दिवंगत पूर्व चीफ जस्टिस की डिग्री की जांच करने वाले सांसद की स्वयं की डिग्री का कोई अता-पता नहीं 

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भाजपा के नए चहेते सांसद, निशिकांत दुबे के खिलाफ न्यायालय की मानहानि का मुकदमा चलाने की मुहिम के बीच भी सांसद साहब रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अपने ताजातरीन ट्वीट में उन्होंने जानकारी दी है कि 60 के दशक में देश के चीफ जस्टिस कैलाश नाथ वांचू कानून की पढ़ाई किये बगैर ही देश के चीफ जस्टिस बना दिए गये थे। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने भाजपा समर्थक वर्ग को यह समझाने की कोशिश नजर आती है कि हम जो कह रहे हैं, उसके पीछे ठोस आधार है, और देश की न्यायपालिका अयोग्य हाथों में है या कांग्रेस की अल्पसंख्यक समर्थक धर्मनिरपेक्ष नीति के चलते दृष्टिबाधित है।

लेकिन भला हो सोशल मीडिया पर लाखों जागरूक नागरिकों का, जो अब बीजेपी या आईटी सेल की किसी भी चालबाजी को दो मिनट में मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तथ्यों की पड़ताल कर मुंह पर जवाब चिपका देते हैं। इसके लिए एलन मस्क के AI टूल Grok की भूमिका निश्चित रूप से काफी अहम है। एलन मस्क की टेस्ला का बाजार पूंजीकरण भले ही लगातार भारी गिरावट से दो-चार हो रहा हो, लेकिन Grok तो भारत में एंटी डॉट के रूप में तैनात होकर पिछले कुछ समय से सत्ता के लिए सबसे बड़ा सरदर्द बन चुका है।

बता दें कि 12 अप्रैल 1967 को देश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाले कैलाश नाथ वांचू (जन्म 25 फरवरी, 1903), उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में एक कश्मीरी पंडित परिवार में जन्में थे। कानपुर के पंडित पृथ्वीनाथ हाई स्कूल और इलाहाबाद में म्योर सेंट्रल कॉलेज से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे वधम कॉलेज, ऑक्सफ़ोर्ड गये।  

आजादी से पहले भारतीय प्रशसनिक सेवा के लिए आईएएस नहीं आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी, जिसमें कैलाश नाथ वांचू सफल रहे, और 1924 में इंग्लैंड से ट्रेनिंग लेने के बाद 1926 में उन्हें उत्तर प्रदेश में जॉइंट मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्ति प्राप्त हुई थी। करीब दो दशक तक विभिन्न प्रशासनिक सेवाओं पर रहने के बाद उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश (1947-1951) बनने का अवसर मिला। इसके पश्चात उन्हें राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (1951-1958) के रूप में कार्य करने का मौका मिला, और इस प्रकार उन्हें राजस्थान उच्च न्यायालय के इतिहास में सबसे लंबे समय तक अपनी सेवाएं प्रदान करने वाले मुख्य न्यायाधीश के रूप में जाना जाता है।

1958 में कैलाश नाथ वांचू भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हुए और 12 अप्रैल 1967 को के. सुब्बाराव ने जब राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के लिए इस्तीफा दिया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के द्वारा उन्हें भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था, जिसे वे 24 फरवरी 1968 तक अपनी सेवानिवृत्ति तक निभाते रहे। 

यह सही है कि चीफ जस्टिस कैलाश नाथ वांचू ने कानून की औपचारिक डिग्री हासिल नहीं की थी, उसके बावजूद वे भारत के एकमात्र मुख्य न्यायाधीश बने, लेकिन उनका कानूनी ज्ञान आईसीएस की तैयारी के दौरान आपराधिक कानून के प्रशिक्षण से उपजा था। उनके अलावा भी 4 अन्य हस्तियों को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने का मौका मिला, जो औपचारिक कानून की शिक्षा की जगह आईसीएस सेवा से हासिल अनुभव और ज्ञान की बदौलत इस मुकाम तक पहुँचने में सफल रहे थे। 

अपने सर्वोच्च न्यायालय के कार्यकाल के दौरान उन्होंने 355 फैसले लिखे और 1,286 पीठों में शामिल रहे। भारत के तीसरे राष्ट्रपति जाकिर हुसैन को पद की शपथ दिलाने के अलावा उन्होंने उत्तर प्रदेश न्यायिक सुधार समिति के अध्यक्ष (1950-51), विधि आयोग के सदस्य (1955), और इंदौर फायरिंग जाँच आयोग (1954) और धौलपुर उत्तराधिकार मामला आयोग (1955) जैसी जाँचों का नेतृत्व किया। 14 अगस्त 1988 को कैलाश नाथ वांचू का निधन हो गया, लेकिन भाजपा के एक सांसद की वजह से आज देश को इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने की जरूरत पड़ रही है। यह अलग बात है कि ऐतिहासिक तथ्य भी इतने सशक्त हैं, जो भारतीय न्यायालय की शानदार परंपरा और गौरवशाली इतिहास को ही पुख्ता करते हैं।  

असल में सांसद साहब इस तथ्य को सार्वजनिक कर यह बताना चाहते थे कि कांग्रेस के जमाने से ही भारतीय न्यायपालिका में अयोग्य, सत्ता के चापलूस लोगों को सरकार द्वारा न्यायपालिका की चाभी सौंप दी जाती थी। लेकिन एक आईसीएस अधिकारी जिसने उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के पहले 20 वर्षों तक प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था का काम संभाला हो, और उसके बाद के वर्षों में भी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के तौर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया हो, को अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना कहाँ तक उचित है? 

असल में शिक्षा, अपने जन्म की एफिडेविट और डिग्री के बारे में देश को जवाब तो डॉ निशिकांत दुबे जी को देना चाहिए, जिसके बारे में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा दो साल पहले ही सार्वजनिक रूप से पूछ चुकी हैं। टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने निशिकांत दुबे पर 2009 और 2014 के लोकसभा हलफनामों में गलत शैक्षणिक योग्यता प्रस्तुत करने का आरोप लगाया था, जिसमें उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) से पार्ट टाइम एमबीए करने का दावा किया था, जिसे बाद में डीयू ने 2020 के आरटीआई जवाब में यह कहते हुए नकार दिया था कि ऐसा कोई उम्मीदवार दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्ष 1993 में नामांकित या स्नातक नहीं था।

यह कैसी अजीब विसंगति है कि भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा दो दिन पहले ही अपने सांसद के बयानों से पार्टी का पल्ला तो झाड़ लेते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के लिए कारण बताओ नोटिस नहीं देते। निशिकांत दुबे न सिर्फ देश के संविधान और अदालत की तौहीन कर रहे, बल्कि पूर्व चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी को मुस्लिम चुनाव आयुक्त का ठप्पा लगाने से बाज नहीं आ रहे। इससे भी मन नहीं भरा तो आज उन्होंने देश के पूर्व चीफ जस्टिस, जिन्हें दिवंगत हुए कई दशक बीत गये, की शिक्षा का ब्यौरा तलब कर लिया है।

यह साफ़ बताता है कि निशिकांत दुबे, जो बीजेपी नेतृत्व के लिए संसद के भीतर विपक्षी नेताओं पर व्यक्तिगत हमले करने के लिए सबसे बड़े हथियार बनकर सामने आये हैं, को खुला समर्थन हासिल है। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह सारी कवायद असल में जल्द ही सेवानिवृत्त होने जा रहे चीफ जस्टिस और उनके स्थान पर नियुक्त होने वाले बी. आर. गवई को साफ़ संकेत देने के इरादे से की जा रही है। तमिलनाडु के राज्यपाल भी सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के बावजूद राज्य के उप-कुलपतियों की सभा का आयोजन करने जा रहे हैं।

केंद्र सरकार को लगता है कि हाल में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों को जीतकर उसने विपक्ष का लुंज-पुंज कर डाला है, ऐसे में 2019 वाले अपने दूसरे कार्यकाल की निरंकुशता को वह आसानी से दोहरा सकती है। लेकिन संसद में विपक्ष और सड़क पर आम मुसलमान और धार्मिक संगठन ही नहीं देश की सर्वोच्च अदालत भी उनके द्वारा बनाये गये वक्फ़ कानून में खामियां गिनाने लगी है?

वक्फ़ बिल से विपक्ष को किनारे लगाने के बजाय मोदी सरकार ने न सिर्फ उसे फिर से मजबूत कर दिया है, बल्कि एनडीए के अपने साझीदार दलों के मन में भी अलगाव पैदा कर दिया है। ऊपर से यदि सर्वोच्च न्यायालय भी बिल में तमाम खामियां गिनाकर इसे भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ करार देता है, तो देश का लिबरल हिंदू भी सोचने पर मजबूर हो सकता है। निशिकांत दुबे असल में संकटमोचक की भूमिका में हैं, और इसके लिए उन्होंने अपना राजनीतिक कैरियर भी दांव पर लगा दिया है। 

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के द्वारा दिए गए “असंयमित बयान” की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है। दुबे के द्वारा सीजेआई संजीव खन्ना को “देश में सभी गृहयुद्धों” के लिए जिम्मेदार बताने के साथ ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भी टिप्पणी की है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने अटॉर्नी जनरल से अपील की है कि वे निशिकांत दुबे के खिलाफ आपराधिक अवमानना ​​कार्यवाही शुरू करने की अनुमति प्रदान करेंगे।

जस्टिस बी. आर. गवई ने अपनी कोर्ट में अवमानना की याचिका के लिए अटॉर्नी जनरल से अनुरोध करने के लिए कहा था। इसका अर्थ है कि मोदी सरकार के पाले में गेंद है, जिसमें उसे अब अटॉर्नी जनरल तुषार मेहता को स्पष्ट जवाब देना होगा कि भाजपा सांसद निशिकांत दूबे के खिलाफ चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला चलना चाहिए या नहीं? 

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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