पिछले एक सप्ताह से सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों से मोदी सरकार और बीजेपी-संघ खेमे ने देश में कोहराम मचा रखा है। उन्हें लगता है कि न्यायपालिका अपने हद से बाहर होती जा रही है, जिसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी। इसमें से पहला है, तमिलनाडु राज्य सरकार द्वारा पारित बिलों पर राज्य के राज्यपाल का वर्षों से कुंडली मारकर बैठना और ज्यादा दबाव पड़ने पर राष्ट्रपति को भेज ठंडे बस्ते में डाल देने की कोशिशों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला। दूसरा विवादित वक्फ़ संशोधन बिल पर कोर्ट में चली दो दिन की सुनवाई के दौरान संविधान में प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार से कुछ जरुरी सवाल।
ये दोनों ही प्रश्न ऐसे हैं, जिनके बारे में केंद्र सरकार और भाजपा को यकीन हो चला था कि उसने मामले को अपने पक्ष में सेटल कर लिया है। लगभग सभी विपक्ष शासित राज्यों में केंद्र के इशारे पर अडंगा डालने वाले राज्यपालों की भूमिका कदम-कदम पर राज्य सरकारों के काम में बाधा डालने की बन चुकी है। लेकिन बरसों से चल रही इस परिपाटी पर जब देश की सर्वोच्च अदालत की खंडपीठ ने न्यायोचित फैसला सुनाया तो केंद्र सरकार के मंत्री आगबबूला नजर आ रहे हैं।
बीजेपी के चार बार के सांसद, निशिकांत दूबे तो इस भीड़ में खुद को सबसे बड़े स्वामीभक्त साबित करने के लिए काफी कुछ ऐसा बोल चुके हैं, जिससे बीजेपी ने किनारा कर लिया है, लेकिन सत्तापक्ष के अन्य माननीय सांसदों, विधायकों और आईटी सेल के हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे।
आम भारतीय भी इस पूरी बहस और चीख-पुकार में पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो पा रहा कि न्यायपालिका ने अपनी सीमारेखा का अतिक्रमण किया है या नहीं, और क्या राज्यपालों द्वारा आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति को 3 माह की समयसीमा निर्धारित कर कोर्ट ने देश के प्रथम व्यक्ति, तीनों सेना के अध्यक्ष और स्वंय कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के औपचारिक प्रमुख के पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने का काम किया है?
असल में उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से लेकर सांसद निशिकांत दूबे या केंद्रीय मंत्री किरण रिजूजू, सभी मिलकर कुछ इसी प्रकार का नैरेटिव खड़ा करने में जुटे हैं, जिससे देश में यह संदेश जाए कि कोर्ट अपनी हद से बाहर जा रही है। कोर्ट को अब काबू में रखना ही होगा और इसके लिए कालेजियम सिस्टम को खत्म करने का समय आ गया है।
लेकिन, यह सफेद झूठ है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों द्वारा राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़े जाने वाले विधेयकों पर तीन माह की समयसीमा खुद नहीं तय की है, बल्कि 2016 में यह व्यवस्था खुद मोदी सरकार ने तय की थी, जिसे वह अपनी सुविधा के हिसाब से भुला चुकी है। असल में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में गृह मंत्रालय द्वारा जारी 2016 के कार्यालय ज्ञापन का हवाला दिया था, जिसमें राष्ट्रपति के लिए आरक्षित राज्य विधेयकों पर फैसला लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई थी।
इतना ही नहीं, न्यायालय ने सरकारिया आयोग (1988) और पुंछी आयोग (2010) की सिफारिशों को लागू किया, जिनमें आरक्षित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने की बात कही गई थी। अनुच्छेद 201 पर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या राष्ट्रपति के लिए राज्य विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए तीन महीने की स्पष्ट समयसीमा स्थापित करती है, जिससे जवाबदेही बढ़ती है और मनमाने विलंब कम होते हैं। यह निर्णय राज्यों को अनुचित विलंब को चुनौती देने का अधिकार देकर संघीय शासन को मजबूत करता है। यह विधायी प्रक्रिया में कार्यकारी शक्तियों के दुरुपयोग के खिलाफ पारदर्शिता और सुरक्षा को सुनिश्चित करता है।
यह फैसला देश की सर्वोच्च अदालत ने 8 अप्रैल, 2025 को लिया, जिससे तमिलनाडु राज्य के राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद का पटाक्षेप हो गया। राज्यपाल साहब कई वर्षों से राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने से इनकार कर रहे थे। न तो वे बिलों को मंजूरी दे रहे थे, और न ही उन्हें विधानसभा को वापस कर रहे थे, और न ही उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजा गया। देश में क़ानूनी मामलों के जानकार वरिष्ठ अधिवक्ता, गौतम भाटिया इसे राज्यपाल आर।एन। रवि का बिलों पर “पॉकेट वीटो” करार देते हैं।
इस फैसले के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 10 लंबित विधेयकों की मंजूरी का रास्ता भी खोल दिया था। आखिर तमिलनाडु विधानसभा द्वारा राज्य की जनता के लिए पारित इन 10 विधेयकों में ऐसा क्या दोष था, जिसे राज्यपाल लटकाए हुए थे? इनमें से कुछ विधेयक इस प्रकार से हैं: तमिलनाडु मेडिकल प्रवेश परीक्षा को नीट से अलग करने का प्रस्ताव, विश्वविद्यालय उपकुलपति विधेयक, सिद्ध मेडिकल यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक, मत्यस्य पालन यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक, तमिलनाडु एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक, तमिलनाडु कृषि यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक, तमिलनाडु डॉक्टर अंबेडर लॉ यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक, तमिलनाडु मदर टेरेसा महिला विश्वविद्याल संशोधन विधेयक, तमिलनाडु वेटनरी यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक और तमिलनाडु अन्ना यूनिवर्सिटी संशोधन विधेयक।
बता दें कि तमिलनाडु एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है, जहां ऐसी घटनाएं हुई हैं: केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल तथा राज्यों की विधानसभाओं के बीच टकराव हाल के वर्षों में तेजी से आम हो चला है, विशेषकर उन राज्यों में जहां विपक्षी दल या विपक्षी गठबंधन सरकार में है। गौतम भाटिया के मुताबिक, ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह विवाद न केवल अपने लिए महत्वपूर्ण था; बल्कि इससे भी अधिक, यह भारत के संघीय ढांचे के भीतर तनावों के व्यापक समूह का प्रतिनिधित्व करता था।
भाजपा और उसके सांसदों को विपक्ष शासित राज्यों में नियुक्त राज्यपालों की इस निरंकुशता के छिन जाने का गहरा सदमा तो लगा है, लेकिन राष्ट्रपति की ओट भी छिन जाने से उनकी हताशा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी है।
जैसे आम भारतीय और विपक्ष के लिए भी भारतीय न्यायपालिका ही न्याय की अंतिम चौखट बची हुई थी, जिससे उसे हाल के वर्षों में अक्सर निराशा ही हाथ लगी थी, विपक्ष शासित राज्यों के पास भी सुप्रीम कोर्ट ही आखिरी उम्मीद थी। संघवाद के तहत जो अधिकार राज्यों को आजादी के बाद मिले हुए थे, उसे जीएसटी पर अपनी रजामंदी देकर वे पहले ही आर्थिक रूप से गंवा चुके हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने अपंग हो चुके राज्यों में इस फैसले से आशा का संचार अवश्य कर दिया है।
अब चाहे राज्यपालों की शक्तियों पर अंकुश लगाने का प्रश्न हो या वक्फ़ संशोधन विधेयक पर केंद्र सरकार को एक सप्ताह के भीतर कुछ बुनियादी प्रश्नों पर अपना जवाब सौंपने की बात हो, देश को चाहिए कि वह उलट कर मोदी सरकार और उनके सांसदों से भी जवाब-तलब करे।
पहला, संसद में जोड़तोड़ और जरुरी संख्याबल के आधार पर यदि सत्तापक्ष कोई कानून पारित कराने में कामयाब रहती है, तो क्या इससे यह तय हो जाता है कि वह सही अर्थों में देशहित में भी है? आखिर इसी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में तीन कृषि कानून भी जबरन पारित कराए ही थे, लेकिन क्या हुआ? एक वर्ष से भी अधिक समय तक देश भर के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर धरना-प्रदर्शन और 750 जानों को गंवाकर उन काले कानूनों को रद्द कराने में कामयाबी हासिल की थी या नहीं? आखिर उन कानूनों को भी तो महामहिम राष्ट्रपति ने अपनी मंजूरी दी थी?
क्या इस आधार पर कहा जा सकता है कि देश के किसानों ने संसद और उससे भी प्रमुख, राष्ट्रपति की तौहीन की थी? इसके अलावा, 1975 में देश में आपातकाल लागू करने का फैसला भी तो संसदीय प्रक्रियाओं का पालन और तत्कालीन राष्ट्रपति की लिखित मंजूरी के बाद ही अमल में लाया जा सका था? फिर किस आधार पर मौजूदा सरकार हर मौके पर आपातकाल का राग छेड़ देती है, और इस वर्ष तो बाकायदा संसद में बहस तक कराई गई।
इस सबसे भी बड़ी बात, केंद्र सरकार भले ही 140 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर एक के बाद एक विधेयक, बगैर चर्चा के संसद में पारित करा लेती है, जिसे अगले ही दिन राष्ट्रपति की मंजूरी हासिल हो जाती है। जबकि दूसरी तरफ, विपक्ष शासित राज्यों द्वारा बहुमत के आधार पर कानून बनाकर जब केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जाता है, तो उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, और कई बार ये बिल राष्ट्रपति के पास धूल खा रहे होते हैं।
इससे क्या यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि असल में राज्यपाल स्वविवेक और राज्य हितों की जगह केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं? आखिर भाजपा शासित किसी भी राज्य में राज्यपाल ऐसा अड़ंगा क्यों नहीं डालते? क्या डबल इंजन सरकार का भाजपा का नारा असल में राज्यों के मतदाताओं को परोक्ष रूप में धमकाने का नहीं रहता कि हमें विधानसभा में भी वोट दो, वर्ना राज्यपाल के माध्यम से राज्य की प्रगति में रोड़े ही रोड़े मिलेंगे।
फिर, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और उनकी खंडपीठ ने तो भाजपा सरकार के ही गृह मंत्रालय की गाइडलाइन्स के आधार पर अपना फैसला सुनाया है, तो फिर इतनी हायतौबा क्यों? सर्वोच्च न्यायालय का काम कानून बनाना नहीं, बल्कि संविधान के बुनियादी उसूलों की कसौटी पर सरकार द्वारा पारित विधेयकों की समीक्षा कर दूध का दूध और पानी करना है। अपने इस न्यायपूर्ण विवेकसम्मत फैसले से सर्वोच्च अदालत देश को गृहयुद्ध में जाने से बचा रही है, न कि झोंक रही है माननीय सांसद महोदय!
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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