लगभग छ: दशक पहले स्वामी विवेकानंद के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर मायावती आश्रम, ( रामकृष्ण मिशन , जिला चंपावत, उत्तराखंड ) द्वारा विवेकानंद का संपूर्ण साहित्य दस खंड में हिन्दी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित किया गया था। इसको पढ़कर यह ज्ञान होता है कि स्वामी विवेकानंद के मांसाहार और गाय के बारे में क्या विचार हैं।
19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में स्वामी विवेकानंद अपने लंबे अमेरिकी प्रवास से वापस हिंदुस्तान लौटते हैं।
इस समय के दौरान ब्रिटेन के अलावा भी कुछ अन्य देशों का भ्रमण कर चुके होते हैं। उनके लौटने पर एक बार उनसे मिलने के लिए गौ रक्षा समिति के कुछ सदस्य पहुंचते हैं और उनसे गौ रक्षा आंदोलन के लिए कुछ दान की मांग करते हैं।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि, “क्या आप मनुष्यों के कल्याण के लिए भी कुछ करते हैं? स्वामी विवेकानंद उन्हें आगे कहते हैं कि अखबारों में ऐसा छपा है कि भारत में नौ लाख लोग अकाल से भूखे मर चुके हैं। क्या आपने उनके लिए कुछ किया है”
गौ रक्षा आंदोलन के सदस्य कहते हैं कि वह केवल गायों के लिए ही कार्य करते हैं, मनुष्य के लिए नहीं। इस पर स्वामी विवेकानंद का पारा चढ़ जाता है और वह कठोर शब्दों में रहते हैं कि, “भैया मैं तो फकीर आदमी ठहरा। मेरे पास धन दौलत कहां रखी है। हां, अगर मेरे पास धन होता तो मैं पहले मनुष्यों की प्राण रक्षा के लिए ही उसे प्रयोग करता न कि गोरक्षा के लिए।
स्वामी विवेकानंद अन्यत्र कहते हैं कि “केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जो अपनी आत्मिक प्रगति कर सकता है। गाय एक पशु है और वह कभी प्रगति नहीं कर सकती। यह बात बार-बार विभिन्न मौकों पर पुस्तक में दर्ज की जाती है”।
जहां तक मांसाहार की बात है उसके बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि, “जब तक (विज्ञान के द्वारा) शाकाहारी भोजन की गुणवत्ता मांसाहारी भोजन की गुणवत्ता की ऊंचाइयों के बराबर नहीं पहुंच जाती, उस समय तक मेहनतकश आदमियों को मांसाहार की बजाय शाकाहार की सलाह देना मूर्खता है।
हां, जो धनिक लोग शारीरिक श्रम नहीं करते उनके लिए मांसाहार ना भी किया जाए तो कोई बात नहीं।”
इसके अलावा भी विवेकानंद साहित्य में बार-बार विवेकानंद का यह कथन दर्ज है कि, “तुम्हारा धर्म रसोई घर में घुसा है।”
पाठकों को ज्ञात होना चाहिए कि जब स्वामी विवेकानंद को भारत में भी कोई नहीं जानता था, जब स्वामी विवेकानंद विदेश भी नहीं गए थे, उस समय उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा शहर जाते हुए स्वामी विवेकानंद भूख और प्यास से बेहाल हो बेहोश हो गये थे। वे अल्मोड़ा के कब्रिस्तान के पास एक शिला पर गिर पड़े थे।
उस समय कब्रिस्तान की देखभाल करने वाला जुल्फिकार नामक मुसलमान व्यक्ति दौड़कर उनके पास आता है और उन्हें खीरे का जूस पिलाने को होता है। लेकिन फिर अपने मजहब के ख्याल से झिझक जाता है। अर्ध बेहोशी की हालत में विवेकानंद उसकी बात समझ कर कहते हैं कि, “कोई बात नहीं। मुझे तुम यह जूस पिला दो”।
आज भी उस मुस्लिम व्यक्ति की तीसरी पीढ़ी (अख्तर अली) और चौथी पीढ़ी ( जागरण गायक नाजिम) के सदस्य अल्मोड़ा में कब्रिस्तान में रहते हैं। लेकिन अफसोस कि आज भी उन्हें मात्र ₹500 प्रति माह का मामूली वजीफा ही रामकृष्ण मिशन द्वारा दिया जाता है।
स्वामी विवेकानंद को अपना गुरु बताने वाले हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी उत्तराखण्ड के कुमाऊं इलाके की यात्रा के समय स्वामी विवेकानंद के प्राण बचाने वाले उस खानदान से मिलना तक गवारा नहीं समझते। (या संभव है उन्हें, भागवत या मुख्यमंत्री को पता ही ना हो। जरूरत ही क्या है?)
(डॉ. उमेश चंदोला पशु चिकित्सक हैं)
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