वसुंधरा राजे पर सहमति बताई जा रही है। लेकिन, संजय जोशी और वसुंधरा राजे सिंधिया दोनों ही ऐसे नाम हैं, जिन्हें मोदी-शाह किसी सूरत में स्वीकार नहीं कर सकते। इन दोनों के ही पार्टी अध्यक्ष बनने का मतलब है, तेजी से सरकार और पार्टी में दो फाड़ की स्थिति।

पार्टी अध्यक्ष की ओर से पार्टी को बचाने और मजबूत करने के लिए जो कदम उठाये जा सकते हैं, वो सरकार की नीतियों के ठीक उलट हो सकते हैं।

इतना ही नहीं अब तो नितिन गडकरी भी खुलकर बोलने लगे हैं कि उन्हें पीएम पद का प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने इसमें रूचि नहीं दिखाई। साथ ही वे कहते हैं कि उचित चैनल से प्रस्ताव आया तो वे इस पर विचार कर सकते हैं।

75 साल में सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिए गये अडवाणी, जोशी सहित दर्जनों वरिष्ठ भाजपा नेता ही पीएम मोदी के 75 वर्ष पूरे होने का बेसब्री से बाट नहीं जोह रहे, बल्कि विपक्ष भी इस मुद्दे को अब जोर-शोर से उठाने लगा है।

ऐसे में, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव कितने अहम हैं, इसका अंदाजा इन राज्यों में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों तक को नहीं है। यदि दोनों राज्य भाजपा किसी तरह जीतने में सफल भी रहती है तो आरएसएस लॉबी और पार्टी के भीतर बागियों के मुंह एक बार फिर से सिल सकते हैं।

लेकिन हालात चीख-चीख कर बयां कर रहे हैं कि पीएम मोदी की लोकप्रियता का जो ग्राफ 2024 आम चुनाव में गिरना शुरू हुआ था, उसमें गिरावट रुकने का नाम नहीं ले रही है।

राहुल गांधी-मल्लिकार्जुन खरगे की जोड़ी गोदी मीडिया और साइबर सेल के झूठे नैरेटिव को परे रख, बेरोजगारी, बढ़ती असमानता, जाति जनगणना और महंगाई से जुड़े मुद्दों को लगातार आम लोगों के बीच रख, देश के मूड को इंडिया गठबंधन के पीछे लामबंद करते जा रहे हैं।

जिसका फायदा उठाकर आरएसएस भाजपा के शीर्ष नेतृत्व पर अपना शिकंजा मजबूत करती जा रही है। 8 अक्टूबर के नतीजे इसीलिए इन दो राज्यों के चुनाव परिणाम से भी बेहद अहम हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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